वाजिद अलीशाह के दरबार में उस्ताद मोदू खाँ नवाब का महत्वपूर्ण स्थान था। उनके जैसा तबला दूसरों कोई बजा ही न सकता था। उस्ताद मोदू खाँ के पास वैभव था, सर्वत्र उनकी प्रसिद्धि थी पर फिर भी उन्हें संतोष न था। योग्य शिष्य को अपनी समस्त विद्या देने के लिए उनकी आत्मा छटपटाती ही रहती है।
उस्ताद की खोज आखिर पूरी हुई। विद्या दान के लिए उन्हें एक योग्य पात्र मिल ही गया। पूरी तन्मयता से उसे उन्होंने तबला सिखाना प्रारम्भ कर दिया। उस्ताद के इस कार्य का उनके धर्मावलम्बियों ने बहुत अधिक विरोध किया क्योंकि जो पात्र चुना गया था वह हिन्दू था। परन्तु उस्ताद मोदू खाँ उन सबके विरोध के उपरान्त भी अपना कार्य करते रहे।
वर्षों कठोर परिश्रम कराने के बाद एक दिन शिष्य को उन्होंने दरबार में उपस्थित किया। उसकी कला ने सारे दरबार को विमुग्ध कर दिया और सभी ने मुक्तकण्ठ से उस्ताद और शिष्य दोनों की प्रशंसा की।
तब उस्ताद बोले- ‘अब कोई बताये कि मैंने इस हिन्दू बालक को तबला सिखाकर कौन-सा अपराध किया है। विद्यादान के लिए जाति नहीं, पात्रता देखी जाती है। योग्य पात्र के पास जाकर ही विद्या सफल होती है।’