मनुष्य के अतिरिक्त संसार में कोई भी प्राणी ऐसा नहीं है जिसे कल की दुःखद अनुभूतियाँ स्मृति में उभर कर पीड़ित करती हों और वह आने वाले कल की चिन्ता में घुलता हो। अतीत की स्मृतियाँ और अनागत की कल्पना केवल मनुष्य के मस्तिष्क में ही उपजती है। अन्य किसी प्राणी के मन में न बीते का स्मरण होता है और न आने वालों का अनुमान। इसका कारण मनुष्य की विचारशीलता की कही जा सकती है। विचारशीलता से उद्भूत दूरदर्शिता ही भविष्य की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में उत्सुक बनाती है।
इस उत्सुकता का समाधान करने के लिए मनुष्य ने अनेक तरह के चिन्तन किया और यह जानने की जीतोड़ कोशिश की कि कल क्या होगा? इस तरह के प्रयत्नों के परिणाम स्वरूप ही फलित ज्योतिष का जन्म हुआ। ज्योतिष यों एक विज्ञान है, जिसमें ग्रह-नक्षत्रों और अन्तरिक्ष की गतिविधियों का अध्ययन किया जाता है। इसे विज्ञान भी कहा जाता है क्योंकि इसके अपने सुनिश्चित सिद्धान्त हैं जो लम्बे समय तक किये गये पर्यवेक्षण, निरीक्षण और प्रयोगों के आधार पर स्थिर किये गए हैं। फलित ज्योतिष में भी ग्रह-नक्षत्रों की गतियों को आधार मानकर भविष्य की सम्भावनाओं का अध्ययन किया जाता है।
फलित ज्योतिष के विवेचन में ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धान्तों को आधार मान कर यह विश्लेषण किया जाता है कि किस ग्रह का किस पर कब, क्या प्रभाव पड़ेगा? ज्योतिष को वेदान्त दर्शन से जोड़ने वाले विज्ञजनों का कथन है कि सारा ब्रह्मांड एक व्यापक विराट् शरीर है और इसके प्रत्येक घटक एक-दूसरे से प्रभावित हैं। प्रत्येक घटक एक-दूसरे से घनिष्ठ संपर्क सूत्रों से सम्बन्धित हैं तथा उनमें एक विशिष्ट अंतर्संबंध है। इसलिए एक स्थान पर होने वाली घटनाएं दूसरे स्थान को प्रभावित करती हैं।
स्थूल दृष्टि से ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी से लाखों करोड़ों मील दूर हैं, पर तात्विक दृष्टि से उसके एक प्राण होने में कोई मतभेद नहीं किया जाता। जैसे आँख और पैर की अंगुलियों में पाँच साड़े पांच फीट का अन्तर है। इतनी दूरी है- पर रक्त प्रवाह, चेतना, परस्पर सम्बन्ध और एक शरीर से जुड़े होने के कारण उनकी एक रूपता में कोई अन्तर नहीं आता है। अनन्तः वे एक हैं। तथा यह भी कि पैर की अंगुली में चोट लगे तो आँख से आँसू आ जाते हैं, पीड़ा को सहने की सामर्थ्य जुटाने के लिए दांत अपने आप भिंच जाते हैं और हाथ वहाँ सहलाने लगते हैं। आशय यह है कि शरीर के एक प्रदेश पैर के साथ बीती घटना की प्रतिक्रिया आँख पर भी होती है। हालाँकि दोनों दूर-दूर हैं। फलित ज्योतिष के आधार पर ग्रह-नक्षत्रों की स्थिति देखकर व्यक्ति विशेष के भविष्य की घोषणा करने का यही एक मोटा आधार है।
इसके और भी सूक्ष्म सिद्धान्त हैं। लेकिन फलित ज्योतिष का अनुसंधान इसलिए नहीं किया गया कि मनुष्य उसके द्वारा अपनी भविष्य की स्थिति को जानकर चिन्तित होता रहे। जिस होनहार को पुरुषार्थ और संघर्षों द्वारा टाला जा सकता है- उसकी भीषणता वाला पक्ष सोच-सोच कर वह स्थिति पहले ही पैदा करली जाय। इस सम्बन्ध में प्रसिद्ध पाश्चात्य ज्योतिषी नोएल जेक्विन का मत उल्लेखनीय है। उनसे किसी ने एक बार पूछा- “यूरोपीय देशों का कभी विश्व भर पर अधिकार रहा है और अपने शौर्य, साहस, बल और बुद्धिमत्ता के कारण उन्होंने विश्व के लगभग सभी स्थानों से सम्पदा का दोहन किया है। क्या आप ज्योतिष का प्रचार कर अब यूरोपीय जनता के पौरुष को मार्फिया देकर सुला देना चाहते हैं।’’
नोएल जेक्विन ने उत्तर दिया था कि- “ज्योतिष की गवेषणा का अर्थ- पुरुषार्थ छोड़कर अपनी प्रगति को अवरुद्ध कर लेना नहीं है। बल्कि मैं तो यह मानता हूँ कि यदि भविष्य में आने वाली कठिनाइयों और विपत्तियाँ को जान लिया जाय तो उनसे अभी ही निबटने का प्रबन्ध किया जा सकता है। यदि हमें सुदूर मंजिल पर पहुँचना और हम मंजिल की ओर चल पड़े हैं तथा हमें मार्ग में आने वाले नदी नालों का ज्ञान है, अन्य कठिनाइयों तथा बाधाओं की जानकारी है तो उनसे पार होने का भी प्रबन्ध कर सकते हैं।”
जेक्विन का यह उत्तर उन भाग्यवादियों के लिए बड़ा प्रेरक हो सकता है, तो सितारे खराब होने की कल्पना कर हाथ पर हाथ धरे बैठ जाते हैं या बुरे ग्रह तथा शनि की अंतर्दशा देखकर अपने प्रयत्नों को बोथरे हल समझ लेते हैं, जिनसे साधना की जमीन पर सफलता के बीज नहीं बोये जा सकते। खेती करते समय किसान जमीन की कठोरता अथवा कोमलता नहीं देखता, वह हल जोतता है और जमीन फाड़ता है। यदि एक बार में जमीन की मिट्टी भुरभुरी नहीं होती तो दुबारा वैसा ही प्रयत्न करता है। लेकिन सफलता के लिए अभीष्ट प्रयत्न करने में मनुष्य यह सोचकर क्या हार जाता है कि उसके ग्रह खराब हैं।
वस्तुतः जब कभी फलित ज्योतिष की खोज की गयी थी वह समय निश्चित रूप से इसके बाद का था जबकि मनुष्य ने अपनी आत्मा की अनन्त सामर्थ्य का पता चला लिया था। पहली बात तो यह है कि आत्मा की इस अनन्त सामर्थ्य के सामने ग्रह-नक्षत्रों का कोई बस ही नहीं चलता। वे इतने बलवान नहीं हैं ईश्वर पुत्र मनुष्य के सामने अड़े ही रहें, उसके प्रयत्न व पुरुषार्थ के सामने घुटने न टेक दें। जिस समय फलित ज्योतिष पर विज्ञान की एक धारा समझकर अनुसंधान किया गया होगा- उस समय सत्य शोधकों के सामने यही लक्ष्य रहा था कि भावी जीवन में सम्भावित आपदाओं का पता चल जाय। ताकि उनको दूर करने की तैयारी पहले से ही की जा सके। उदाहरण के लिए हमें मालूम हो कि अमुक मार्ग में जंगली जानवरों का डर है और जाना अनिवार्य है तो इस ज्ञान के आधार पर हम उनसे सुरक्षा का प्रबन्ध कर चलते हैं। जमीन के मार्ग छोड़े जा सकते हैं, पर जीवन यात्रा का पथ ऐसा है कि जिस पर चलना ही पड़ता है। परिस्थितियाँ में कौतूहलवश ही ‘आगे क्या होगा’ यह जानने की कोई संगति नहीं बैठती। संगति बैठती है तो इतनी भर कि सम्भावित विपदाओं से निबटने का प्रबन्ध कर कदम उठाये जांय।
वैज्ञानिक आधार पर हस्त रेखाओं की हुई गवेषणाएं इस सिद्धान्त की ओर अधिक पुष्टि होती है। मनोवैज्ञानिक समझते हैं कि मनुष्य की मानसिक संरचना जिस प्रकार की होती है, उसी के अनुसार मनुष्य के हाथ की रेखायें भी बनती बिगड़ती हैं। लेकिन जिन लोगों ने हस्तरेखाओं के आधार पर भविष्य-कथन के प्रयत्न किये हैं वे भी आश्चर्यजनक रूप से इस सिद्धान्त को समर्थन देते हैं। सेण्ट जारमन, विलियम, बेनहन आदि पश्चिमी भविष्य वक्ताओं ने तो इस विषय पर काफी अनुसंधान किया और पाया कि भविष्य को बदला जा सकता है। कीरो के सम्बन्ध में तो भारतीय पाठक अनभिज्ञ नहीं हैं। उनकी भविष्यवाणियाँ सत्यता पर आधारित-सी लगती थी और कीरो किसी भी व्यक्ति को लेकर कोई भविष्यवाणी करते थे तो उस व्यक्ति की हस्तरेखाओं को देखकर।
जिस व्यक्ति ने हस्तरेखाओं के आधार पर अपने संपर्क में आये हजारों व्यक्तियों का भविष्य कथन दिया। उसका, कीरो का स्वयं का मत है- हस्त रेखाओं से केवल भविष्य की संभावनाओं का पता चलता है। यह मस्तिष्क और शरीर की विभिन्न प्रवृत्तियों के संचालन की दिशा बताती है। इसलिए निश्चिंततापूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि मनुष्य के सम्बन्ध पूर्ण निर्धारित या पूर्व निश्चित कुछ नहीं है। उसकी सम्भावनाएं बहुत कुछ उसके संकल्पों पर निर्भर करती हैं वस्तुतः मनुष्य के संकल्प ही इतनी सामर्थ्य से सम्पन्न होते हैं कि अपार सम्भावनाएं क्षण मात्र में असम्भव हो जाती हैं और घोर निराशा में भी जुगनू की चमक हथेली पर सूरज उगा देने की समर्थता रखता है। चमत्कार संकल्प बल का ही है।
कुल मिलाकर मनुष्य के लिए ही यह सम्भव है कि वह अपने पुरुषार्थ से अपने भविष्य का स्वयं निर्धारण और निर्माण कर सकता है। भाग्य के भरोसे बैठे रहना नीतिविदों ने कायरता कहा है और उद्योगी पुरुषों के लिए सफलता प्राप्त कर पाना सम्भव बताया है। एक हस्त रेखा विशेषज्ञ ने स्वयं पुरुषार्थ की महत्ता को स्वीकार करने और उसे भाग्य से बलवान बताते हुए लिखा है कि “जीवन आपके सामने है। प्रत्येक क्षण खुली किताब के समान आपके सामने खुला पड़ा है। आप प्रत्येक क्षण का सही-सही उपयोग करें और काल देवता की प्रत्येक धड़कन को अपने अनुरूप बनाते चलें। आप देखेंगे कि आपकी रेखाएं बदल रही हैं और सफलता के हाथों जयमाला पहनने के लिए उत्साहपूर्वक व्यग्रता से बढ़ रही है।’’
हस्तरेखा विज्ञान के क्षेत्र मौलिक गवेषणाओं के लिए सुप्रसिद्ध विद्वान डब्ल्यू. जी. बेनहम का कथन है कि ‘‘हथेली की रेखाएं परिवर्तनशील हैं। क्योंकि मनुष्य एक चेतन प्राणी है और वह अपनी भावनाओं तथा संकल्पों द्वारा अपना भाग्य स्वयं चुनता है। इसीलिए कुछ विद्वान मानते हैं कि सात वर्ष में हथेली की रेखाओं में पूर्णतः परिवर्तन आ जाता है, पर मेरा अनुभव यह है कि हाथ की रेखायें पल-प्रतिफल बदलती रहती हैं। और कुछ महीनों ही नहीं कुछ दिनों में भी रेखाओं में परिवर्तन किया जा सकता है।’’
ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर हो अथवा हस्तरेखाओं के माध्यम से भविष्य कथन की निश्चित सम्भावना को संदिग्ध बताते हुए बेनहम ने आगे लिखा है कि, ‘मनुष्य की चेतना प्रवाहमान है इसलिए उसके सम्बन्ध में कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। समुद्र के सम्बन्ध में तो कहा जा सकता है कि उसमें कब ज्वार आएगा लेकिन नदी को बाढ़ के सम्बन्ध में पूर्ण घोषणा करना कठिन ही नहीं असम्भव-सा है। किसी नगर में प्रतिदिन मरने वाले व्यक्तियों का रिकार्ड देखकर यह तो कहा जा सकता है कि एक दिन में कितने व्यक्ति मरते हैं और कल कितने मरेंगे। इसी प्रकार घण्टों मिनटों का औसत भी निकाला जा सकता है, परन्तु व्यक्ति विशेष के सम्बन्ध में इस प्रकार की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती कि मरने वाले व्यक्तियों में एक यह भी होगा।
निर्धारित भाग्य कुछ होता भी हो तो भी उसकी सम्भावना मनुष्य की सम्वेदना एवं उसकी अंतःशक्ति पर अधिक अवलम्बित होती है। इस सम्बन्ध में बंगला के एक साहित्यकार ने बहुत ही रोचक आख्यान लिखा है। उस आख्यान के अनुसार विधाता ने सृष्टि का निर्माण करते समय यह परम्परा अपना ली थी कि जिस प्राणी को पृथ्वी पर भेजा जाए उसका भाग्य भविष्य उसे पहले ही बता दिया जाय। यह परम्परा लम्बे समय तक चली। एक समय ऐसे व्यक्ति को पृथ्वी पर भेजना निश्चित किया गया जो विधाता का घोर विरोधी था। वह प्रायः लड़ता-झगड़ता रहता था। विधाता ने दण्ड स्वरूप उसके भविष्य में दुःख ही दुःख लिख दिए। वह उस व्यक्ति के दुःखद जीवन का भविष्य लेख पढ़ ही रहे थे कि सुनते-सुनते ही वह व्यक्ति पृथ्वी पर आने से पहले स्वर्ग में ही मर गया। कहते हैं तब से विधाता ने भविष्य पढ़ना बन्द कर दिया और उसके बाद मनुष्य अब तक भवितव्य को जानने के लिए बार-बार प्रयत्न करता रहता है तथा असफल होता है।
खैर! यह तो कहानी है, परन्तु इसमें यह सत्य तो निहित ही है कि भविष्य को जानना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य ही है। भविष्य कथन की विशेषता किन्हीं विशेष, व्यक्तियों में हो भी सकती है। लेकिन उसका जानना आवश्यक नहीं है। विशेषतः इस क्षेत्र में व्यावसायिक भावना के प्रवेश से मनुष्य को अविवेकी और मूढ़ बनाने का चक्र ही चलता दिखाई देता है।
किसी को भाग्यवादी ही बने रहना है तो यह अधिक व्यावहारिक है कि मनुष्य अपने भविष्य के प्रति आशाजनक दृष्टिकोण रखे। कठिनाइयां आई तो उनसे कुछ सीखने को मिलेगा, सफलतायें मिली तो प्रयत्न आगे बढ़ेंगे- यह रीति-नीति अपनाने पर न बुरे ग्रहों के प्रभाव का भय सतायेगा और न ही अनिष्ट की आशंका सालेगी। भविष्य के प्रति आशापूर्ण आस्था रखने का एक लाभ यह भी है कि उससे मनुष्य की आन्तरिक शक्तियों को प्रेरणा मिलेगी, वे जागेंगी और अमंगलकारी ग्रह यदि हुई भी सही- यद्यपि वे है नहीं, तो व्यक्ति का कुछ बिगाड़ न सकेंगे।