साधना का स्वरूप और प्रवेश अनुबन्ध

August 1981

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गायत्री तीर्थ का शुभारंभ आश्विन नवरात्रि 29 सितम्बर से किया जा रहा है। साधना, स्वाध्याय, संयम, सेवा की चतुर्विधि तपश्चर्या के लिए दो प्रकार के कार्यक्रम रखे गये हैं। एक-एक महीने के दस-दस दिन के। इन दोनों का समय सदा एक जैसा ही निर्धारित रहेगा। एक महीने वाले पहली तारीख से तीस तक और दस दिन वाले 1 से 10 तक, 11 से 20 तक और 21 से 30 तक। यह समय भविष्य के लिए नियमित रूप से चलेगा। किन्तु प्रारम्भ में अपवाद यह हो गया है कि तारीख 1 अक्टूबर की अपेक्षा दोनों ही सत्र 29 से चलेंगे। आश्विन नवरात्रि का पुण्य पर्व आ जाने से यह दो दिन का आगे आरम्भ करने का व्यतिक्रम हो गया। उपयुक्त मुहूर्त का लोभ न छोड़ा जा सका और शुभारम्भ 29 सितम्बर से किया गया।

हर साधक को साधना स्वाध्याय, संयम, सेवा की चतुर्विधि प्रक्रिया उसकी मनःस्थिति एवं परिस्थिति जान लेने के उपरान्त पृथक-पृथक स्तर की बनाई और बताई जायेगी। रोगियों की स्थिति देखकर पृथक-पृथक प्रकार के उपचार किये जाते हैं। इसी प्रकार इन साधना उपचारों के सम्बन्ध में भी समझा जाना चाहिए। सभी साधकों को एक जैसी साधना बता देना अवैज्ञानिक एवं अनुपयुक्त होता है। दूसरे लोग ऐसी भूल करें या करायें पर गम्भीर पर्यवेक्षण करने वाले “सब धान बाईस पसेरी” नहीं कर सकते। सबको एक लाठी से नहीं हाँक सकते। इस सम्बन्ध में होम्योपैथी निदान प्रक्रिया की सराहना करनी पड़ती है। जिसमें एक ही नाम से प्रख्यात रोगों का लक्षण भेद से वर्गीकरण करना और तदुपरान्त औषधि निर्धारण के निश्चय पर पहुँचना पड़ता है। यही सिद्धान्त साधना के संदर्भ में भी लागू होता है। उसमें व्यक्ति विशेष के संग्रहित संस्कार, स्वभाव अभ्यास, रुझान का पता लगाना होता है। आज की परिस्थितियों का पर्यवेक्षण किया जाता है।

साथ ही यह भी जानना होता है कि उज्ज्वल भविष्य की संरचना किस आधार पर और किस दशा में की जानी चाहिए। इतना पर्यवेक्षण, विश्लेषण करने के उपरान्त ही किसी सूक्ष्मदर्शी अध्यात्म क्षेत्र के उपचारक के लिए यह संभव हो सकता है कि वह व्यक्ति के अनुरूप साधना का निर्धारण करे। दूसरे योग शिक्षकों की तरह सामूहिक कक्षाएं लगाना गायत्री-तीर्थ के साधनों के लिए सम्भव नहीं। उन्हें अलग-अलग कमरों में रखने की अपने निवास को एक विशेष वातावरण में युक्त करने की एक विशेष प्रकार का संसार बनाने के लिए प्रयत्न किया जाना है ताकि अपनी विशिष्ट साधना में हर साधना अपनी राह पर आप चलता रहे। न दूसरे साथियों से प्रभाव ग्रहण करे और न उस पर छोड़े।

साधना काल को प्रकारान्तर से काया-कल्प जैसा उपचार कह सकते हैं। आयुर्विज्ञानी जानते हैं कि इस उपचार में रोगी को उपचार के पूरे चालीस दिन का इससे भी लम्बी अवधि में एक पर्णकुटी में रहना पड़ता है। उसे बाहर निकलने का अवसर नहीं मिलता। उसी छोटी दुनिया में कैदी की तरह अपनी दिनचर्या गुजारनी पड़ती है। जेल को भी सुधार गृह कहते हैं। अस्पतालों में भी गम्भीर मरीजों को बाहर जाने की छूट नहीं मिलती। माता के पेट से जब बालक पकता है तो उसे भी नियत स्थान में ही गुजारा करना पड़ता है। अण्डे बच्चे भी घोंसले में ही कुलबुलाते रहते हैं। साधना का मजाक बनाना हो तो उस अवधि में बन्दर की तरह यहाँ-वहाँ, उचकते-मचकते फिरने जहाँ-तहाँ दर्शन झाँकी और सैर सपाटा करने से कोई क्यों टोकेगा और कोई क्यों रुकेगा। किन्तु तब बात की गम्भीरता के स्तर तक चला जाय तो साधना को विशुद्ध तपश्चर्या के रूप में समझा और समझाया जाना चाहिए और उस अवधि में स्थिर रहने की आवश्यकता, उपयोगिता हृदयंगम कराई जानी चाहिए। वैसा ही अनुबन्ध, अनुशासन गायत्री तीर्थ के साधकों को भी अपनाना होगा।

सर्वविदित है कि आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि जैसे योगाभ्यास करने में स्थिरता आधारभूत अनुबन्ध माना गया है। विशिष्ट साधक इसी प्रकार की जीवनचर्या अपनाते हैं। गुफा-सेवन का व्रत इसी दृष्टि से लिया जाता है। अरविन्द, रमण जैसे प्रख्यात और हिमालय की कन्दराओं में निवास करने वाले अविज्ञात योगी एक सीमित क्षेत्र में ही निवास करने का व्रत लेते और उसे दृढ़तापूर्वक निभाते हैं। परिव्राजकों, वानप्रस्थों, साधु, ब्राह्मणों की लोक-मंगल तीर्थयात्रा अलग बात है आत्म परिष्कार के लिए कायाकल्प जैसी उपचारपरक तपश्चर्या दूसरी। दोनों एक दूसरे की परक तो हैं, पर एक साथ दोनों नहीं हो सकतीं। तपश्चर्या काल प्रायः वैसा ही होना चाहिए जैसा कि त्रिवेणी संगम पर माघ मास में कल्प साधना के निमित्त अभी भी किया करते हैं। जहां साधना में सच्चाई है वहाँ अभी भी इस प्रकार के अनुबन्ध लगाते देखे जा सकते हैं। गुजरात में मोटा महाराज के सूरत और नडियाड आश्रमों में इसी प्रकार साधना काल में नियत कोठरी में ही कहने का नियम है।

गायत्री तीर्थ में उतना कड़ा प्रतिबन्ध सामान्य साधकों के लिए अभी नहीं लगाया गया है, पर इतनी कठोरता तो रहेगी कि वे गायत्री तीर्थ की लक्ष्मण-रेखा लाँघकर अन्यत्र न जायेंगे। वातावरण का रावण किसी की भी साधना-सीता को चुरा कर ले जा सकता है। ताँत्रिक श्मशान-साधना करते हैं और योगी को गुफा में सेवन करना पड़ता है, प्रज्ञा परिजनों को आत्म-परिष्कार के लिए जो करना है वह वजनदार होने के कारण उसके निमित्त तपश्चर्या भी उच्चस्तरीय ही करनी होगी। इसमें साधना काल तीर्थ के सीमित क्षेत्र में गुजारने की शर्त पहली है।

विधि, विधान कर्मकाण्ड साधना, उपचार, जप, ध्यान, अनुष्ठान आदि का क्या-क्या करने होंगे और क्या-क्या चमत्कार दिखेंगे इस प्रसंग पर समय से पहले सोचने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। प्रगति किस क्रम से, किस दिशा में हो रही है- इसके लिए ब्रह्मवर्चस् शोध संस्थान की बहुमूल्य मशीनों द्वारा शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक स्थिति का पर्यवेक्षण किया जाना रहेगा। प्रगति होने, न होने की कसौटी किसी साधक के पास नहीं होती उसे तो जौहरी ही अपने विशिष्ट उपकरणों से जाँचते परखते हैं। साधकों को अपना काम बन्द करना होता है और उसमें उतावली न मचाकर चिकित्सक को अपना काम अपने ढंग से करने का अवसर प्रदान करना होता है। गायत्री तीर्थ के साधक भी इसी प्रकार का साधकोचित धैर्य साथ में लेकर आवेंगे ऐसी अपेक्षा की गई है।

इसके बाद शारीरिक गतिविधियाँ और मनःक्षेत्र के विचार नियमन की दिनचर्या का प्रश्न आता है। इस सम्बन्ध में कोई मनमर्जी न बरतेगा और प्रारम्भ में ही स्थिति के अनुसार निर्धारित होगा, पर यदि उसमें कुछ फेर-बदल करनी हो तो उसे मार्गदर्शक और साधक के परामर्श से ही किया जायेगा। मनमर्जी बरतने और चाहे जब चाहे जो करने लगने की आदत सामान्य जीवन में तो चलती रह सकती है। पर तपश्चर्या काल में तो इस स्वतंत्रता व उच्छृंखलता को भी गंवाना पड़ता है। समर्पित और अनुशासित मनःस्थिति न बन से तो फिर साधना समर में प्रवेश करने का साहस न करना ही श्रेयस्कर है।

गायत्री तीर्थ के साधकों को भाषण, प्रवचन सुनने का अवसर प्राप्त न हो सकेगा। वे एकान्त स्वाध्याय और मन चिन्तन की अंतर्मुखी ज्ञान साधना से काम चलायेंगे। जिज्ञासाएं न्यूनतम उभारेंगे, श्रद्धा की स्थापना में विशेष प्रकार का पराक्रम अपनायेंगे। समय-समय पर तीर्थ के सूत्र संचालक युग-ऋषि से विचार विनिमय का वही सामयिक समाधान का अवसर प्राप्त होता रहेगा। पर मानकर यहीं चलना चाहिए कि यहाँ सीखने सुनने के लिए नहीं धारणाओं को परिष्कृत परिपक्व करने के लिए जाया रहा है। इसमें सुनने-पूछने की कम और अन्तरंग को उभारने उछालने की आवश्यकता अधिक पड़ती है। वही रीति-नीति यहाँ के साधक अपनाकर चलेंगे।

साधना काल का तीसरा प्रयोग है- आहार। वह न केवल सात्विक, सीमित होना चाहिए वरन् संस्कारवान् भी रहना चाहिए। अन्न का मन पर प्रभाव पड़ने की बात को सभी जानते हैं। कुसंस्कारी आहार करते रहने पर किसी की भी उच्चस्तरीय साधना सफल नहीं हो सकती। इसलिये भोजन न केवल अपने हाथ बनाना होगा, वरन् उसके सम्बन्ध में जुड़ी हुई मान्यताओं, आदतों और स्वादों को भी बदलना होगा। स्वादेन्द्रिय का नियमन साधना क्षेत्र का प्रारम्भिक उपचार है। इस प्राइमरी स्कूल को पास करने के बाद ही माध्यमिक, उच्चस्तरीय एवं स्नातकीय कक्षाओं में प्रवेश पाने का अवसर मिलता है। अन्नमय कोष का ही परिशोधन न हो सका तो फिर प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोशों के उच्चस्तरीय देव लोकों में प्रवेश पाने का अवसर कैसे मिलेगा?

प्रथम पुरुषार्थ तो स्वादजयी होने के रूप में ही करना होता है। इसके बाद अन्य इन्द्रियों के नियमन का काम हाथ में लेना पड़ता है। इन्द्रिय संयम, विचार संयम, समय संयम, अर्थ संयम के चारों ही क्षेत्रों में साधक को पुरुषार्थ दिखाना पड़ता है और सिद्ध पुरुष स्तर तक पहुंचने का अवसर मिलता है।

संचित पाप कर्मों का प्रायश्चित और कुसंस्कार के परिष्कार के निमित्त पुरातन ढर्रे को नये सिरे से उलटने की आवश्यकता पड़ती है। इसके लिए कर्मकाण्ड, उपचार की छुटपुट लकीर पीटने भर से काम नहीं चलता वरन् कुसंस्कार प्रवाह को उलटने के लिए दुस्साहस स्तर के प्रयास करने पड़ते हैं। पतन सरल है उत्थान कठिन। उछालने में शक्ति लगानी पड़ती है, वायुयान हो या राकेट पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से जूझने के लिए भारी मात्रा में ऊर्जा खर्च करनी होती है। प्रवाह में हाथी बह जाते हैं, पर मछली उस धारा को चीरकर उलटी दिशा में चलने का दुस्साहस करती है। प्रायश्चित का तात्विक सिद्धान्त भी यही है, जिस कारण दुष्कर्म बनते हैं। उस कुत्सा के मूल केन्द्र पर कुल्हाड़ा चलाना ही प्रायश्चित है। कर्मकांड उपचार तो इस मनःस्थिति को प्राप्त करने में सहायक प्रयोग प्रयत्नों की तरह ही करने पड़ते हैं। उन्हीं को सब कुछ मान बैठने से बात नहीं बनती। मनःस्थिति न बदली तो उन दुष्कृत्यों का सिलसिला भविष्य में भी टूटने वाला नहीं है ऐसी दशा में आये दिन पाप और आये दिन प्रायश्चित की विडम्बना रचने और निराश होकर अंततः उसे भी छोड़ बैठने से कोई बात कहाँ बनेगी?

इन तथ्यों को दृष्टि में रखते हुये गायत्री तीर्थ के साधको की भूलों, आदतों और दुर्बलताओं को भी प्रकार परखा और तद्नुसार प्रायश्चित का तप कृत्य कराया जायेगा।

कहना न होगा कि आत्मिक प्रगति में प्रधान अवरोध संग्रहित कषाय-कल्मषों का ही होता है। उनका अम्बार लदा रहने पर पूजा उपचार के नाम पर चलने वाले कर्मकाण्डों का कोई विशेष प्रतिफल उपलब्ध होने की सम्भावना नहीं बनती।

गायत्री तीर्थ में एक महीने की, दस दिन की साधना के इच्छुकों को इसी प्रयोजन के लिये बने हुए आवेदन पत्र मंगाकर उसको भरना और स्वीकृति प्राप्त होने पर पहुँचना होगा। इन कक्षाओं में मनोकामनापूर्ण करने, चुटकी बजाते-जादू चमत्कार देखने, शारीरिक, मानसिक रोगों का इलाज करा लेने, आपत्ति से बचकर कुछ समय दिन काटने जैसी उथली मनःस्थिति के एक भी व्यक्ति को प्रवेश नहीं मिलेगा। क्योंकि उनकी आतुरता प्रकारान्तर से अर्ध-विक्षिप्तता उत्पन्न किये रहेगी और वे साधना का महत्व न समझकर किसी प्रकार अपना लौकिक मनोरथ पूरा करने का ताना-बाना बुनते रहने में निरत रहेंगे। फलतः मूल प्रयोजन की दिशा में एक कदम भी बढ़ सकना उनके लिये सम्भव न हो सकेगा। ऐसी दशा में साधकों को ही नहीं, साधना विज्ञान को भी इसके आयोजकों को भी अपयश का भागी बनना पड़ेगा। इस कटु तथ्य को आरंभ से ही ध्यान में रखकर गायत्री तीर्थ के साधना उपक्रम की रूपरेखा बनाई गई है।

हर साधक को एक कमरे में रहने का नियम रहने के कारण प्रस्तुत स्थान बहुत सीमित रह जाता है। जिन्हें आश्विन नवरात्रि के शुभारम्भ पर्व पर प्रवेश पाना हो, उन्हें तुरन्त अगले किसी महीने के लिये आवेदन-पत्र भेज कर अभी से स्थान सुरक्षित करा लेना चाहिये।


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