सब ही नहीं जला करते हैं, दीपक को ही जलना होगा, सब ही नहीं चला करते हैं, चरणों को ही चलना होगा॥
अन्धकार से भरी निशा में, प्रायः सब ही रह लेते हैं। और निशा के अन्धकार को, प्रायः सब ही सह लेते हैं॥ कोई नहीं दिखाता साहस, अन्धकार से टकराने का। हर जन अभ्यासी होता है, अन्धकार में सो जाने का॥
दीपक में ही टीस उठा करती है-अन्धकार पीने की, दीपक जैसा दर्द हमें भी अपने उर में भरना होगा॥
कई मंजिलें रही अछूती, जहाँ न कोई पहुँच सका है। बड़े-बड़े मनसूबे वालों का साहस भी चुका, रुका है॥। कितने ही हैं ऐसे, जिनको मंजिल से कुछ नहीं वास्ता। मंजिल तक पहुंचाने वाला जिन्हें पता तक नहीं रास्ता॥
लेकिन चरणों की होती है राहों, से ही रिश्तेदारी, रहें नहीं मंजिलें कुआंरी, हमें चरण ही बनना होगा॥
आज मनुज के घर आँगन में अन्धकार है घोर-निशा है। मानवता भटकी-भटकी है, उसे न दिखती उचित दिशा है॥ समझौता कर लिया मनुज ने अन्धकार से और अगति से। कौन बचाये मानवता को ऐसे में बोलो दुर्गति से॥
दीपक की, चरणों की पीड़ा शेष रही हो जिन प्राणों में, तिल-तिल जलना होगा उनको, पथ की ठोकर सहना होगा॥
चलो! प्राण-दीपक में अपने, ज्ञान-यज्ञ की ज्योति जलावें। जन मानस के अन्धकार को, आओ! साहस कर पीजावें॥ साहस के चरणों की गति दें, जन-मंगल पथ पर बढ़ने की। हिम्मत दें- ठोकर सहने की, बाधाओं पर भी चढ़ने की॥
नव युग के आगमन-क्षणों में, नवयुग का स्वागत करने को, प्राणों की वर्त्तिका जलाकर, हमें आरती करना होगा॥
‘नव-युग’ का निर्माण आज तो सृजन सैनिकों को करना है। ‘युग-परिवर्तन’ के चरणों को, परिवर्तन पथ पर बढ़ना है॥ ‘ज्ञान-यज्ञ’ की लिये मशालें, लड़ना है अज्ञान तिमिर से। सद्-विचार का, सद्भावों का वातावरण बनायें फिर से॥
मनुजों के इस धरा-धाम पर करना होगा ‘स्वर्ग-अवतरण’, मनुजों में ‘देवत्व-उदय’ हित, सदाचार को बढ़ना होगा॥
*समाप्त*