नजरें जो बदली, तो नजारे बदल गये

May 1988

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कौन व्यक्ति सुखी है? कौन दुःखी? इसका अनुमान उसकी परिस्थितियों को देखकर लगाना गलत है। आमतौर से हमारे पास जिन वस्तुओं का अभाव है, उन्हें दूसरों के पास देख कर हम यह मान बैठते हैं कि यह सुखी है। इसी प्रकार अपने जैसे अभावग्रस्तों को देख कर यह सोचा जाता है कि यह दुःखी होगा। किन्तु यह मापदण्ड सही नहीं है। हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से सोचता है। किस वस्तु का अभाव कितना खलता है और किस वस्तु के होने से कौन व्यक्ति कितना सुखी है, इसका अनुमान लगाना एक जैसा नहीं हो सकता। परिस्थितियों के संबंध में भी यही बात है। किन परिस्थितियों में कौन कितना सुखी या कितना दुःखी होगा, इसका मापदण्ड भी एक जैसा नहीं हो सकता।

हम अपने विचारों से यह सोचते हैं कि जिनके पास पैसा हैं, रूप हैं, उच्च पद हैं, संतान हैं, वह सुखी होना चाहिए। किन्तु जिनके पास वे वस्तुएं हैं, उनकी मनःस्थिति देखकर कई बार अपनी कल्पना से विपरीत निष्कर्ष भी निकलते देख गया है। जिन वस्तुओं का हमें अभाव है, उनकी बहुलता जिनके पास दीखती है, उन्हें सुखी मानते है। यह हमारी अपनी मान्यता है। कई बार इससे ठीक विपरीत भी होता हैं। जिनके पास पैसा है, वे संतान के अभाव में अपने को दुःख मानते हैं और धन का होना उनकी दृष्टि में कुछ नहीं मान्य रखता। जो वस्तु जिसके पास है, उसे वह सामान्य मानता हैं उसका होना कुछ मानी नहीं रखता। बात अभाव की सदा सामने रहती है।

जिनकी अनेक संतानें हैं, उन्हें धन की अपेक्षा है। भले ही बच्चे कम होते, पर धन तो होता, जिनसे उनका भली प्रकार लालन-पालन हो पाता। तीसरा व्यक्ति वह है, जिनके पास धन-संतान दोनों हैं, किन्तु पद में आगे बढ़ गया। इसलिए वह शत्रुवत् प्रतीत होता हैं। ईर्ष्या रहती है कि मेरा अधिकार छीनकर वह आगे बढ़ गया। इसने अनीति का आश्रय लिया है। यदि वह आड ने आता, तो आज अपना दर्जा ऊंचा होता। जिसे स्वयं रूप प्राप्त है, उसकी पत्नी कुरूप है। हर किसी को कोई-न-कोई कुरूपता हैं, कुछ-न-कुछ प्रतिकूलता है। सदा वह अभाव ही ध्यान में रहता है। भाग्य को दोष देने के लिए कुछ-न-कुछ प्रतिकूलता सामने रहती है। थोड़े से नम्बर कम आने के कारण फेल हो जाने के कारण कई विद्यार्थी इतने दुःखी होते हैं कि रेल की पटरी के आगे बैठ कर प्राण खो बैठते हैं। सास-बहु में कहना-सुनना हो जाने पर कई बहुएं आत्मघात कर लेती हैं। दहेज कम आने का प्रसंग बन जाता है, पकड़–धकड़ होती है, मुकदमा चलता है, जेल होती है और अच्छा खासा घर बरबाद हो जाता है। वस्तुतः प्रसंग वैसा था नहीं। काम-काज इस या उस तरह करने की बात पर मात्र कड़वे वचन मुँह से निकल गये थे। यदि थोड़ी-सी सहनशीलता होती तो इतनी बड़ी दुर्घटना सहज ही टल सकती थी। किन्तु दूसरी ओर यह भी सच हो सकता है कि सास अपने कड़वे वचन व व्यवहार में बर्बरता को सामान्य क्रम मानकर चलती है, जिससे भावनात्मक दबाव बहू पर अत्यधिक हो जाये।

प्रसन्नता कितनी, किसमें है, यह कल्पना भर का विषय है। जिसके पास लाख रुपये की पूँजी है, उसे उतने से संतोष नहीं, पड़ोसी की तरह अपने पास भी दस लाख की पूँजी होती। तब काम चलता। जबकि दूसरे पड़ोसी को दस हजार से ही संतोष है और भगवान को धन्यवाद देता है कि चैन की रोटी मिल जाती है, किसी से उधार नहीं लेना पड़ता, किसी का कर्जा देना नहीं है। एक को खुशियाँ मनाते इसलिए देखा जाता है कि उससे उस विरोध की भैंस मर गई, जिसने उस पर मुकदमा चलाया था। ईर्ष्यालु व्यक्ति के लिए खुशी मनाने के लिए इतना ही बहुत है कि उसके प्रतिद्वन्द्वी को कोई हानि पहुँच गई। एक की खुशी के लिए पोता जन्मे का समाचार ही बहुत बड़ी बात है। भले ही बड़ा होने पर वह कुपात्र निकले और दुर्व्यसनों से संचित सम्पदा बरबाद कर दे।

जो वस्तु जिसे प्राप्त है उसकी दृष्टि में उसका महत्व चला जाता है। सोचता है इससे अधिक मूल्य की संपदा उसे प्राप्त हुई होती, तो अच्छा होता। जो उपलब्ध है वह कम मालूम पड़ता है। जबकि अनेकों व्यक्ति उसकी स्थिति के लिए भी तरसते है। अभाव की पूर्ति के लिए जो ललक उठती है, उसकी बेचैनी ही एक प्रकार से सुख की परिभाषा हैं जैसे ही उसकी पूर्ति हुई कि उससे बड़ी वस्तु पाने की बेचैनी उत्पन्न हो जाती है। जो हस्तगत हुआ था, वह स्वल्प प्रतीत होने लगता है। यह मनोवैज्ञानिक गोरखधंधा ऐसा है जो हर व्यक्ति को अभावग्रस्त बनाये रखता है। यदि इस मानसिक कुचक्र से छूटा जा सके और इस प्रकार सोचा जा सके कि हमें जो प्राप्त है, उसके लिए भी हजारों-लाखों तरसते हैं, तो स्वल्प साधन वाले को भी संतोष की साँस लेने का अवसर मिल सकता है। संतोष ही सुख है। अपनी अपेक्षा गई-गुजरी स्थिति वालों पर दृष्टि डाल कर यह सोचा जा सके की भगवान ने हमें हजारों-लाखों से अच्छा बनाया हैं, तो फिर कोई भी अपने को दरिद्र अनुभव न करेगा।

गीता ने कर्मयोग की शिक्षा दी है और दुःख का केन्द्र वस्तुओं से हटा कर अपने पुरुषार्थ पर केन्द्रित किया है। किस निमित्त हमने कितना पुरुषार्थ किया? वह सामर्थ्य भर था कि नहीं- इस पर अपनी प्रसन्नता केन्द्रित करने पर हर व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव कर सकता है। कर्म अपने हाथ में है। कितनी कुशलता-कितनी तत्परता प्रसन्नतापूर्वक काम किया गया। इस बात पर अपनी खुशी को केन्द्रित किया गया, इस प्रश्न को अपने से पूछते रहने पर काम अधिक होता है, अच्छा होता है और उसका स्तर भी ऊंचा रहता है। यह कर्म-कौशल ही प्रधानता का केन्द्र होना चाहिए।

वस्तुओं की मात्रा बढ़ाना अपने हाथ में नहीं। अनेक परिस्थितियाँ ऐसी है जो सफलता की मात्रा में सहायक और बाधक होती है। जो हमने चाहा है, वह उतना ही, या वैसा ही मिल जाय, यह आवश्यक नहीं। हाँ, इतना संभव है कि जो उपलब्ध हुआ है, उसका स्तर ऊंचा बनावे। कुरूप धर्मपत्नी को सुन्दर नहीं बनाया जा सकता किन्तु प्रयत्न करके उसे सुयोग्य, सुशिक्षित एवं सुलक्षणी बनाया जा सकता है यह अपने कर्म कौशल पर निर्भर है। यदि वह किया गया हो, तो सुन्दर पत्नी प्राप्त करने की अपेक्षा वह अधिक आनन्ददायक हो सकती है।

अपने से अधिक सुविधा सम्पन्नों के साथ अपने तुलना करने पर सदा अभाव ही अनुभव होगा, पर यदि कम सुविधा वालों के साथ अपनी स्थिति की तुलना की जाय तो प्रतीत होगा कि भगवान ने बड़ी कृपा की है और सम्पन्नता का एक बड़ा भाग प्रदान किया है। सुखी और दुःखी होना एक मानसिक जाल-जंजाल है, जिसे हम स्वयं बुनते है। सोचने का तरीका सही करने भर की देर है किस हर व्यक्ति कम वस्तुएं रहते हुए भी अपने आप को प्रसन्नता भरी परिस्थितियों में अनुभव कर सकता है।


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