धरती की चुम्बकीय शक्ति से खिलवाड़ न करें

August 1981

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

अपनी इस धरती की असमर्थता एवं संपदा को पर्यवेक्षकों ने अनेक दृष्टियों से देखा और अनेक कसौटियों पर परखा है। उन निष्कर्षों में एक यह भी है कि धरती एक विशालकाय चुम्बक है। उसकी संरचना भर रासायनिक पदार्थों से हुई है। हलचलों के मूल में उसकी चुम्बकीय क्षमताएँ ही विभिन्न स्तर की हलचलें करतीं और एक से एक बढ़े-चढ़े चमत्कार प्रस्तुत करती हैं।

अणु शक्ति में परमाणु का नाभिक ही ऊर्जा-भण्डार माना जाता है। यह संचय धरती के प्रचण्ड चुंबकत्व का ही एक घटक है। जीवाणुओं के भीतर जो सचेतन क्षमता काम करती है उसे भी संव्याप्त चेतना का अंशधारी कहा गया है। यह समर्थता और चेतना दोनों ही उस चुंबकत्व की दो गंगा-जमुना धाराऐं हैं जिनके संयोग से धरती का वातावरण, सौंदर्य, वैभव और उल्लास से भरा पूरा बना रहता है।

लन्दन विश्वविद्यालय के किंग्स कालेज के प्रो. जॉन टेलर और फ्रांसिस हिचिंग ने मिलकर एक पुस्तक लिखी है- “अर्थ मैजिक”। उसमें उन्होंने सिद्ध किया है कि धरती पर दृष्टिगोचर होने वाली अगणित हलचलें जादू, चमत्कार जैसी प्रतीत होती हैं। उनके मूल में पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति ही काम करती है। यह यदि घटने-बढ़ने लगे तो उसके परिणाम प्रस्तुत व्यवस्था में असन्तुलन उत्पन्न करेंगे और भयावह परिणाम उत्पन्न होंगे।

वैज्ञानिक शोध संस्था ‘नासा’ के अंतर्गत चलने वाले अनुसंधान केंद्रों ने प्रामाणित किया है कि धरती पर कारणवश होने वाले चुम्बकीय परिवर्तन ही सृष्टि के इतिहास क्रम में अनोखे और अप्रत्याशित अध्याय जोड़ते रहे हैं। भविष्य में यदि कभी कोई असाधारण उथल-पुथल होगी तमो उसका मूलभूत कारण एक ही होगा- धरती में चुम्बकीय प्रवाही में उथल-पुथल, उलट-पलट।

समग्र पृथ्वी तो एक विशाल चुम्बक है ही किन्तु उसका उभार क्षेत्र विशेष में न्यूनाधिक भी पाया जाता है। इसका प्रभाव उन स्थानों के पदार्थों और प्राणियों पर पड़ता है। उनकी आकृति और प्रकृति में जो अन्तर पाया जाता है। उसमें अन्य कारण उतने प्रबल नहीं होते जितने कि स्थान-स्थान पर पाये जाने वाले चुम्बकत्व के दबते-उभरते प्रवाह। इस दृष्टि से वे विभिन्न प्रयोजनों के लिए विभिन्न क्षेत्रों की उपयोगिता सिद्ध करते हैं। जो कार्य एक स्थान पर नहीं हो सकता या कठिन पड़ता है वह दूसरे उपयुक्त स्थान पर स्वल्प प्रयास से ही सरलता पूर्वक सम्पन्न हो सकता है।

पृथ्वी की चुम्बकीय शक्ति क्षेत्र विशेष के आधार पर ध्रुव प्रदेशों में सबसे अधिक पाई जाती है और ‘रिओडी-जानीरो’ क्षेत्र में न्यूनतम आँकी गई है। विलक्षणता एक और भी है कि यह सदा किसी स्थान पर एक जैसी नहीं रहती, उसमें कारणवश परिवर्तन होता रहता है।

पिछले दिनों वारमूडा त्रिकोण क्षेत्र में अनेकों अद्भुत घटनाएं घटी हैं। उस क्षेत्र से गुजरने वाले जलयान एवं वायुयान इस प्रकार अदृश्य हुए हैं कि बहुत खोजने पर भी उनका कुछ भी अता-पता न मिल सका। विज्ञजनों का कहना है कि उस क्षेत्र में चुंबकीय विलक्षणता ही ऐसे उपद्रवों के लिए उत्तरदायी है। इस दृष्टि से वह क्षेत्र सर्वथा अनोखा और विलक्षण है। वहाँ चित्र-विचित्र प्रकार के चुंबकीय भँवर पड़ते रहते हैं।

प्रसिद्ध डच भूगर्भ शास्त्री प्रो. सोल्को डब्ल्यू. ट्राम्प ने ‘साइकिकल फिजिक्स’ पुस्तक में विभिन्न प्रयोग परीक्षण करके यह लिखा है कि पृथ्वी अगणित विशेषताओं और धाराओं से भरे-पूरे चुम्बकत्व से भरी-पूरी है। वैज्ञानिक उपलब्धियों में प्रकारान्तर से इसी क्षमता के स्त्रोतों का खोजा और प्रयोग में लाया गया है। इसका समर्थन ‘फ्रेंच एटामिक एनर्जी कमीशन’ के सदस्य ‘इकोले नारमल और अमेरिका के सुरक्षा-विभाग एवं अर्कन्सास विश्वविद्यालय के ‘डा. जाबोज हारवलिक’ ने भी किया है। डा. जाबोज ‘अमेरिकन सोसायटी ऑफ डाउसर्स’ के प्रमुख हैं।

अमेरिका के ‘सिविल ऐवियेशन बोर्ड’ की ‘ऐक्सीडेन्ट इन्वेस्टीगेशन रिपोर्ट’ में बताया गया है कि वारमूडा क्षेत्र में जाने वाले हवाई या जल जहाज के चालकों को कभी-कभी- दुर्घटना का पूर्वाभास हो जाता है। डा. जाबोज हारवलिक ने अनुसंधान करके पता लगाया है कि इस स्थान विशेष से गुजरने पर मस्तिष्क की ‘पीनियल ग्रन्थि’ पर चुम्बकीय परिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ता है। इस परिवर्तन से ‘सीरोटोनिन’ नामक हारमोन पैदा होता है। जो मानसिक विक्षिप्तता पैदा कर देता है।

वारमूडा क्षेत्र अटलाँटिक महासागर के मध्य आता है। ‘एडगर केयसी’ नामक प्रसिद्ध व्यक्ति, जो ‘स्लीपिंग प्राफेट के नाम से जाने जाते हैं का कहना है- ईसा से 50,000 वर्ष पूर्व अटलाँटिक महासागर में एक बड़ा भूखण्ड था जहाँ पर ‘अटलाँटियन’ सभ्यता का विकास हुआ था। उस सभ्यता ने तकनीकी साधन जैसे- टेलीविजन, एक्स-रे, लेसर बीम और ऐन्टीग्रेविटी यन्त्र आदि का विकास कर लिया था लेकिन इन साधनों का दुरुपयोग करके अपना विनाश कर लिया। यह विनाश ईसा से 28,000 वर्ष पूर्व हुआ था। इस सभ्यता के बचे हुए लोगों ने ‘मय’ और ‘मिश्र’ संस्कृति का विकास किया। मिश्र में जैसे विशालकाय पिरामिड बने हैं उसी प्रकार के विशालकाय पिरामिडों के अवशेष वारमूडा क्षेत्र में पाये जाते हैं। मिश्र के ‘चोलुला’ नामक पिरामिड में लगे पत्थरों का आयतन 3,88,20,000 घन गज है।

सन् 1940 ई॰ में एडगर केयसी ने भविष्य कथन किया था कि भूकम्प के माध्यम से अटलांटिक महासागर में पुरानी सभ्यता के द्वीप समूह 1968 में ऊपर आने लगेंगे। 1968 में बहुत से गोताखोर, मछली पकड़ने वालों ने छिछले पानी में दीवारें, सड़कें और प्लेट फार्म देखे। यह भविष्य कथन बिल्कुल सच निकला।

एडगर केयसी के अनुसार ‘अटलांटिक’ सभ्यता का विस्तार ‘सरगोसा’ समुद्र से ‘एजोर्स’ तक है। रूस के प्रसिद्ध भूगर्भ शास्त्री डा. मेरिया क्लिनोवा ने ‘एकेडेमी ऑफ साइन्स ऑफ यू. एस. एस. आर.’ की ओर से प्रस्तुत की गई रिपोर्ट में भी इसका समर्थन किया है कि इन चट्टानों के साथ किसी पुरातन सुविकसित सभ्यता का इतिहास जुड़ा हुआ है।

‘केयसी’ के अनुसार इस सभ्यता के लोगों ने सूर्य शक्ति का नियंत्रण करके आधुनिक लेसर किरणों जैसे ‘जादुई आग के पत्थर’ बना लिये थे। इनसे निकलने वाली किरणें आँखों से देखी नहीं जा सकती थीं परन्तु उनकी प्रतिक्रिया पत्थरों पर होती थी। पत्थरों से ऐसी शक्ति निकलती थी जो जमीन पर चलने वाले वाहन पानी के ऊपर व भीतर तथा हवा में चलने वाले वाहनों पर भी अपना प्रभाव डाल सकती थी।

केयसी के कथनानुसार अटलाँटियन सभ्यता के लोग ‘ऐन्टीमैटर’ के हथियार प्रयोग करते थे। उन्होंने यह भी बताया कि वे लोग सूर्य शक्ति से ऐसी ऊर्जा पैदा कर सकते थे जो परमाणु का विखण्डन कर सकती और उसी के दुरुपयोग से वह सभ्यता विनष्ट हो गई। केयसी के कथन का समर्थन लन्दन के प्रसिद्ध वैज्ञानिक ‘पैट्रिक स्मिथ’ ने भी किया है जो पिरामिड चित्र लिपि के अच्छे ज्ञाता हैं। स्मिथ के अनुसार अटलाँटिक सभ्यता के उत्तराधिकारियों ने मैक्सिको, पेरू और मिश्र में पिरामिड बनाए हैं। इन पिरामिडों की बनावट में पुनर्जन्म, आत्मा की अमरता, अनन्तता आदि सिद्धान्तों को शिल्पाकार दिया गया है। उन्हें ज्योतिर्विज्ञान का गहरा ज्ञान था- ऐसा पिरामिडों से पता चला है। ‘चीजेन ईजा’ नामक पिरामिड में पत्थरों की ऐसी रचना बनाई गई है कि सूर्य की किरणें सर्पाकार मार्ग से पिरामिड के मूल में बने सर्प के मुख जैसी आकृति में पहुँचती हैं। वर्ष में दो बार सूर्य की किरणें बसन्त और शरद् ऋतु में इस पिरामिड के सर्पाकार मार्ग में चढ़ती उतरती देखी जाती हैं।

मिश्र के ‘चेफ्रैन’ नामक विशाल पिरामिड में किसी गुप्त रहस्य का उद्घाटन करने के लिए ‘यू. एस. ए.’ और ‘यूनाइटेड अरब रिपब्लिक’ संयुक्त प्रयास कर रहे हैं। प्रसिद्ध नोबेल पुरस्कार विजेता डा. लुइस अल्वेरिज और एजिप्ट के प्रसिद्ध डा. अमर गोनेड इस पर शोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि पिरामिडों की रचना ऐसी है कि विज्ञान एवं इलेक्ट्रॉनिक्स के कोई सिद्धान्त काम नहीं आ रहे हैं। उसमें कोई ऐसा रहस्य छिपा है जो इन दिनों की विदित वैज्ञानिक नियमों की व्याख्या के परे है। घटना परक तथ्यों से पता चलता है कि पिरामिड बनाने वाले इस सिद्धान्त से परिचित थे कि पदार्थ को ऊर्जा में बदला जा सकता है।

वैज्ञानिकों की मान्यता है कि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण बल के क्षेत्र का कोई सूत्र इन पिरामिडों की रचना में छिपा है। ये पिरामिड बिल्कुल ठीक उसी स्थान पर बने हैं जो धरती का केन्द्र है। प्रत्येक पिरामिड की सतहें समबाहु त्रिभुजाकार हैं। सदियों से प्रेतों का आह्वान करने वाले और देवताओं का आह्वान करने वाले कर्मकाण्डी समबाहु त्रिभुजों का उपयोग करते देखे जाते हैं। आज के प्रसिद्ध ‘आकल्टिस्ट’ फास्ट, एलीस्टर, क्राडली आदि की मान्यता है कि इन त्रिभुजों की परिधि कभी अन्य लोकवासियों को बुलाने का माध्यम रही होगी।

इन दिनों पृथ्वी की वायु, जल स्थिति, उर्वरता, खनिज सम्पदा एवं शक्ति का औद्योगिक तथा वैज्ञानिक प्रयोजनों के निमित्त व्यतिरेक किया जा रहा है। फलतः इन सभी क्षेत्रों में प्रदूषण, विकिरण बढ़ रहा है। इस बढ़ती विषाक्तता से उत्पन्न होने वाले भावी संकट से सभी चिंतित हैं। इस चिन्ता में सूक्ष्मदर्शी वैज्ञानिकों ने एक कड़ी और जोड़ी है कि पृथ्वी के सुव्यवस्थित चुम्बकत्व के साथ खिलवाड़ न की जाय। यह तथ्य बहुत समय पूर्व ही माना जा चुका है कि यदि पृथ्वी की सही धुरी का पता लगाया और उस पर कस कर एक घूंसा लगाया जा सके तो इतने भर से परिभ्रमण पथ में भारी अन्तर हो सकता है और उसकी समूची परिस्थितियों में भारी अन्तर ही नहीं महाविनाश का संकट भी उत्पन्न हो सकता है। चुम्बकत्व की निश्चित दिशाधारा में व्यतिरेक उत्पन्न होने के परिणाम कितने भयावह हो सकते हैं इसे उपरोक्त निर्धारण से भली प्रकार माना जा सकता है।

वृत्रासुर, हिरण्याक्ष, सहस्त्रार्जुन, रावण, कुम्भकरण जैसे अनेक वैज्ञानिक बने। सब प्रकृति से छेड़खानी करने पर अपने और असंख्यों के लिए विपत्ति खड़ी कर चुके हैं। पिरामिड काल से पूर्व की मय-सभ्यता भी उसी उद्धत आचरण से विनाश के गर्त में गई। इन दिनों उन्हीं प्रयोगों की पुनरावृत्ति चल रही है। इसका परिणाम क्या हो सकता है उसे अनुभव करके देखने की अपेक्षा यह अच्छा है कि पूर्ववर्ती इतिहास से कुछ सीखा और विनाश में कूदने से बचाया जाय। इन दिनों प्रकृति पर अधिकार करने की वैज्ञानिक महत्वाकाँक्षाएं धरती के चुम्बकत्व को डगमगा सकती हैं और ऐसे भविष्य की विभीषिका उत्पन्न कर सकती हैं जिससे उबरना कदाचित फिर कभी भी सम्भव न हो सके।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118