‘स्व’ का विकास और समष्टिगत हित साधन

August 1981

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

विकसित व्यक्तित्व की एक ही पहचान है- उच्च चरित्र। चरित्र क्या है- सद्गुणों का समुच्चय। सद्गुणों के सत्परिणामों से भी सभी परिचित हैं। फिर उन्हें प्रयोग-व्यवहार में लाने में क्या कठिनाई पड़ती है? और क्यों उसका समाधान नहीं निकलता। इसका एक शब्द में दिया जाने वाला उत्तर है- व्यक्ति का ‘स्व’ केंद्रित होना। अपने आपको छोटे दायरे में बाँध लेने वाले संपर्क क्षेत्र पर अपने आचरण की प्रतिक्रिया पर ध्यान नहीं देते और मात्र अपनी ही प्रसन्नता-सुविधा की बात सोचते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए नीति नियमों की कथा गाथा भर सुगम पड़ती है। वे संकीर्ण स्वार्थपरता को मजबूती से पकड़े रहते हैं जो अपने को सुहाती है, भले ही उसमें दूसरों का कितना ही अहित क्यों न होता हो?

सद्गुण-सामाजिक दृष्टिकोण के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। ‘स्व’ को सुविस्तृत बना लेने पर ही यह अनुभूति होती है कि हम किसी विराट् के छोटे अंग हैं। अपना स्वार्थ- सार्वजनीन स्वार्थ परमार्थ के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा होता है। शरीर के समूचे ढाँचे के सक्षम रहने पर ही उसके अंग विशेष का हित है। अन्यथा उस अकेले के परिपुष्ट रहने पर भी अन्यों के कष्ट ग्रस्त रहते किसी भलाई की संभावना नहीं है। ऐसा सोचने वाले समष्टि को हानि पहुँचाकर निजी स्वार्थ साधन की बात नहीं सोचते। यही वह केन्द्र बिन्दु है जहाँ से अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का आविर्भाव व परिपोषण होता चला जाता है।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles