“ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” का तत्व-दर्शन

August 1981

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चिन्तन में संव्याप्त अनेकानेक भ्रान्तियों में से एक है- दर्शन सम्बन्धी भ्रान्तियाँ। किसी भी देश एवं समाज की सर्वांगीण प्रगति इसी बात पर निर्भर करती है कि प्रचलित दर्शन व्यक्ति एवं समाज के विकास में कितना सहायक है। भारतीय दर्शन को विश्व दर्शनों में जो सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है, वह अकारण नहीं है। वेदान्त एवं उपनिषदों में मानव ही नहीं समस्त प्राणि-मात्र के लिए जो उदात्त भाव मिलता वह अन्यत्र दुर्लभ है। प्रकृति, जीव, ब्रह्म, सृष्टि आदि का गूढ़ वर्णन एवं उनके आपसी सम्बन्धों का विवेचन, विश्लेषण इतना सुन्दर विश्व के किसी भी धर्म ग्रन्थ में नहीं मिलता। ज्ञान एवं उदात्त भावों के इस सागर में डुबकी लगाने के बाद मैक्समूलर जैसे विद्वान के उद्गार इस प्रकार फट पड़े “विश्व जब कभी भी अंतरतम शान्ति एवं सन्तोष की खोज करेगा, उसे भारतीय दर्शन का ही अनुशीलन करना होगा।” यह दार्शनिक चिन्तन की ही विशेषता थी। जिसके अध्ययन ने ‘दारा शिकोक’ जैसे मुसलमान को मदमस्त-दिव्य आनन्द से सराबोर कर दिया।

विश्व दर्शनों में अग्रणी वेदान्त एवं उपनिषद् के सिद्धान्त सनातन, सार्वभौम एवं चिरन्तन हैं। मनुष्य के लौकिक एवं इहलौकिक-भौतिक एवं आध्यात्मिक विकास के सारे आधार उनमें विद्यमान हैं। इतने पर भी उनकी उपयोगिता एवं सार्थकता तभी है जब कि समाहित तथ्यों को ठीक प्रकार समझा एवं अपनाया जाय। अन्यथा लाभ के स्थान पर हानि ही उठानी होगी।

ऋषियों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जो कुछ भी सत्य का उद्घाटन किया वह सूत्र रूपों में आबद्ध कर दिया है। अधिक व्याख्या एवं विवेचना की उन दिनों आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। सत्य बुद्धि द्वारा नहीं, साधना प्रयासों द्वारा अनुभव किया जाता था। फलतः भटकाव की भ्रान्ति की सम्भावना नहीं रहती थी।

बौद्धिक विकास के साथ उन दार्शनिक सूत्रों की व्याख्या-विवेचना की आवश्यकता पड़ी। इस प्रयास में भ्राँतियों का भी समावेश हुआ। उदाहरणार्थ- ‘‘ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या।” अर्थात् ब्रह्म सत्य है और समस्त संसार मिथ्या है- माया है। सिद्धान्त की दृष्टि से यह सत्य है, किन्तु पिछले दिनों इसे समझने में भारी भूल हुई है। ऋषि इस तथ्य से परिचित थे कि परिवर्तनशील संसार एवं सम्बन्धित वस्तुओं का जो स्वरूप दिखायी पड़ता है वह वास्तविक नहीं है। अस्तु, उनके प्रति आसक्ति का न होना ही श्रेयस्कर है। वस्तुनिष्ठ आकर्षणों को समाप्त कने की दृष्टि से उन्होंने उक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन किया न कि संसार को मिथ्या मानकर उसके अस्तित्व को ही अस्वीकार करने के लिए।

भौतिक शरीर चेतना की शक्ति से गतिशील है किन्तु इस सत्य के साथ यह तथ्य भी अनिवार्य रूप से जुड़ हुआ है कि चेतना का परिचय इस शरीर द्वारा ही मिलता है। ज्ञातव्य है कि शरीर अपने लिए पोषण एवं विकास के लिए साधन इस संसार से ही प्राप्त करता है। अतएव साधन एवं उनके स्त्रोत जगत की महत्ता, उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। तार्किक दृष्टि से भी यह बात गले नहीं उतरती। यदि यह संसार मनुष्य के लिए निरुपयोगी है, तो व्यर्थ में परमात्मा ने उसके रचने में इतना झंझट क्यों मोल लिया। यह सर्वमान्य तथ्य है कि साधनों के अभाव में जीवन लक्ष्य को प्राप्त करना तो दूर रहा जीवित रह पाना भी सम्भव न हो सकेगा। विरक्त संन्यासी हो अथवा गृहस्थ, बाल हो या वृद्ध, नर हो या नारी हर किसी को न्यूनतम निर्वाह के लिए साधन चाहिए। कन्दराओं, गुफाओं अथवा हिमालय के शिखरों पर कठोर साधना में रत साधकों को भी प्रकृति के भण्डार से जीवित रहने के लिए कुछ न कुछ भोज्य पदार्थ के रूप में ग्रहण करना पड़ता है। अस्तु, यह निर्विवाद सिद्ध होता है, हर व्यक्ति को निर्वाह के लिए न्यूनतम साधन चाहिए।

ब्रह्म सत्य है इसकी अनुभूति तब तक नहीं हो सकती जब साधक विषय-वासनाओं में लिप्त है। अभ्यास के लिए- विषय वासनाओं के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने के लिए “ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या” के सिद्धान्त को मानकर चलना होता है। किन्तु अभ्यास के उपरान्त “सर्व खिल्विदं ब्रह्म” को ही व्यावहारिक एवं तात्विक दृष्टि से उपयोगी मानना पड़ता है। वह परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है- जड़ चेतन सबमें समाया हुआ है। जड़-चेतन ही हलचल उसी से अभिप्रेरित हैं। अतएव दृश्य जगत की भी परमात्मा का स्थूल स्वरूप मानकर- सत्कर्मों में निरत रहकर उसे अधिकाधिक सुन्दर बनाना भी प्रकारान्तर से उस ब्रह्म की ही उपासना, अभ्यर्थना है। इस राजमार्ग द्वारा परमात्मा की अनुभूति कहीं अधिक सुगम है।

“जगत मिथ्या है” यह धारण व्यक्ति एवं समाज दोनों ही के लिए अहितकर है। शरीर मिथ्या-जगत मिथ्या-सभी वस्तुएं मिथ्या। निस्सन्देह यह मान्यता व्यवहार में जड़ता को जन्म देगी। इस विश्वास के आधार पर कर्मों से विरत होकर परमात्मा की खोज करना, ब्रह्म की अनुभूति करना सम्भव नहीं है। जीवन का अस्तित्व कर्म पर टिका हुआ है। कर्म के बिना तो एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता। संन्यास परम्परा में कर्मों से निवृत्त होने का विधान है। जिसका लक्ष्य है कि अब तक जो आसक्ति बनी हुई थी उसे ताड़ दिया जाय जो कुछ भी किया जाये समस्त विश्व के कल्याण को दृष्टि में रखकर। न कि कर्म करना ही छोड़ दिया जाय। यदि प्रयोजन यह रहा होता तो शंकराचार्य, विवेकानन्द, दयानन्द जैसे मूर्धन्य संन्यासी जीवन पर्यन्त सत्कर्मों में निरत न रहते अपितु वे किसी कन्दरा में बैठकर ब्रह्म का अवगाहन चिन्तन-मनन कर रहे होते। उनके जीवन चरित्र का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि संन्यास लेने के बाद तो उनके कर्मों में और अधिक प्रखरता एवं गति आयी। अपनी अल्पायु में वे मानव जाति के लिए इतना कर गये जितना कि कोई भी व्यक्ति अपने दीर्घ जीवन में भी नहीं कर पाता।

जीवन मुक्त भी लोक-मंगल के लिए सत्कर्मों में निरत रहते हैं। उनका एक-एक क्षण श्रेष्ठ कार्यों में नियोजित रहता है। निस्सन्देह संसार को माया मानकर कर्म को त्याग बैठना एक प्रकार का पलायनवाद है जो विरक्ति का नहीं जड़ता का परिचायक है। जिसके रहते साधना मार्ग पर एक कदम भी आगे बढ़ सकना सम्भव नहीं। पूर्णता- ईश्वर प्राप्ति की बात तो बहुत दूर की है। कर्मवाद का समर्थन हमारे धर्म ग्रन्थों में पग-पग पर मिलता है। “ईशावास्योपनिषद्” का सन्देश है-

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं सभाः। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥

अर्थात्- “श्रेष्ठ कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीवित रहने की इच्छा रखनी चाहिए। ऐसा करते रहने से मनुष्य कर्म बन्धन से मुक्त हो जाता है।”

जब सृष्टि के संचालन, सुनियोजन जैसे गुरुत्तर कार्य में ईश्वर तक को निरन्तर कर्म में रत रहना पड़ता है तो मनुष्य को कर्म से विरत रहना अविवेकपूर्ण है। यह संसार ईश्वर की कृति है, जिसको गढ़ने में उसने अपनी समस्त कलाकारिता उड़ेल दी है। उसका सौंदर्य प्रकृति में झाँकता दिखायी पड़ता है। अंतर्दृष्टि से देखा जाय तो वह हर वस्तु में रमण करता, हलचल भरता दिखायी पड़ सकता है। उसके सौंदर्य का दर्शन करना एवं इस संसार को और भी अधिक सुरम्य सुन्दर बनाने में संलग्न रहना ही ‘निष्काम कर्मयोग है।’ यह बन पड़ा तो इसी दृश्य संसार में रहते हुए कर्म करते हुए भी उस परमात्मा का दर्शन कर सकना सम्भव है।

निष्काम भाव से किया हुआ कर्म न तो आत्मा को बांधता है और नहीं उसे मलीन करता है। ऐसी स्थिति में जब कर्म का वास्तविक क्षेत्र जीवन मुक्ति का माध्यम यह दृश्य संसार है तो उसे मिथ्या चलना अविवेकपूर्ण है। अस्तु, ब्रह्म सत्य है तो उस तक पहुँचने के लिए जगत को भी सत्य मानना होगा।


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