चिन्तन उभय पक्षीय हो

May 1988

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पक्षी दा पंखों के सहारे उड़ता है। गाड़ी का गतिचक्र तब बनता है जब दोनों पहिए समान रूप से काम करते हों विचारों के संबंध में भी यही बात है उन्हें व्यावहारिक एवं उपयोगी बनाने के लिए प्रतिपादन और संदेह के उभय-पक्षीय झूले पर झुलना पड़ता है। सोने को कसौटी पर कसना और आग में तपाना पड़ता है। इसके बिना हर पीली धातु को सोना बताने का दावा कर सकती है।

भावुकता विचारों का एक-पक्षीय उभार है। जिसमें अपनी इच्छा अथवा मान्यता ही प्रधान रहती है। एक दिशा में सभी उड़ाने उड़ते रहने से वही बात सत्य एवं लाभदायक प्रतीत भी होती है। साथ ही यदि का समर्थन प्रतिपादन भी उस निमित्त निकल जाये तब तो बात और भी सुदृढ़ बन जाती है। और उसे करने के लिए ऐसी आतुरता उभरती है कि फिर वह रोके नहीं रुकती। ऐसी मनोदशा में प्रायः आतुरता भरें कदम उठने लगते है। कठिनाई कोई दीखती नहीं अवरोध को हटाना भी उस माहौल में नहीं बन पड़ता। निर्धारण की व्यावहारिकता इसी हद तक है, इस पर सोचने का तो अवसर ही नहीं मिलता। पुनर्विचार का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

अपनी कल्पना के अनुरूप ही परिस्थितियाँ बनती चली जायें। सफलता मिलती रहे यह आवश्यक नहीं। साथी सहयोगियों का अपना-अपना स्वभाव एवं व्यक्तित्व है। वे हमारी इच्छानुरूप ही सिद्ध हो यह आवश्यक नहीं उनकी वफादारी-सदा यथावत् बनी रहेगी इसकी कोई गारन्टी नहीं। अत्युत्साह में उठे कदम तब प्रतिकूलताओं से टकराते है। सपने जब सपने सिद्ध होते हैं तब आँखें खुलती है। सरता से न निपटें पाने वाली कठिनाई जब सामने आती है तब पता चलता है कि इस संदर्भ में तो कुछ सोचा ही नहीं गया था। एकपक्षीय चिन्तन की अनुपयुक्तता तब समझ में आती है, जब समय निकल गया होता है।

बुद्धिमत्ता इसमें से कोई दिशा पकड़ने से पूर्व जहाँ उसके लाभदायक पक्ष पर विचार किया जाये वहाँ उसकी अड़चनों पर भी विचार कर लिया जाये। इसी को दूसरों के साथ विचारने पर विचार विनिमय कहते हैं और अपने आप ही तर्क वितर्क कर लेने का चिन्तन मनन। हथियारों को तेज करने के लिए उन्हें उल्टी और सीधी ओर से पत्थर पर घिसा जाता है अपने विचारों, योजनाओं और क्रियाकलापों को आरम्भ करने से पूर्व उसे दोनों पहलुओं पर विचार कर लेना चाहिए, तथा ऐसा मार्ग मिलता रहे जिसे व्यवहार एवं सफलता के निकट तक पहुँचा सकने वाला कहा जायें।

अतिवाद एक पक्षीय होता है। उसका आवेश चढ़ जाने पर मनुष्य की प्रथम कल्पना ही रंगीली पोशाक पहन कर सामने आती और मनमोहक लगती है। उसके दोष तो तब मालूम पड़ते हैं जब आवरण उघाड़ कर यथार्थता देखने, समझने का अवसर आता है।

अत्युत्साही जल्दी-जल्दी काम कर लेते हैं। जब तक एक पूरा नहीं हो पाता तब तक दूसरे की परिकल्पना आरम्भ कर देते हैं। किसी प्रयोजन को पूरा करने के लिए उसमें कितनी बुद्धिमत्ता, लगन मेहनत, धैर्य और साधनों की आवश्यकता पड़ती है इसे भुला दिया जाता है। फलतः वही दुर्गति होती है जो शेखचिल्ली की हुई थी। शेखचिल्ली की योजना गलत नहीं थी। मजूरी के पैसा से मुर्गी, मुर्गी से बकरी, बकरी से गाय, गाय से सम्पन्नता, सम्पन्नता से विवाह, विवाह होने पर बच्चे होना असम्भव नहीं है। पर योजना को कार्यान्वित करने में समय, श्रम साधन भी तो चाहिए। शेखचिल्ली से यही भूल हो गई। वह बीच के ताने-बाने को बुनने की तैयारी में जुटने की अपेक्षा एक ही छलाँग में बेड़ा पार करने के लिए आतुर हो उठा। फलतः मध्यवर्ती मंजिल को समझने और पार करने के लिए किस प्रकार क्या करना पड़ेगा, यह ध्यान नहीं न रहा। पैर में ठोकर लगने और सिर पर रखा घड़ा फूट जाने से वह रंगीली योजना भी चकनाचूर हो गई।एक बार असफलता मिलने पर दूसरी बार नये सिरे से काम करने का उत्साह ही समाप्त हो गया। दिवास्वप्न इस प्रकार टूटने और उसकी मरम्मत करने तक का साहस न बन पड़ा। उतावली सर्वत्र ऐसा ही उपहासास्पद परिणाम उत्पन्न करती है। प्रकृति के लोग एक काम और वे संकल्प शक्ति के अभाव में सभी अधूरे रहते और बीच में ही छूटते रहते है।

काम का आरम्भ योजना बनने के साथ शुरू होता है। क्रिया का जामा पहनना इसके बाद ही बनता है। विचार उठने के साथ ही उसे समग्र नहीं मान लेना चाहिए। उसकी विरोधी सम्भावनाओं पर भी विचार करना चाहिए। इसमें अति बरतने की आवश्यकता नहीं। अन्धा समर्थन बुरा है किन्तु किसी बात के नकारात्मक पहलू के साथ जकड़ कर भयभीत हो जाये और उसे असमर्थ मान बैठना और भी अधिक बुरा है। अत्युत्साही कल्पना के घोड़े पर कुछ दूर तक सवारी कर लेता है, पर जिनकी प्रवृत्ति नकारात्मक-कठिनाई वाले पख से होकर देखने की है उनसे सकारात्मक सम्भावनाओं की उपस्थिति को देख पाना भी नहीं बन पड़ता।

व्यक्तिगत मैत्री या शत्रुता के संबंध बनाने में भी प्रायः अतिवाद भी प्रधान पहलू देखा गया है। गुणवाला पक्ष देखने लगा जाये तो कोई व्यक्ति देवता जैसा सर्वगुण सम्पन्न मालूम पड़ता है और उसका चरम सीमा तक विश्वास करने लग जाता है। इस स्थिति का परिणाम यह होता है कि उस भावुकता को ताड़ने पर चतुर लोग उसका अनुचित लाभ उठाते है। मित्र बनकर ठगने वालों की संख्या ही प्रायः अधिक होती है। सहज विश्वास बरतने वाला प्रायः धूर्तों द्वारा पग-पग पर शोषित किया जाता रहता हैं उसकी शिकायत लोगों से तो होती है, पर यह भुला दिया जाता हे कि अति मात्रा में विश्वास कर बैठे और कहीं छिद्र भी होने की सम्भावना को भुला भी ऐसा ही है जिसके रहते भविष्य में भी ऐसी जोखिम उठाते रहने के अवसर आते रह सकते है।

न्यायाधीश, दोनों पक्षों के प्रतिपादनों को पूर्वक सुनता है। इसके बाद अपनी स्वतंत्र बुद्धि से यह निर्णय करता है कि किस पक्ष के कथन किस सीमा तक सच्चाई का अंश होना सम्भव हैं यदि इसके विपरीत कोई न्यायाधीश एक पक्षीय बात सुनकर उतने भर से अत्यधिक प्रभावित होता और समर्थन में फैसलाकर बैठे तो उसकी भाव से न्याय का आधार ही टूट जायेगा। यही बत उठने वाली कल्पनाओं, उमंगों, उत्साहों के संबंध में भी है। वे यदि एकाकी एकपक्षीय रही तो उनमें प्रतिफल उल्टा भी विनिर्मित होगा।

तर्कों का आधार इसीलिए लिया जाता है, उनके अनुसार अनुकूल और प्रतिकूल पक्षों स्वरूप, आधार, क्रियान्वयन आदि को विचारपूर्वक समझने का अवसर प्राप्त कर लिया जाये उससे जीवन की रणनीति बनाना, किसी योजना कार्यान्वित करना सरल पड़ता है।

अतिवाद सर्वत्र बुरा है। बहुत खाना बिल्कुल खाना दोनों ही स्थितियाँ बुरी है। भावुकता यदि उत्साह भरी हो, एकपक्षीय हो तो उससे वास्तविकता का समझना और तदनुरूप सम सम्भावना का अनुमान लगाना सरल पड़ता हैं तथ्य, प्रमाण, उदाहरण इस संदर्भ में बहुत काम जाते है। जो कुछ भी सोचना करना हो उसके दोनों पंखों पर समान रूप से समान गंभीरता से विचार करना चाहिए तभी उस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है जो सफलता और प्रसन्नता को उपलब्ध कराता है।


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