जो हम जानते, मानते हैं वह सत्य नहीं है।

August 1981

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भारतीय दर्शन के अनुसार यह संसार घटनाओं की एक अंतहीन न श्रृंखला है, एक अनवरत प्रवाह है। हर क्षण परिवर्तनशील है। जिसे हर स्थिर देखते हैं वस्तुतः उसके भीतर भी प्रचण्ड हलचल हो रही है। निरन्तर परिवर्तन हो रहा है। संसार में दृश्यमान प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है। संसार एवं जगत शब्दों का प्रयोग दुनिया की असारता एवं अस्थिरता को प्रकट करने के लिए किया जाता है। इनके शब्दार्थ ये सही ध्वनि निकलती है।

संसार एक स्वप्न है। स्वप्न की अवधारणा संसार में प्रवाहित चेतना की गति से नहीं है बल्कि उस स्वरूप से है जो सतत् परिवर्तनशील है। जगत के सम्बन्ध में हमारा ज्ञान पूर्व में बनाई गई मान्यताओं पर आधारित है, जो सापेक्ष सिद्धान्तों पर अवलम्बित है। मान्यताओं की प्रतिक्रिया स्वरूप ही वस्तुओं का विविध रूप एवं गुण प्रतीत होता है। मान्यताओं का आधार बदल दिया जाय तो वस्तुओं के स्वरूप एवं गुणों में भारी अन्तर दिखाई पड़ने लगता है।

नये तथ्यों के रहस्योद्घाटन से मान्यताओं में सतत् परिवर्तन होता रहता है। पदार्थ सत्ता को ही लें तो मालूम होगा कि उसके स्वरूप के विषय में समय-समय पर कितनी तरह की व्याख्याएँ हुई हैं। पदार्थ सत्ता की व्याख्या करते हुए विज्ञान ने परमाणुओं की कल्पना की। परमाणु का विश्लेषण करने पर प्रोटान, न्यूट्रान, इलेक्ट्रान, पॉजीट्रान जैसे कणों का अस्तित्व उभर कर सामने आया। कणों की यह मान्यता भी नवीन अनुसंधानों द्वारा ध्वस्त हुई। यह कहा गया है कि सृष्टि में मात्र ऊर्जा संव्याप्त है। ऊर्जा तरंगों के उतार-चढ़ाव से ही जगत का स्थूल स्वरूप भासित होता है। आइन्स्टीन जैसे विश्व विख्यात वैज्ञानिक ने कहा कि शक्ति की यह अवधारणा भी अन्तिम नहीं है। वस्तुतः शक्ति के मूल में चेतना का प्रवाह प्रवाहित हो रहा है। यह चेतना ही ऊर्जा कणों में परिवर्तित होती है। ऊर्जा कण इलेक्ट्रान, प्रोटोन, न्यूट्रान जैसे कणों में बदल जाते हैं। इन कणों का समूह परमाणुओं का समुच्चय पदार्थ सत्ता के रूप में परिलक्षित होता है। स्पष्ट है कि स्थूल जगत के स्वरूप के विषय में बनाई गई मान्यताएँ अथवा प्राप्त जानकारियाँ पूर्ण हैं। पदार्थों के मूल में कार्य करने वाली चेतना ही मात्र सत्य है।

पदार्थ ही नहीं संसार के प्रति हमारी मान्यताएँ सापेक्षता सिद्धान्त पर अवलम्बित हैं। दिशा का नाम लेते ही उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम दिशा का बोध होता है। धरातल को आधार मानकर ही दिशा की कल्पना की जाती है। धरातल की कल्पना भी अनेकों बिन्दुओं की आपेक्षिक स्थिति पर निर्भर करती है। अनन्त अन्तरिक्ष में अपने को एक बिन्दु माना जाय तथा धरातल नाम की किसी वस्तु की पूर्व मान्यता न बनायी जाय तो उत्तर, दक्षिण, पूरब, पश्चिम किसी भी दिशा का निर्धारण कर सकना असम्भव होगा। एक रोचक कल्पना की जाय कि पृथ्वी का गोला स्वयं आकाश मंडल में घूमता हुआ दिशाओं की खोज करना चाहे तो उसके लिए दिशाओं का पता लगा सकना कैसे सम्भव होगा? अभिप्राय यह है कि दिशाओं का पता लगाना तभी सम्भव है जब अनन्त बिन्दुओं से बने धरातल को आधार माना जाय।

काल द्वारा एक निश्चित समय का बोध होता है। किन्तु ‘समय’ की सीमा में काल को नहीं बाँधा जा सकता है। ‘काल’ अनन्त है। अपनी मान्यता के अनुरूप उसे हम ‘समय’ की एक निश्चित सीमा में बाँधने का प्रयत्न करते हैं। सृष्टि अनेकों बार रची गई, नष्ट हुई। किन्तु काल का कभी अन्त नहीं हुआ। पृथ्वी पर चौबीस घण्टों का एक दिन-रात होता है। किन्तु आदि काल में स्थिति कुछ और ही थी। भू-गर्भ शास्त्रियों का मत है कि जब तक धरती ठण्डी नहीं हुई थी, आग्नेय दशा में थी तब तक पृथ्वी के विभिन्न भागों में दो घण्टे का ही दिन-रात होता था।

सूर्य के उदय अस्त होने से रात-दिन का ज्ञान होता है उसकी गति को आधार मानकर समय-काल की गणना करते हैं। किन्तु यदि आधार सूर्य को न मानकर अन्य ग्रहों को माना जाय तो काल की बनाई गई हमारी मान्यताओं में भारी अन्तर आयेगा। ‘शनि’ को आधार मानने पर हमारा एक वर्ष होगा तीस वर्ष के। इसी प्रकार बृहस्पति को प्रमाण मानें तो पृथ्वी का एक वर्ष बारह सौर वर्षों के बराबर होगा। काल की गणना सूर्य की गति सापेक्ष की जाती है। सापेक्षता का आधार बदल देने पर काल की अवधारण भी बदल जाती है।

वरुण ग्रह अपने सूर्य मण्डल के अंतर्गत ही आता है। ज्योतिर्विदों का कहना है कि वरुण ग्रह का एक वर्ष हमारे 180 वर्ष के बराबर है। यदि वहाँ जीवन की कल्पना की जाय तो वहाँ कर छः माह का बच्चा पृथ्वी लोक के नब्बे वर्ष के वृद्ध के बराबर होगा। वरुण लोक के सौ वर्ष के वृद्ध की आयु पृथ्वी लोक की गणना के अनुसार 18 हजार वर्ष होगी। वाल्मीकिय रामायण में प्रसंग आता है कि यज्ञ की रक्षा के लिए विश्वामित्र राजा दशरथ के पास राम लक्ष्मण को लेने पहुँचे। पुत्रों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए राजा दशरथ ने कहा- ‘‘हे कौशिक! साठ हजार वर्ष का मैं जब हो गया तब ये पुत्र उत्पन्न हुए (षष्ठि वर्ष सहस्त्राणि जातस्य मम कौशिक)। पृथ्वी लोक के काल में मान से साठ हजार वर्ष बहुत होते हैं। वरुण के मान से सवा तीन सौ वर्ष से कुछ अधिक होंगे। यदि किसी अन्य तारे को आधार माना जाये तो साठ हजार वर्ष वहाँ के तीस या चालीस वर्ष के बराबर हो सकते हैं। सम्भव है काल की गणना रामायण काल में किसी अन्य ग्रह के सापेक्ष हो।

यह विश्व अनन्त है। ऐसे पिण्ड भी सृष्टि में हो सकते हैं जिनके वर्ष का मान हमारी अपेक्षा इतना बड़ा हो कि हमारा एक कल्प उस पिण्ड के एक दिन सामान हो। ऐसी स्थिति में वह पिण्ड हमारे सत्यलोक या ब्रह्म लोक के तुल्य होगा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्री रामचरित मानस में सृष्टि की विविधता की ओर देखकर ही कहा था, ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’। इस कथन में सृष्टि की विचित्रता एवं अनन्तता का ही रहस्योद्घाटन किया गया है।

भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल की मान्यताएं भी सापेक्ष हैं। घटना जो आज हमें घटित होती दिखाई पड़ रही हैं, सम्भव है किसी अन्य स्थान पर भूतकाल में घटित हो चुकी हो अथवा किसी को भविष्य में दिखाई पड़े।

आकाश मण्डल में एक नया पिण्ड दिखायी पड़ता है। जिसे आश्चर्यचकित होकर देखा जाता है। गणना द्वारा जब पता लगाते हैं तो मालूम पड़ता है कि तारे का अस्तित्व जो हमें दिखाई पड़ता है उसका उद्भव बहुत पहले हो चुका था। वर्तमान में तो उसका अस्तित्व भी नहीं है। इसको एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। एक तारे की परिकल्पना की जाय, जो दस प्रकाश वर्ष दूरी पर है। प्रकाश की गति एक लाख छियासी हजार मील प्रति सेकेंड है। अर्थात् तारे की पृथ्वी से दूरी होगी- एक लाख छियासी हजार×साठ×साठ×चौबीस×तीन सौ पैंसठ = पाँच खरब पैंसठ अरब उनहत्तर करोड़ मील। इस प्रकार उक्त तारे से चलने वाला प्रकाश निरन्तर चलता रहे तो इतने वर्ष बाद पृथ्वी पर पहुँचता है और तब कहीं हमें दिखायी देता है। तथ्यों द्वारा पता चलता है कि प्रकाश हमें दिखायी देने के बहुत समय पूर्व ही तारे का अस्तित्व का परिचय पृथ्वी लोक पर देता रहा। यह कैसी भ्रमपूर्ण स्थिति है कि जब तारे का अस्तित्व था तब दिखायी नहीं पड़ा और जब वह अस्तित्व में नहीं है तब दृष्टिगोचर होता है।

जिस प्रकार तारे में उद्भव की जानकारी हमको सैकड़ों, हजारों वर्ष बाद मिलती है उसी प्रकार सम्भव है कि पृथ्वी पर घटित हो रही घटनाओं की जानकारी अन्य ग्रहों पर रहने वाले जीवों को हजारों वर्ष बाद मिले। भूतकाल में पृथ्वी पर हुए महाभारत के दृश्य वर्तमान में वहाँ पर उसी प्रकाश दिखायी पड़ रहे हों। जैसे युद्ध अभी हो रहा हो। युद्ध में कुहराम मचाती पाण्डव, कौरवों की सेना को देख सकना उस ग्रह पर असम्भव नहीं। यदि उन ग्रहों पर किसी ऐसे यान द्वारा जाया जाय तो कुछ क्षणों में पहुँचा दे तो गीता का तत्वज्ञान भगवान कृष्ण के मुख से उसी प्रकार सुना जा सकता है जैसे वे सामने ही खड़े हों। प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेम्स हाइजेन वर्ग का कहना है कि काल भूत से भविष्य की ओर ही नहीं भविष्य से वर्तमान और भूत की ओर भी प्रवाहित है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भूत, वर्तमान और भविष्य की अवधारणा हमारी चेतना के आन्तरिक भाव हैं। उसकी बाह्य सत्ता कुछ भी नहीं है।

हमारी पूर्व की बनायी गई मान्यताएं ही विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती हैं। सापेक्ष की मान्यताएँ वास्तविक नहीं है। अन्धेरे में झाड़ी भूत बनकर दिखायी पड़ती है। आदमी विक्षिप्त बन जाता तथा उसे बुखार चढ़ आता है, मन की कल्पना भूत के रूप में दिखायी पड़ती तथा विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती हैं।

एक ही वस्तु अपनी मान्यता के अनुसार विविध रूपों में दिखायी पड़ती है। पत्थर की मूर्ति एक उपासक की साधना का आधार बनती है। अपनी श्रद्धा को आरोपित करते हुए उस मूर्ति में ही भगवान का दर्शन कर लेता है। दूसरा व्यक्ति उसे तराशने वाले कलाकार की कला के रूप में देखता है। दार्शनिक उसे भावों की अभिव्यक्ति के एक साधन के रूप में देखता है। मनोवैज्ञानिक उसे एकाग्रता का साधन मानता है। एक ही मूर्ति आन्तरिक मान्यताओं के कारण भिन्न-भिन्न रूपों में दिखायी पड़ती है।

एक समय में ही एक व्यक्ति स्त्री का पति, एक बहन का भाई, लड़के का पिता, अन्य व्यक्ति का मित्र तथा दूसरे का शत्रु के रूप में देखा जाता है। एक खूँखार जीव के समक्ष यह सारे रिश्ते समाप्त हो जाते हैं। शेर उसे मात्र अपना प्रिय शिकार समझता है। वास्तविकता यह है कि वह मात्र एक मनुष्य है। अपनी मान्यता के अनुरूप ही लोग उसे विभिन्न रूपों में देखते तथा मानते हैं। थोड़ी और गहराई में जाने का प्रयत्न करें तो स्पष्ट होता है कि स्थूल मानव शरीर भी कितना अवास्तविक है। शरीर के भीतर प्रवाहित चेतना ही सत्य है, स्थूल कलेवर तो चेतना की प्रेरणा एवं शक्ति से गतिशील है।

भौतिक संसार बनता-बिगड़ता रहता है। अपनी बनायी गई मान्यता के अनुरूप ही संसार का विविध स्वरूप लोग मानते एवं देखते हैं। जबकि वास्तविक स्वरूप कुछ और ही है। पदार्थों के स्वरूप से सामान्यतया लोग प्रभावित होते देखे जाते हैं। पदार्थों को सुख-दुख का हेतु मानना अविवेक पूर्ण है। सतत् परिवर्तनशील पदार्थों का स्वरूप अवास्तविक है। वास्तविकता का पता लगाने के लिए चेतना के उस सागर में ही डुबकी लगाना होगा, जिसकी तरंगें स्थूल जगत् का निर्माण करती तथा विविध रूपों में दिखायी पड़ती हैं।


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