कितने ही व्यक्तियों में ऐसी जन्मजात प्रतिभाएं, विशेषताएं पाई जाती हैं जिनका उनकी परिस्थिति, वंश परम्परा अथवा प्रशिक्षण व्यवस्था के साथ कोई तारतम्य नहीं बैठता। इन विशेषताओं को पूर्वजन्मों की संचित सम्पदा मानने के अतिरिक्त और कोई समाधान निकलता ही नहीं।
संचित संस्कारों का अगले जन्मों में फलित होना, इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है कि तत्काल अभीष्ट सत्परिणाम न मिलने पर भी सत्प्रयोजनों को जारी रखा जाय और यह सोचा जाय कि मरने के दिन निकट आ गये अब अधिक पुरुषार्थ किस लिये करेंगे? जीवन अनवरत है। अब की कमाई, पूँजी, फिर कभी संचित सम्पदा की तरह काम आ सकती है। यह सोचकर मनुष्य को सदा सत्प्रयोजनों के लिए प्रबल पुरुषार्थ करने में निरत ही रहना चाहिए।
गणित शास्त्र के मूर्धन्य विद्वान पास्कल को रेखा-गणित के प्रति बचपन से ही विशेष रुचि थी। वह बचपन से ही भूमि पर रेखांकन द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृतियाँ बनाया करता। माता-पिता ने उसकी इस प्रवृत्ति को रोकने की भी कोशिश की। किन्तु लुक-छिपकर वह आकृतियां बनाकर उन्हें ध्यान से देखता तथा सोचता रहता था। बिना किसी पुस्तक एवं अध्यापक के उसने बारह वर्ष की आयु में ही तीस ‘साध्य’ बनाये। उनकी असामान्य प्रतिभा ने गणित शास्त्र के विद्वानों को भी अचम्भित कर दिया तथा यह सोचने को बाध्य किया कि इतनी कम आयु में बिना किसी पुस्तक एवं अध्ययन, शिक्षा के यह कैसे सम्भव हो सका?
प्रसिद्ध विद्वान ‘मायर्स’ ने अपनी पुस्तक ‘ह्यूमन परसनाल्टी’ में सिसली में जन्मे एक गड़रिये लड़के का उल्लेख किया है जिसकी बौद्धिक क्षमता असामान्य थी। दस वर्ष की अल्प आयु में ही उसने पेरिस के विद्वानों के एकेडेमी में अपनी हिसाब की शक्ति से सबको आश्चर्यचकित कर दिया। ‘एकेडेमी’ में उपस्थित गणित शास्त्र के विद्वानों में से एक ने उससे पूछा 3796416 का घनमूल क्या है? आधे मिनट में ही उसने उत्तर दिया, 153 जो बिल्कुल ही ठीक था। पुनः 282475279 का ‘दसवां’ मूल पूछने पर उसने ‘सात’ बताया? अन्यान्य पूछे गये गणित के प्रश्नों का उत्तर भी उसने सही देकर उपस्थित सभी विद्वानों को अचंभित किया। उक्त बालक का नाम वाइटो मैंजियामील था।
सुमेश चन्द्र दत्त नामक एक बालक भी इस सदी के तीसवें दशक में बड़ा लोकप्रिय हुआ। उसकी प्रतिभा असामान्य थी। ढाका का उक्त बालक 15 अंकों की राशि को 15 अंकों की राशियों से मौखिक गुणा कर सकता था। विकसित होकर यह क्षमता यहाँ तक जा पहुँची कि वह 100 अंकों की राशि का 100 अंकों की राशि से मौखिक गुणा कर सकता था। इस बच्चे की अद्भुत क्षमता का प्रदर्शन पूरे विश्व में हुआ। अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उसने 60 अंकों का 60 अंकों के साथ गुणा मात्र 45 मिनट में करके दिया। गुणा करने में किसी भी प्रकार के कागज, पेन्सिल अथवा अन्य साधनों का प्रयोग नहीं किया गया। इन अंकों का गुणा कोलम्बिया विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने दो घण्टे प्रतिदिन के हिसाब से खर्च करके दो सप्ताह में किया था। किन्तु उनका उत्तर सही न था। जबकि ‘सुमेश चन्द्र’ का मौखिक हल किया गया उत्तर सही था। गणित के अन्य प्रश्नों के हल में भी उसकी असामान्य बौद्धिक क्षमता का परिचय अमेरिका के विद्वानों को मिला। अमेरिका के अखबारों ने उसे ‘दिमागी जादूगर’ ‘विद्युत की तरह शीघ्र हिसाब करने वाला’ (लाइटिंग कैलकुलेटर) जैसी उपाधि दी।
उपरोक्त घटनाएं इस बात की प्रमाण हैं कि इन असाधारण योग्यताओं का कारण पैतृक संस्कार और परिस्थितियाँ नहीं हो सकतीं। इनमें से किसी के माता-पिता इन विशेषताओं से युक्त नहीं थे। परिस्थितियाँ भी इन क्षमताओं के विकास के प्रतिकूल ही थीं। जीव विज्ञान के आनुवंशिक नियमों के आधार पर इनकी व्याख्या नहीं हो सकती। पुनर्जन्म को मानने एवं संचित विशेषताओं के संस्कार के रूप में प्रकट होने के तथ्य पर ही इसका समाधान मिल सकना सम्भव है।
किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों के जीवन के मध्यकाल अथवा विशेष अवस्था में भी असामान्य परिवर्तन का होना पुनर्जन्म के सिद्धान्त को पुष्ट करता है। क्रूर एवं कठोर स्वभाव वाले व्यक्तियों में भी कभी-कभी आकस्मिक परिवर्तन देखे जाते हैं। इनका कारण परिस्थितियाँ नहीं वरन् पूर्व जन्मों के संस्कार होते हैं जो चेतना की अचेतन परतों में दबे पड़े रहते हैं। एक विशिष्ट अवस्था में वे प्रबल असामान्य परिवर्तनों के रूप में देखे जाते हैं। वाल्मीकि के जीवन चरित्र से सभी परिचित हैं। अत्याचारी एवं खूँखार डाकू पर एक संत के उपदेशों का इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसके जीवन की दिशा धारा ही बदल गयी। इसका कारण सन्त के उपदेश ही नहीं वरन् वे संस्कार भी थे जो बीज रूप में वाल्मीकि की चेतना में छिपे पड़े थे। एक विशेष अवसर पर वे उभर कर सामने आ गये। उपदेशों ने तो मात्र उन संस्कारों को उभारने में योगदान दिया।
तुलसीदास, सूरदास का नाम सन्तों में उल्लेखनीय है। कामुकता की लिप्सा से निकलकर ईश्वरीय भक्ति की ओर मुड़ना एक आकस्मिक घटना नहीं, वरन् पूर्व संचित संस्कारों की प्रेरणा थी, जो विशेष परिस्थितियों में जग पड़ी। इस प्रकार परिवर्तन अनेकों व्यक्तियों के जीवन में हुए हैं। दुराचारी से सन्त में परिवर्तन की घटनाओं में बाह्य प्रेरणाओं की न्यून और प्रसुप्त आन्तरिक संस्कारों की प्रेरणा प्रधान कारण होती है।
कर्मफल की आध्यात्मिक अवधारण भी इसी पर अवलम्बित है। श्रेष्ठ कर्मों के संस्कार श्रेष्ठ, निकृष्ट के निकृष्ट होना सुनिश्चित है। ये अपना प्रभाव न केवल इस जीवन में दिखाते हैं, वरन् अगले जन्म में भी इनके संस्कार सूक्ष्म रूप में, सूक्ष्म शरीर के साथ बने रहते हैं। यही कारण है कि सभी धर्म सत्कर्मों की प्रेरणा देते हैं। आध्यात्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले तत्वदर्शियों ने कर्मों का चेतना पर पड़ने वाले सूक्ष्म प्रभाव एवं जन्म-जन्मान्तर तक उनके बने रहने के तथ्य को समझ कर ही कर्मफल की महत्ता पर जोर दिया है।