विवेक और समर्पण

May 1988

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बुद्धिमान वह है जिसे अपने दूरवर्ती स्वार्थ का ज्ञान है और बीज बोकर फसल उगाने जैसी नीति अपनाता है। अदूरदर्शी लाभ देखते हैं। उसी को प्रधानता देते हैं और अपनी गतिविधियों के लिए उत्साह प्रदर्शित करने एवं प्रयास करने में इसी आधार पर कदम बढ़ाते है। अन्यान्य जीव जन्तुओं में इतनी ही कमी होती है, क्योंकि प्रत्यक्ष की परिधि इतनी ही छोटी है। वे लोभ को ही प्रधानता देते हैं। कुछ छोड़ने पड़े तो उसका एक ही कारण होता है-भय। जिन्हें बलिष्ठता की दृष्टि में दुर्बल पाया जाये उसी पर आक्रमण कर दौड़ना ही उनका व्यवसाय होता है। बलिष्ठों से जूझने में पराक्रम तो है। अहंकार की पूर्ति भी होती है। पर इसे वे इसलिए छोड़ देते हैं कि जोखिम उठाना स्वीकार नहीं होता। युद्ध में परास्त होने वाला या अपनी हार भाँपने वाला पशु किसी प्रकार का जान बचाने के लिए भागने का प्रयत्न करता है।

किन्तु मानवी विशेषता इससे कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी होती है। उसे अपने गौरव का भान होता है। इसलिए सरलतापूर्वक उठाये जाने वाले लाभ की भी अनीति की आत्म-प्रताड़ना सहने के लिए तैयार नहीं होगा। अनेकों समर्थों ने हाथ आये लाभदायक अवसरों का इसलिए परित्याग कर दिया कि उनकी मौलिक विशेषता-न्यायशीलता ने ऐसा करने से रोका, फलतः हानि सहकर भी नीति की रक्षा की।

बुद्धि से एक सीढ़ी ऊंची मनः स्थिति को विवेक कहते है। बुद्धि की सीमा इतनी ही है कि लाभ भी कमालें और दुष्परिणाम भी न भुगतें। उसकी मर्यादा इतनी ही है कि निन्दा और प्रताड़ना सामने लाने वाले स्वयं की अतिशयता तक कदम न बढ़ाये। लाभ उठाता रहे और अनीति से बचता हें। ऐसे लोगों को क्रिया-कुशल या चतुर कहते है। ऐसे लोग सम्पन्नता और सफलता तो अर्जित करते हैं, पर उसकी कीमत इस सीमा तक नहीं चुकाते कि अप्रामाणिक ठहराये जावें अपयश के भागी बनें।

विवेक सबसे ऊंची स्थिति है। उसमें व्यक्तित्व को भौतिक वातावरण से, चिन्तन क्षेत्र की बुद्धिमत्ता से ऊंचा उठाकर वहाँ ले जाता है जहाँ समूह मन का आधिपत्य है। जिस प्रकार ब्रह्मांड के अनेक घटक होने पर भी एक ब्रह्माण्डीय व्यवस्था और चेतना काम करती है, उसी प्रकार प्राणि मन से ऊंचा उठकर उसका एक सामूहिक स्वरूप भी है, जिसे परब्रह्म या परमात्मा कहते है। जिस प्रकार पृथ्वी ब्रह्माण्ड का एक छोटा घटक है उसी प्रकार व्यक्ति का ब्रह्मचेतना का एक अंग या अंश है। शासन में जिस प्रकार समस्त प्रजा जनों के स्वार्थों का समावेश होता है, उसी प्रकार ब्रह्माण्डव्यापी मनस् का लघु अंश व्यक्ति का विवेकशीलता मन भी है, जो अपनी निज की सीमा में सीमित न रहकर इस समस्त विश्व के स्वार्थ और हित का समन्वय सोचता है। जिसकी दृष्टि इस केन्द्र पर केन्द्रीभूत होती है कि प्राणी छोटी परिधि से बाहर निकल कर विराट् की सुव्यवस्था में अपना योगदान दे।

इस स्तर की चेतना में पहुँचा हुआ ‘अहम्’ ‘मैं’ न रहकर ‘हम’ हो जाता है। यह ‘हम’ इतना बड़ा होता है जिसमें चेतन ही नहीं समग्र जड़ भी समा सके। तब स्वार्थ की परिभाषा परमार्थ हो जाती है। चिन्तन समष्टिगत हो जाता है और हित साधना की परिधि में सब कुछ समा जाता है।

सबके हित में अपना हित मानने वाला वहीं सोचता ओर करता है, जिसमें समग्र स्वार्थ साधन बन पड़ता हो ऐसी स्थिति विश्वहित या विश्व सेवा ही हो सकती है।

स्वार्थ साधन में किसी का अहित भी हो सकता है। पशु जब चरते हैं तो घास को कुतरते हैं और उसकी ऊंचाई घट जाती है। परमार्थ में विश्व हित की योजना बनाने वाला भी यह सोचता है कि जिस प्रकार खेत की सिंचाई में कुछ पानी भी खर्च होता है उस प्रकार विश्व को फला-फूला बनाने के लिए ‘स्व’ का स्थूल अंश शेष रह गया है से भी खपा दिया जाये।

ताओ धर्म में विकसित व्यक्ति की उपमा फूल से दी गई है। अन्य धर्मों में भी धर्म प्रतिष्ठा के लिए विभिन्न फूलों की चर्चा है। ईसाई धर्म में गुलाब और भारतीय धर्म में कमल को अर्चना का माध्यम बताया गया है। व्यवहार में प्रेम का प्रतीक भी वही है। प्रणय-सूत्र में बंधने की स्वीकृति फूलों के आदान-प्रदान से आरम्भ होती है। परब्रह्म की पूजा में मनुष्य को फूल अपनी पंखुड़ियों को बखेर देता है। विवेकवान व्यक्ति अपना अपनों का नहीं रहता वरन् पंखुड़ियों के रूप में एक से अनेक हो जाता है। सृष्टि के आरम्भ में भी मूल सत्ता ने अपने को एक से अनेक बनाया था। असंख्यों का-सभी का-स्वार्थ जिसमें सम्मिलित है वह परमार्थ ही परब्रह्म की सर्वतोमुखी उपासना है।

विवेक वह मनःस्थिति है जिसमें न्याय औचित्य युक्त उदारता ही शेष रह जाती है। यही वह कसौटी रहती है जिसके ऊपर कसकर जीवन को खरा-खोटा उत्कृष्ट-निकृष्ट ठहराया जाता है।

श्रेष्ठता के समुच्चय का नाम है-परमात्मा। आत्मा को परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए उसकी मनुहार नहीं करनी पड़ती वरन् अपने को तद्रूप बनाना पड़ता है। द्वैत को अद्वैत में विकसित करना पड़ता है। यह समर्पण है। इसी को तंत्र में आत्म बलि कहा गया है। ‘स्व’ मनुष्य को सबसे अधिक प्रिय होता है जब स्व और पर मिलकर एक हो जाते हैं तो आग और ईंधन जैसी स्थिति बन जाती है। पत्नी पति के लिए समर्पित होती है और पति को प्रियतमा, प्राण बल्लभ कहता है। प्राणों से भी अधिक प्रिय बनने की स्थिति पत्नी की उसी दशा में आती है जब वह द्विधा को मिटाकर एकाकार हो जाती है। भगवान के साथ भी भक्त को अपना परिवर्तन इसी रूप में करना पड़ता है। वह माँगता नहीं सिर्फ देता है।

परमात्मा के प्रति अपने को समर्पित करना किसी व्यक्ति विशेष के साथ मैत्री या घनिष्टता उत्पन्न करना नहीं वरन् यह है कि संसार में जो कुछ श्रेष्ठतम है उसके प्रति अपने को सौंप देना या उसे आत्मभूत बना लेना। जब हम विश्व व्यवस्था, विश्व चेतना की बता सोचते हैं तो सज्जनता के अतिरिक्त और कुछ रहता नहीं, प्रकाश तो शाश्वत है। उसका जहाँ जितना अभाव है वहाँ उतना ही अंधकार है।

परमात्मा सत्ता की अस्वीकृति ही पाप है। अधर्म का स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं वह अनास्था का ही दूसरा नाम है। जब हम प्रकाश का वरण करते हैं, तो श्रेष्ठता के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। समर्पण के उपरान्त न स्व रहता न स्वार्थ। परब्रह्म परमार्थ के रूप में ही हमारे कण कण में समा जाता है और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हमारा आराध्य है।


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