ईश्वर है! यह कैसे जानें?

August 1981

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भौतिक जगत की कई शक्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें प्रत्यक्ष नेत्रों द्वारा नहीं देखा जा सकता। विद्युत शक्ति स्वयं अदृश्य रहती है। आँखों से न दिखते हुए भी उसके अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। बल्ब में प्रकाश फैलाती- पंखे से हवा बिखेरती- हीटर में गर्मी देती तथा विशालकाय मशीनों, कारखानों को चलाने के लिए ऊर्जा देती, सतत् वह अपनी सत्ता परिचय देती है। चुम्बकीय शक्ति दिखायी नहीं पड़ती, पर प्रचण्ड आकर्षण शक्ति उसकी सत्ता का बोध कराती है। प्रकाश, ऊर्जा, गर्मी, विद्युत शक्ति के गुण हैं, उसकी प्रतिक्रियाएं हैं-मूल स्वरूप नहीं। मूल स्वरूप तो अभी तक परमाणु की सत्ता की भाँति विवादास्पद बना हुआ है। गुणों का बोध ज्ञानेन्द्रियों द्वारा होता है। नेत्रों में ज्योति न होने पर न तो प्रकाश दिखाई पड़ सकता है और न ही पंखे का चलना दृष्टिगोचर हो सकता है। आँख के साथ शरीर की त्वचा भी अपनी सम्वेदन क्षमता गँवा बैठे तो जिन्होंने कभी विद्युत शक्ति की सामर्थ्य नहीं देखी है उनके लिए बिजली की सत्ता का अस्तित्व संदिग्ध ही बना रहेगा। यही बात चुम्बक के साथ लागू होती है।

पृथ्वी का गुरुत्व बल प्रत्यक्ष कहाँ दिखता है? वस्तुओं के नीचे गिरने से यह अनुमान लगाया जाता है कि उसमें को ऐसी आकर्षण शक्ति है जो वस्तुओं को अपनी ओर खींचती है। यही वह प्रमाण है जिसके आधार पर गुरुत्वाकर्षण शक्ति की उपस्थिति को स्वीकारना पड़ता है। ऐसी कितनी ही शक्तियाँ हैं जो नेत्रों से नहीं दिखाई पड़तीं किन्तु, उनका अस्तित्व नकारा नहीं जा सकता। फूल में सुगन्ध होती है यह सर्वविदित है। गन्ध को नेत्र कहाँ देख पाते हैं। घ्राणेन्द्रियों द्वारा गन्ध की मात्र अनुभूति होती है। उनमें सौंदर्य होता है जो हर किसी को मुग्ध करता है। सौंदर्य की होने वाली अनुभूति को किस रूप में प्रत्यक्ष दिखाया जा सकता है? फूल की सुगन्ध एवं सौंदर्य की अनुभूति- घ्राण शक्ति एवं नेत्र ज्योति से रहित व्यक्ति नहीं कर सकता। ऐसे व्यक्तियों के उसकी विशेषता से इन्कार करने पर भी तथ्य अप ने स्थान पर यथावत् बना रहता है।

खाद्य पदार्थों के गुण धर्म उनके भीतर सन्निहित होते हैं। उनके स्वाद को देखा नहीं, स्वादेन्द्रिय के ठीक रहने पर मात्र अनुभव किया जा सकता है। जिनकी जिह्वा जन्म से ही रोग ग्रस्त हो- स्वाद का अनुभव नहीं कर पाती हो उनके लिए यह आश्चर्य, अविश्वास एवं कौतूहल का विषय बना रहेगा कि वस्तुओं में स्वाद भी होता है। जिह्वा से ही अनुभूति होते हुए भी स्वाद के मूल स्वरूप का दर्शन कर सकना सर्वथा असम्भव है। गन्ध का वास्तविक रूप कैसा होता है, यह दृष्टिगम्य नहीं अनुभूति गम्य है।

विविध प्रकार की भौतिक शक्तियों का परिचय उनके गुण-धर्मों, विशेषताओं के आधार पर मिलता है और यह भी तभी सम्भव है जब ज्ञानेन्द्रियाँ उनकी विशेषताओं सम्वेदनाओं को ग्रहण कर पाने में सक्षम हों। इतने पर भी उनके मूल स्वरूप का दर्शन कर पाना न तो अब तक सम्भव हुआ है और न ही निकट भविष्य में सम्भावना ही है क्योंकि शक्ति का कोई स्वरूप नहीं होता। लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई रूपी प्रत्यक्ष मापदण्ड की सीमा में वस्तुऐं आती हैं, शक्तियाँ नहीं। इस तथ्य को कोई भी विज्ञ, विचारशील, तार्किक अथवा वैज्ञानिक भी मानने से इन्कार नहीं कर सकता।

परमात्मा वस्तु अथवा व्यक्ति नहीं जो इन स्थूल नेत्रों से देखा जा सके। वह एक सर्वव्यापक शक्ति है जो जड़-चेतन सभी में समायी हुई है। उसी की प्रेरणा से सभी चेतन प्राणी गतिशील हैं। सृष्टि के प्रत्येक घटक में सुव्यवस्था, नियम एवं सुसंचालन का होना इस बात का प्रमाण है कि किसी सर्वसमर्थ अदृश्य हाथों में इसकी बागडोर है। यदि सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो लघु परमाणु से लेकर विशाल ब्रह्मांड तक में उसी की सत्ता क्रीड़ा कल्लोल कर रही है। सामान्य कृतियों के लिए भी कितना अधिक श्रम, पुरुषार्थ एवं बुद्धि का नियोजन करना पड़ता है। छोटे-बड़े यन्त्रों का निर्माण एवं सुसंचालन अपने आप नहीं हो जाता। सर्वविदित है कि मनुष्य को कितना अधिक नियन्त्रण रखना पड़ता है तब कहीं जाकर यन्त्र अभीष्ट प्रयोजन पुरा कर पाता है। यह तो मनुष्य द्वारा विनिर्मित सामान्य कृतियों की बात हुई। विशाल सृष्टि अपने आप बन कर तैयार हो गई और स्वसंचालित है यह बात भी बुद्धि के पल्ले नहीं पड़ती।

कहा जा चुका है कि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न होना किसी शक्ति के न होने का प्रमाण नहीं है। परोक्ष आधारों अथवा अनुभूतियों द्वारा भी कितनी ही शक्तियों का प्रमाण मिलता है। मनुष्य भी एक चेतन एवं सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। उसकी चेतना भी इन स्थूल नेत्रों से कहाँ दिखाई पड़ती है, किन्तु उसकी हलचलें अंग-प्रत्यंग दिखायी पड़ती हैं। मानवी सत्ता को परमात्मा की सर्वोत्तम एवं विलक्षण कृति माना जा सकता है एवं कृति का निर्माण नियामक सत्ता को माने बिना सम्भव नहीं है।

हमारा अस्तित्व है, यह सबसे बड़ा प्रमाण है कि कोई आदि कारण सत्ता भी है। जीवन है तो जीवन का स्त्रोत भी है। यदि चेतना है तो चेतना का आदि स्थल भी है। शक्ति है तो शक्ति का उद्गम स्त्रोत का होना भी सुनिश्चित है। जो सबका कारण, जीवन शक्ति, ज्ञान आनन्द का आदि स्त्रोत है वही परमात्मा है। उसी को विभिन्न धर्मानुयायी अलग-अलग नामों से पुकारते हैं। शैव जो लोग उसे शिव कहकर पूजते हैं। वेदान्ती उसी को ब्रह्म कहते हैं। बौद्ध बुद्ध और जैन धर्मावलम्बी उसी को ‘अरहन्त’ और मीमांसक ‘कर्म’ के रूप में देखते हैं। उपनिषदों के अनुयायी उसे शुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव का मानते हैं तो कपिल के समर्थक आदि विद्वान सिद्ध के रूप में। पाशुपत मत के उसे निर्लिप्त स्वतन्त्र शक्ति रूप से पूजते हैं तो वैष्णव लोग पुरुषोत्तम के स्वरूप में। ‘याज्ञिक’ यज्ञ पुरुष के रूप में मानकर अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं तो सौगत लोग सर्वज्ञ के रूप में, न्यायिक मतावलम्बी सर्वगुण सम्पन्न ईश्वर के रूप में, चार्वाक के अनुयायी व्यवहार सिद्ध के रूप में तथा कलाकार विश्वकर्मा के रूप में उसी का पूजन-अर्चन करते हैं। वह परम सत्ता में सर्वत्र विद्यमान है। कोई उसे तप कहता है तो कोई ज्ञान, कोई प्रकृति तो कोई शक्ति। वह व्यापक दृष्टा से जगत के सभी घटकों को प्रत्यक्ष कर रहा है- स्वरूप दे रहा है उसे ही अध्यात्म की भाषा में ईश्वर कहते हैं। वैज्ञानिक उसे ही एक अदृश्य, अविज्ञात शक्ति के रूप में स्वीकारते हैं।

अपनी सत्ता को मानने और अपने हो आदि कारण को न मानने का कोई औचित्य समझ में नहीं आता। उत्तर दिया जा सकता है कि वह अनुभूति में नहीं आता। भौतिक शक्तियों के विषय में जाना जा चुका है कि वे तभी अनुभूति में आती हैं जब अपनी ज्ञानेन्द्रियाँ ठीक हों। परमात्मा भी तभी अनुभूति के धरातल पर उतरता है जब कि उनको धारण करने वाला अन्तःकरण पवित्र एवं उदात्त भावना से सुसम्पन्न हो। इसी के माध्यम से उसे जाना जा सकता है। अस्तु भावनाओं का परिष्कार एवं अन्तःकरण का विस्तार ही उस पर परम सत्ता के साक्षात्कार का एक मात्र माध्यम है। जप, तप, साधना उपचार के अनेकानेक उपचार उसी प्रयोजन को पूरा करने के लिये किये जाते हैं।

जो इसी दिशा में प्रवृत्त हुए, उन्होंने ने केवल उसे जाना, वरन् उसके दिव्य आलिंगन को अनुभव किया। सन्त, महात्मा, ऋषि, महर्षियों के ज्वलन्त इतिहास इसी बात के प्रमाण हैं। उनके जीवन की पवित्रता, सरसता, व्यक्तित्व की महानता, शक्ति एवं ज्ञान की विलक्षणता जन सामान्य को अभी तक प्रेरणा देती रहती हैं।

जिस प्रकार भौतिक ऊर्जा अदृश्य होते हुए भी पंखे की गति, बल्ब में प्रकाश, हीटर में ताप जैसे विविध रूपों में हलचल करती दिखाई पड़ती है, उसी प्रकार वह परमसत्ता पवित्र हृदय से पुकारने पर भावनाओं के अनुरूप कभी स्नेहमयी माँ बनकर तो कभी पिता अथवा सखा बनकर- कभी रक्षक के रूप में तो कभी विलक्षण शक्ति के रूप में प्रकट होकर अपनी सत्ता का आभास कराती एवं अनुदान बरसाती है।


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