चित्तशुद्धि योगाभ्यास का प्रथम आधार

May 1988

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चित्त में अनेकानेक प्रकार की वृत्तियों - संस्कारों की तरंगें समुद्री लहरों की तरह हिलोरें मारती और उसे चंचल बनाये रखती है। योग का प्रमुख कार्य चित्त की उन तमाम वृत्तियों को रोकना और उसे उसके वास्तविक स्वरूप में लाना है। चित्त का वास्तविक स्वरूप सर्वव्यापक, असीमित एवं विभु है। कार्य चित्त भिन्न-भिन्न जीवों में भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है। यही जीवों के दुख-सुख का मूल कारण है।मनुष्य शरीर का चित्त मृत्योपरान्त यदि निम्न योनी वाले पशु शरीर में प्रवेश करता है, तब शास्त्रों के अनुसार वह सिमट कर अपेक्षाकृत छोटे रूप में हो जाता है। सिकुड़ने-फैलने वाला चित्त ही कार्य चित्त कहलाता है। कारण चित्त पुरुष जीव से संबंधित होता है तथा भले-बुरे कर्मों के अनुसार अभिव्यक्त होता है।

प्रार्थना, दान, सेवा, त्याग, बलिदान से चित्त की सीमा बढ़ती है और पाप, अनुदारता से सीमा बढ़ती है। मन की एकाग्रता, आस्था-विश्वास से भी चित्त चेतना का विस्तार होता है। योगाभ्यास से सीमा विस्तरण के साथ ही शक्तियों, दिव्य क्षमताओं का जागरण एवं अभिवर्धन होता है।

चित्त की प्रमुखता को अध्यात्मवादी और भौतिक मनोविज्ञानी समान रूप से स्वीकार करते है। अध्यात्मवादी चित्त को आदतों का-संस्कार का भांडागार मानते है। उसी में वैसा कर गुजरने की प्रेरणाएं उठती रहती है जैसी की चित्त की लालसाएं उभरती है। आदतें इतनी प्रबल होती है कि वे समूचे व्यक्तित्व पर छाई रहती है। और नशेबाजी की तरह छुड़ाये नहीं छूटती। इसीलिए साधना विज्ञान ने हट पूर्वक चित्त का परिशोधन करने के लिए कहा गया है। अनेक प्रकार के साधनात्मक प्रयोग इसी निमित्त किये जाते हैं। तपश्चर्या की आग चित्त परिमार्जित करने के लिए ही प्रज्वलित करनी पड़ती है।

मनोविज्ञानियों की मान्यताएं भी प्रत्यक्षतया भिन्न होते हुए भी वस्तुतः कुछ मिलती जुलती है। उनके अनुसार शरीर की स्वचालित क्रियाएं अचेतन चित्त के आधार पर ही चलती है। चित्त का चेतन भाग कल्पना और बुद्धि, अचेतन भाग्य-आदतें और शरीर की स्वसंचालित क्रियाएं तथा सुपर चेतन-भावनाएं एवं सूझबूझ का केंद्र-अपने-अपने काम करते रहते हे। इन्हें ही संभालने, सुधारने और प्रशिक्षित करने की आवश्यकता पड़ती है, तब ही मनुष्य की समग्र प्रगति सम्भव हो पाती है।

अचेतन चित्त की पूर्ण जानकारी भारतीय योग दार्शनिकों को आरम्भ से ही थी। फ्रायड, जुँग प्रभृति मनोवैज्ञानिकों ने बाद में उसके आधे अधूरे भाग का ही पता लगाया है। तत्ववेत्ताओं के अनुसार अचेतन मन में पूर्व जन्म के ज्ञान, भावनाएं, वासनाएं, क्रियाएं तथा उनके अंतर्गत संवेदना, प्रत्यक्षीकरण, अनुमान, शब्द, स्मृति, भ्रम, अनुभूति, विकल्प, तर्क, उद्वेग और संकल्प आदि आते है। दोषों से मुक्त चित्त में ये समस्त क्रियाएं समाप्त हो जाती है।

कठोपनिषद् अ॰ 2/3/15) के अनुसार चित्त में अनेकानेक भाव ग्रन्थियाँ अज्ञानवश उत्पन्न होती हैं, और स्थायित्व प्राप्त कर लेती है जिससे साँसारिक सुख-दुःख के चक्र का अनुभव होता रहता है। किन्तु ज्ञान से यह चक्र समाप्त हो जाता है। तब जीव को भवबन्धनों से छुटकारा मिलता है। चित्त में अनेकों जन्मों के अनुभव और संस्कार विद्यमान रहते है। मृत्योपरान्त चित्त इन्हें लेकर नवीन शरीर में चला जाता है। जिस योनि में जीव उत्पन्न होता है उसी में उपयुक्त पूर्व जन्मों के संस्कार तथा प्रवृत्तियाँ इस योनि में भी उदय हो जाती है। यदि मनुष्य अवांछनीय प्रवृत्तियों को उदय न होने देना चाहे तो उसके लिए उसकी संस्कार रूपी जड़ पर प्रहार कर उसे नष्ट करना होगा।

इस दिशा में सफलता प्राप्त करने का एक ही उपाय है-योगाभ्यास। शास्त्रों में इसका बहुत बड़ा महत्व बताया गया है। इसका कारण उसे प्रक्रिया के साथ जुड़ी हुई चित्त शुद्धि की अनिवार्य प्रक्रिया ही है।

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