क्या सचमुच ईश्वर पक्षपात करता है?

May 1988

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ईश्वर समद्रष्टा है, वह कल्याणकारी, न्यायकारी व दयालु है। कुछ लोग ऐसा नहीं मानते और कहते हैं कि यदि उसमें समत्व का भाव रहा होता, तो यह संसार दुःखों का पिटारा न होता। तब हम किसी को मौज-मस्ती करते और किसी को दुःखों का पहाड़ उठाते नहीं देखते। सर्वत्र समता दृष्टिगोचर होती। वे तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि यदि वह दयालु होता तो इस सृष्टि के प्राणियों को रोग-शोक और प्रकृति-प्रकोप की मार नहीं झेलनी पड़ती।

प्रथम दृष्टि में अनीश्वरवादियों के यह कथन सत्य जान पड़ते हैं, पर तनिक सूक्ष्म बुद्धि का प्रयोग करने से कथन की निरर्थकता और आधार हीनता स्पष्ट झलकने लगती है। दुःख दर्द सर्वदा दाता की क्रूरता के परिचायक नहीं होते। इसके पीछे कल्याणकारी भावना भी छिपी रह सकती है। पिता जब पुत्र को बुरे कार्य करते, कुमार्गगामी बनते देखता है, तो वह उसे दण्ड देता हैं, ताकि वह ऐसा करना छोड़ दें, अपना सुधार करें और उन्नति-प्रगति के लिए उत्तम मार्ग चुने। इसकी प्रतिक्रिया भी अनुकूल होती है और इस नियंत्रण से बालक सुधरता दिखाई पड़ता हैं कारण न जानने वालों को इसमें पिता की गलती और नृशंसता दिखाई पड़ सकती है, पर जो कारण जानते हैं, जिन्हें बालक की उच्छृंखलता का पता है, वह पिता को कदापि दोष न देंगे।अतः किसी मनुष्य को दुःख भोगते देख कर यह कहना कि ईश्वर पक्षपाती है, उचित न होगा, क्योंकि हमारे ये स्थूल नेत्र मनुष्य की सम्पूर्ण विकास यात्रा को कहाँ देख समझ पाते हैं पिछले जन्म में उसने कैसे कर्म किए?इसे जानने की सामर्थ्य इन चर्म चक्षुओं में कहाँ है? अस्तु कारण को समझे बिना ईश्वर पर दोषारोपण करना किसी भी प्रकार समीचीन न होगा। मानवी दुःखों पर यदि गहराईपूर्वक विचार किया जाये, तो उस से हमें दो बातें मालूम होंगी- प्रथम यह कि वह व्यक्ति को विकास के लिए उद्यत करता है और दूसरे पाप से रोकता है। पहले प्रकार के दुःख में व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयास और परिश्रम करना पड़ता है। यदि व्यक्ति गरीब है, तो उसे इनका उपार्जन करना पड़ता है, तभी वह अपनी दुरवस्था से उबर पाता है, पर मनुष्य अपनी विपन्नता को, अभाव की स्थिति व उपार्जन के परिश्रम को दुःख मान बैठता हैं यदि वह किसी प्रकार की क्रिया न कर, काम से जी चुराए और निष्क्रिय बना बैठा रहें, तो उसकी शारीरिक मानसिक क्षमताओं का विकास कैसे होगा? विकास के लिए आवश्यक है कि उन क्षमताओं का उपयोग हो और उपयोग तभी संभव है, जब वैसी परिस्थिति हो, जिसमें उनका उपयोग बन पड़ें। अभावग्रस्तता-विपन्नता ऐसी ही परिस्थितियाँ हैं, जिनमें मानवी क्षमताओं को विकसित होने का भरपूर अवसर मिलता है और इन्हें सुविकसित कर व्यक्ति अन्ततः अपनी अभावग्रस्तता से मुक्ति पाता है। अतः इस दुरवस्था को दुःख समझ लेना एक प्रकार की भूल है। ऐसा मान लेने से तो व्यक्ति प्रयत्न-पुरुषार्थ त्याग कर अकर्मण्य बन बैठेगा। ज्ञातव्य है-कोई व्यक्ति इस दुनिया में धन-दौलत लेकर नहीं आता। वह सदा खाली हाथ आता है। सम्पत्ति तो उसे प्रयास और परिश्रम पूर्वक कमानी पड़ती है, क्योंकि इस जीवन-संकट को गतिवान रखने के लिए हर व्यक्ति की यह प्रथम आवश्यकता है, जिसे सबों को पूरी करनी पड़ती है। जिसके दौरान क्षमताओं का निश्चय ही विकास होता है। देखा जाता है कि कोई जीविकोपार्जन के लिए शिल्पकला अपना लेता है, तो कोई साहित्य सृजन। कोई चित्रकारी करके अपना पेट भरता है, तो कोई कृषि कार्य करता है। यदि किसी ऐसे व्यक्ति से कोई मूर्ति गढ़ने, निबंध लिखने, चित्र बनाने या कृषि संबंधी कार्य करने के लिए कहा जाय, जिस के यह व्यवसाय नहीं हैं, तो वह इन कार्यों में वह निपुणता प्रदर्शित नहीं कर सकेगा, जो इनके पेशेवर व्यवसायी कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने लगातार अपने-अपने क्षेत्र में अपनी-अपनी क्षमताओं को उन्नत बनाया है।

इसके विपरीत जिन्हें विरासत में सम्पत्ति मिली हुई है, और जिसे प्राप्त करने के लिए उन्हें तनिक भी हाथ-पैर चलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती, वे व्यसनों में पड़ कर धीरे-धीरे अपनी शक्तियों गंवाने लगते है। संसार में ऐसी अनेक जातियाँ, राजा और व्यक्ति हुए हैं, जिनने ऐश्वर्य के मद में आकर अपना सर्वनाश कर डाला। ऐसे भी उदाहरणार्थ की कमी नहीं, जिसमें व्यक्ति माली स्थिति में सर्व सम्पन्नता की स्थिति में जा पहुँचे हों। आराम तलब आराम फरमाने के कारण कुछ करने योग्य भी नहीं रहते।

धनियों का इतिहास देखने से ज्ञात होगा कि उनके बाप-दादों ने कंगाली की स्थिति में घोर परिश्रम द्वारा धन इकठ्ठा किया था, जिसे अब वे मौज-मस्ती में उड़ा रहें है। क्या उनमें अपने पूर्वजों जैसे प्रबल पुरुषार्थ और जीवट जैसे गुणों शेष रह जाते है? यदि नहीं तो क्या यह अवगति नहीं हुई? व्यक्ति को यदि हर प्रकार के सुख अनायास ही मिल जाये, तो फिर उसकी उन्नति की प्रवृत्ति ही समाप्त हो जाएगी। विजय हमेशा युद्ध लड़ने वालों को ही मिलती है, और कष्ट सहने वाले ही सदा यश के भागी बनते है। लड़ाई लड़ना और कष्ट-कठिनाई उठाना दुःख कहना, निश्चय ही एक भारी भूल है।

दूसरे प्रकार की व्यथा हमें पाप से बचाती हैं। व्यक्ति जब अनाचार-अत्याचार पर उतारू होता है तो भगवान की ओर से उसे उसका अन्यान्य प्रकार से दण्ड भी मिलता है। जब किये की सजा पाता है तो व्यक्ति फिर वैसे पाप-कर्म करने का साहस नहीं कर पाता और इस प्रकार कुकर्मों से बचा रहता है इस तरह एक प्रकार की अवस्था मनुष्यों के लिए प्रेरित करके उन्नति का कारण बनती है, दूसरे प्रकार की अनेकानेक अवस्थाएं उन्हें दण्ड मिली होती है। दण्ड को दुःख कैसे माना जाये ऐसा मान भी लिया जाये,त्र तो इसका जिम्मेदार स्वयं होता है। यह स्थिति उसकी खुद की होती है। कोई व्यक्ति अपराध की सजा पाकर जाता है और इसे वह अपना दुःख मान लेता है उसकी नासमझी ही होगी। यह तो उसके बुरे कर्म परिणाम है। अधिकारीगण हर किसी को जो कहाँ बन्द कर देते हैं जो अपराध वृत्ति अपना जेल भी उन्हें ही भुगतनी पड़ती है। ईश्वर के पापकर्म के लिए सजा और पुण्य के लिए पारितों का प्रावधान है। पर ईश्वरीय न्याय व्यवस्था दुष्कर्म की सजा के लिए प्रतिकार का भाव नहीं है न ही उसमें क्रूरता-कठोरता की निशानी होती है दण्ड सदा सुधार भावना से दिया जाता है, और उसी स्तर का होता है, जिस स्तर का अपराध प्रकार देखा जाये तो इसमें भी उसकी दयालुता पुट मिलती है। कोई कोमल-हृदय माता भी प्रिय पुत्र को ऐसी दयालुता से दण्ड नहीं दे पाती ईश्वर नियम-भंग करने वालों को देता हैं इतना ही अन्तर है कि व्यामोह बन्धन में जकड़ी अपनी सन्तान को कुमार्गगामी बनने का साहस बैठती है, किन्तु ईश्वरीय सत्ता ऐसा नहीं करती। प्रकार यह कहना कि इस संसार में दुःख-ही-दुःख भरा पड़ा है, अथवा भगवत् सत्ता न्याय का कल्याणकारी नहीं है, अनुचित होगा।

सच तो यह है कि जितना हम दुःखों पर ध्यान हैं, उतना ईश्वर प्रदत्त सुखों पर विचार करते ही यदि ऐसा होता, तो परमसत्ता को कोसने की बजाये हम सदा उसके आभारी बने रहते। शायद हमने कभी सोचा ही नहीं कि विभिन्न प्रकार की इन्द्रियों माध्यम से जो हमें आनन्दानुभूति प्राप्त होती है, वह ईश्वर की महती कृपा नहीं है? इन आँखों से हम कि सुन्दर-सुन्दर दृश्य निहारते हैं, स्रष्टा की अनुपरमरच देख कर हमें कितना सुख मिलता है, इसे तो कि अंधे से पूछकर ही जाना जा सकता है। यदि स्वाद लिए जीभ न मिली होती, तो हम जायकेदार व्यंजनों का रसास्वादन नहीं कर पाते। फिर गुड और गोबर हमें एक जैसे प्रतीत होते। कान के अभाव में हम संगीत और शब्दों का आनन्द-लाभ कैसे ले पाते? नाक नहीं होती तो विभिन्न प्रकार की वस्तुओं और फूलों की खुशबू बेकार साबित होती। तब खुशबू और बदबू में भेद प्रकट नहीं हो पाता और एक के प्रति सुख व आकर्षण एवं दूसरे के प्रति घृणा की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती।

इतना ही नहीं, सर्वेश्वर ने हर जीव की सुरक्षा का प्रबन्ध भी किया है। समर्थ और शक्तिशाली प्राणियों को शत्रु से अपनी रक्षा के लिए उपयुक्त अंग-अवयव प्रदान किये हैं, जबकि वैसे प्राणी जो निर्बल और कमजोर हैं, उनकी शरीर की बनावट और रूप-रंग ही ऐसे मिले हैं जिससे वे शत्रुओं की नजरों से बचे रह सकें। कितने ही प्रकार के कृमि-कीटकों और पक्षियों के रंग ठीक वैसे ही होते हैं, जिस वातावरण अथवा पेड़-पौधों, वृक्ष-वनस्पतियों में वे निवास करते हैं फूलों पर बैठी रहने वाली तितलियों को कभी-कभी उनसे पृथक् पहचानना कठिन हो जाता हैं। झाड़ियों में रहने वाले खरगोशों और तोतों का रंग अपने-अपने आवास के अनुरूप होता है। इसके अतिरिक्त वह अपनी स्वाभाविक अवस्था में दुर्घटनाओं के शिकार भी कम ही होते है। बंदर, चिंपेंजी व लंगूर के ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से नीचे कूद पड़ने पर भी चोट नहीं लगती। उनके वृक्षीय आवास के हिसाब से उनमें यह क्षमता होनी आवश्यक थी, जिसका समावेश किया गया। गिद्ध सदा ऊंचे आकाश में मंडराता रहता है। यदि उसे तीक्ष्ण दृष्टि न मिली होती, तो वह अपने भोजन की व्यवस्था न कर पाता और संभव अपना अस्तित्व ही गंवा बैठता, पर ऐसा नहीं देखा जाता है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि परमेश्वर ने बड़ी ही विवेक और न्यायशीलता का परिचय देते हुए प्रत्येक जीव में उसकी आवश्यकता के अनुरूप योग्यता, क्षमता और सामर्थ्य का समावेश किया जाता है। फिर ईश्वर कठोर और अन्यायी कैसे है?

यदि परमसत्ता सचमुच ही कठोर और अन्यायी होती, तो संकट की घड़ी में उसके प्रति श्रद्धा न उपजती। प्रायः देखा जाता है कि जब कोई भारी विपत्ति हमारे सामने प्रस्तुत होती है और उस से उबरने का कोई मार्ग सूझ नहीं पड़ता, हाथ-पैर फूलने लगते हैं, तो घोर निराशा की स्थिति में आशा की किरण एक ही ओर से आती दिखाई पड़ती है वह है ईश्वरीय सत्ता। मरीज की स्थिति जब गंभीर हो जाती है एवं उसके स्वस्थ होने के सभी उपाय-उपचार विफल होने लगते हैं, तो डाक्टर भी दवा के बदले दुआ की सलाह देता है और उस महान सत्ता के जिम्मे सब कुछ छोड़ देता है। इस प्रकार की आशा-अपेक्षा किसी नेक से ही की जा सकती है। और ऐसी ही सत्ता के प्रति प्रेम भी प्रदर्शित किया जाता है। चोर, डाकू, अपराधी के प्रति कोई प्रेम-श्रद्धा कहाँ दिखा पाता है? प्यार-प्रेम तो दूर, उनके नाम लेने में भी लोग भय का अनुभव करते हैं। यदि ईश्वर में ऐसी ही बदी होती तो उनके प्रति लोग ऐसे भाव प्रदर्शित नहीं करते।

संभव है अनीश्वरवादियों ने उस महत् सत्ता के प्रति ऐसे आरोप इसलिए लगाये हों, क्योंकि उनने मनुष्य और संसार के सिर्फ एक पक्ष को देखा हो। यदि कोई रात की कालिमा को देख कर दुनिया को अन्धकारमय बताये, तो उसे उसका अपूर्ण ज्ञान ही कहा जायेगा। वस्तुतः राज दिन की तरह दुःख-सुख मनुष्य की नियति हैं। कोई व्यक्ति न तो सदा-सर्वदा दुःखी ही बना रहता है, न सुख में ही डूबा रहता है। दोनों स्थितियाँ आती-जाती है। भगवान की ओर से यदि किसी को प्रताड़ना मिलती है, तो वह दंडस्वरूप होती है न तो वह इतनी अधिक होती है कि व्यक्ति उसके बोझ से ही दब जाये, न इतना कम कि उसका उस पर कोई प्रभाव ही न पड़ें। वास्तव में वह संतुलित होती हैं, जिसमें उसकी एक आँख प्यार की दूसरी सुधार की वाली नीति ही प्रमुख होती है। अतः संसार को दुःखमय बताना और ईश्वर को पक्षपाती कहना सर्वथा भूल है।


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