अभिशप्त वस्तुओं से उत्पन्न संकट

August 1981

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सत्कर्मों एवं दुष्कर्मों का प्रभाव न केवल मनुष्य के ऊपर पड़ता है, वरन् वस्तुओं एवं समीपवर्ती वातावरण पर भी पड़ता है। कर्मों के सूक्ष्म संस्कार वातावरण में बने रहते और संपर्क में अनेक वाले व्यक्तियों पर असाधारण प्रभाव देखे गये हैं। चिन्तन एवं कृत्य किस प्रकार स्थान एवं वातावरण पर असर डालते हैं, इसकी परीक्षा की जा सकती है। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर में जाते अथवा निकट से होकर गुजरने पर मन को विशेष शान्ति मिलती है। बाजार, मेला, भीड़-भाड़ के कोलाहल में पहुँचने पर मन उद्विग्नता एवं अशान्ति से भर उठता है। कसाई खाने में पहुंचने पर हृदय उद्वेलित हो उठता है। घृणा उत्पन्न होती है। शीघ्रता से उस स्थान से निकल चलें, ऐसा मन करता है। नदी सरोवर के निकट बैठने पर मन प्रसन्नता से भर उठता है। तीर्थ स्थानों पर जाने से मन में श्रेष्ठ कार्यों-परमार्थ के प्रति उमंग उठने लगती है। यह उन स्थानों में विद्यमान ऋषियों के तप के फलस्वरूप सूक्ष्म संस्कारों की ही प्रतिक्रिया है जो वातावरण में अदृश्य रूप से मौजूद रहते तथा समीप में आने वालों को सत्कार्यों की ओर प्रेरित करते रहते हैं।

संत, महात्मा, महापुरुष जहाँ रहते हैं वह स्थान भी प्रेरणा का केन्द्र बिन्दु बनता है। उनकी वस्तु श्रद्धा की पात्र बनती तथा जीवित व्यक्तियों जैसी ही सूक्ष्म प्रेरणा एवं प्रकाश देने में समर्थ होती है। सद्विचारों एवं सत्कर्मों से संस्कारित वस्तुएँ अदृश्य प्रभाव डालती हैं तथा कल्याणकारी सिद्ध होती हैं। यह सत्पुरुषों के सत्कर्मों एवं सद्विचारों की ही परिणति है जो उस वातावरण पर सुसंस्कारों के रूप में छाई रहती तथा अदृश्य प्रेरणाएं प्रेषित करती रहती हैं। फलतः अनेकों व्यक्ति लाभान्वित होते हैं।

दुष्कर्मों का प्रभाव भी कालान्तर तक बना रहता है। वातावरण में विक्षोभकारी तत्व अधिक रहते हैं। वस्तुएँ अभिशप्त होती तथा संकट का करण बनती हैं। शास्त्रों की मान्यता है कि श्रेष्ठ आत्माएं अपने भौतिक जीवन के उपरान्त भी समीपवर्ती वातावरण में उपस्थित होकर प्रेरणा एवं प्रकाश देती रहती हैं। दुरात्माएं जीवनकाल में न तो स्वयं सन्तुष्ट रहती हैं, न ही दूसरों को शान्त बैठने देती हैं। मरणोपरान्त भी वह उसी प्रकार संकट उत्पन्न करती हैं जिस प्रकार जीवित बने रहकर। इसे वातावरण का प्रभाव माना जाय अथवा श्रेष्ठ या दुष्ट मृतात्माओं का आशीर्वाद-प्रकोप। इस विवादास्पद चर्चा में न भी उलझा जाय तो भी एक तथ्य सभी को मान्य है कि उक्त वातावरण में भले-बुरे कृत्यों का प्रभाव निरन्तर बना रहता है। सत्कर्मों का समर्थन एवं दुष्कर्मों से विरत रहने की आप्त प्रेरणाओं में, यही रहस्य सन्निहित है।

दुष्कर्मों के फलस्वरूप अभिशिप्त बनी वस्तुएं एवं सम्पदाएं किस प्रकार विक्षोभ उत्पन्न करतीं तथा संकट का कारण बनती हैं, इसका प्रमाण समय-समय पर मिलता है। ब्रिटिश म्यूजियम में रखी एक ममी अपने साथ ऐसी कहानी जोड़े हुए है। सन 1864 में अरब देश की एक खुदाई में उपरोक्त दुर्भाग्यशाली ममी मिली। आकर्षण से प्रभावित होकर ‘बाब सिसरों’ नामक एक पूंजीपति ने उसे खरीद लिया। दो माह के भीतर उसे व्यापार में इतना बड़ा घाटा हुआ कि वह अपने को सन्तुलित न रख सका। हृदय की धड़कन रुक जाने से वह मर गया। ममी की देख-रेख करने वाले दो नौकर भी बिना किसी रोग के बिस्तर पर सोये हुए मृत पाये गये। पूँजीपति का एक मात्र लड़का एक ट्रक दुर्घटना में घायल हो गया। उसके दोनों पैर काटने पड़े। अभिशिप्त जानकर घर वालों ने बिना कोई मूल्य लिए ममी को एक फोटोग्राफर को दे दिया। फोटोग्राफर जे. एस. सैम्सन ने अधिक कीमत प्राप्त करने के उद्देश्य से ममी का फोटो लेना चाहा जिससे विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए दे सकें। फोटो को साफ करने पर वह यह देखकर विस्मित रह गया कि उसमें मिश्र की अधेड़ महिला का स्पष्ट चित्र आ गया है। चित्र लेने के दूसरे दिन ही वह पागल हो गया तथा कुछ ही दिनों में मर गया। उसकी पत्नी ने परेशान होकर लन्दन स्थित ब्रिटिश म्यूजियम को ‘ममी’ को वापस सौंप दिया। ‘ममी’ को म्यूजियम में पहुँचाने वाले दो मजदूरों में से एक तो एक सप्ताह के भीतर मर गया, दूसरा कार दुर्घटना में हाथ पैर गवाँ बैठा।

म्यूजियम में पहुँचने के बाद भी अभिशिप्त ममी का प्रकोप कम नहीं हुआ। शहर की मशहूर फोटोग्राफर कम्पनी मैसर्स डब्ल्यू. ए. मैनसल ने इस ममी का चित्र लेने का प्रयास किया। उक्त कम्पनी मालिक का लड़का फोटोग्राफर को लेकर ममी का निरीक्षण करने आया। निरिक्षण के उपरान्त वापिस लौटते समय कार दुर्घटना में उसका एक हाथ टूट गया। इधर फोटोग्राफर का लड़का घर में खिड़की के पास बैठा था। इतने में खिड़की में लगा काँच अपने आप निकलकर उसके ऊपर गिर पड़ा। फलस्वरूप वह बुरी तरह घायल हो गया। फोटोग्राफर इन संकेतों को न समझ सका। दूसरे दिन म्यूजियम से उक्त ताबूत का चित्र खींचकर वह लौट ही रहा था कि कहीं दूर से एक काँच का टुकड़ा उसकी नाक में आकर टकराया। उसकी नाक कट गई। उक्त संकटों को देखकर म्यूजियम अधिकारियों ने उसका चित्र लेना ही वर्जित कर दिया।

इन घटनाओं को देखकर म्यूजियम के अधिकारियों ने ‘ममी’ के इतिहास का पता लगाने का कार्य पुरातत्व वेत्ताओं को सौंपा। पर्यवेक्षण करने पर मालूम हुआ कि ताबूत मिश्र की एक ऐसी महिला का है जो अथाह सम्पत्ति की मालकिन थी। अनैतिक कार्यों द्वारा उसने यह संपत्ति एकत्रित कर ली थी। जीवन के अन्तिम दिनों में कुछ व्यक्तियों ने उसके साथ षड़यंत्र करके संपत्ति को हड़प ली। वह विक्षिप्तावस्था में मरी। विशिष्ट सूत्रों द्वारा जानकारी मिली की वह ताबूत पहले भी अनेकों व्यक्तियों की मृत्यु का कारण बन चुका है। उसकी आत्मा निरन्तर ताबूत के साथ बनी रही। जो भी उसे छूटा अथवा छेड़छाड़ करने का प्रयत्न करता उसके कोप का भाजन होता।

ब्रिटेन के ही एक अपराधी के घर से एक ऐसा चित्र बरामद हुआ जो बिल्ली का था तथा नीले पेपर पर काले चाक से बनाया हुआ था। ध्यान से देखने पर इस अस्पष्ट चित्र में खूँख्वार जानवर की आँखें चमकती दिखाई पड़ती थीं। सर्वप्रथम वन विभाग के एक अधिकारी ने उसे प्राप्त किया। उसे अपने शयन कक्ष में उसने लगाया। अभी कुछ ही दिन बीते होंगे कि वन अधिकारी ने आत्म-हत्या हर ली। चित्र आकर्षक था, पर उसे दुर्भाग्यशाली जानकर पत्नी ने काउंट अलेक्जेन्डर नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिया। जिसे उसने अपने ड्रेसिंग रूप में सजाया। काउंट अलेक्जेन्डर जब भी ध्यान से चित्र को देखता उसे दो हिंसात्मक आंखें घूरती दिखाई पड़तीं। एक दिन विक्षिप्तावस्था में उसने स्वयं को गोली मार ली।

तीसरा शिकार बना काउंट अलेक्जेन्डर के चित्र का युवा लड़का। दुर्लभ वस्तुओं को एकत्रित करने का शौक होने के कारण उस चित्र को वह अपने घर ले आया। चित्र को एक दिन वह ध्यान से देख रहा था। अचानक डरने लगा कि किसी व्यक्ति की खूनी आँखें उसे घूर रही हैं। असन्तुलन की स्थिति में उसने भी आत्महत्या कर ली। चौथा शिकार उस युवक का एक रिश्तेदार बना, जो कुशल चित्रकार था। चित्र की पेंटिंग बनाने के लिए वह उसे अपने घर ले आया। दूसरे दिन प्रातःकाल वह बिस्तर पर मरा पाया गया। इसके साथ ही वह रहस्यमय चित्र भी गायब हो गया।

जिस अपराधी के घर से उक्त चित्र बरामद हुआ उसकी विस्तृत जानकारी एकत्रित करने पर कई रोचक तथ्य सामने आए हैं इन्टेलीजेन्स डिपार्टमेन्ट के विवरण में वर्णन था कि वह रहस्यमय चित्र एक अपराधी गिरोह का कोई संकेत था। जिस घर से प्राप्त हुआ उसका मालिक उक्त गिरोह का सरदार था। वह चित्र उसे अत्यधिक प्रिय था तथा सदा अपने पास रखता था। उसके ऊपर अनेकों हत्याओं एवं अपराधों का आरोप दर्ज था।

ऐसी ही एक अभिशप्त प्रतिमा एटलाँटिक महासागर से प्राप्त हुई जिसने अब तक अनेकों व्यक्तियों की जानें ले ली हैं। इटली का एक जहाज द्वितीय विश्व युद्ध के समय उक्त सागर से होकर जा रहा था। नाविकों ने सागर की तंरगों के साथ कोई वस्तु बहती हुई देखी। जाल डालकर खींचने पर वह काठ की एक आदमकद युवती की प्रतिमा निकली। प्रतिमा के जहाज पर आते ही नाविक एवं यात्री चारों ओर एकत्रित होकर देखने लगे। नारी सौंदर्य की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति उस काष्ट मूर्ति में हुई थी कि सभी मंत्रमुग्ध बने देखते रहे। प्रतिमा की लड़की की चौकी पर नाम अंकित था ‘एटलांश’। प्रतिमा पर आसक्त दो नाविक अपना सन्तुलन गंवा बैठे। उन्होंने अथाह समुद्र में छलांग लगा दी। नाव के कप्तान ने इस आकस्मिक घटना के फलस्वरूप प्रतिमा को केबिन में मजबूत ताले के भीतर बन्द कर दिया। इटली बन्दरगाह पर पहुँच कर जहाज के कप्तान ने प्रतिमा को निकटवर्ती अजायबघर को सौंप दिया। प्रतिमा में आकर्षण इतना अधिक था कि वहाँ भी दर्शकों की भीड़ जमा हो गयी। कितने ही व्यक्ति को देखकर पागल हो गये। जर्मन सेना के एक लेफ्टीनेन्ट ने 13 अक्टूबर 1944 को प्रतिमा के समक्ष सीने में गोली मार कर आत्म-हत्या कर ली। एक अन्य व्यक्ति ने भी इसी प्रकार गोली मार ली। अजायबघर के अधिकारियों ने यह स्थिति देखकर विचार किया कि उस प्रतिमा को हटा देना चाहिए। पर दुर्लभ एवं अनोखी कलाकृति होने के कारण उसे हटाया न जा सका। हाँ, अधिकारियों ने उसके प्रदर्शन पर रोक अवश्य लगा दी। प्रतिमा के कलाकार का नाम पता तो नहीं मालूम हो सका पर ऐसा अनुमान लगाया गया कि प्रतिमा किसी द्वीप के राजकुमारी की है। जो अपने समय की अद्वितीय सुन्दरी थी एवं यौवनकाल में ही राजकीय दुष्चक्रों के कारण उसकी मृत्यु हो गयी थी।

सत्कर्म और दुष्कर्म अपने-अपने अनुरूप प्रभाव डालते हैं। व्यक्ति ही नहीं वातावरण और वस्तुएं भी प्रभावित होती हैं। मरणोपरांत भी दुरात्माएं उन वस्तुओं के इर्द-गिर्द मंडराया करती हैं। वस्तुएं अभिशप्त बनती हैं तथा समीप आने वाले व्यक्तियों अथवा प्रयोगकर्ताओं पर प्रहार करती हैं। उपरोक्त घटनाएं इसी तथ्य की पुष्टि करती है। दुराचारी स्वयं विक्षिप्त बना जीवन पर्यन्त अपने कुकृत्यों की आग में जलता रहता है और मरणोपरान्त भी विक्षोभ उत्पन्न करता है। जिसका परिचय इस प्रकार की घटनाओं के रूप में मिलता है। सत्कर्म की परिणति इस जीवन में सुख-समृद्धि, शान्ति और सन्तोष के रूप में होती है। लोकोत्तर जीवन भी शान्ति और सन्तोष से भरा होता है। अपने जीवनकाल में तथा उसके बाद असंख्यों व्यक्ति प्रेरणा प्रकाश ग्रहण करते हैं, जबकि अनाचारी, दुराचारी जीवित रहते हुए तो विक्षोभ उत्पन्न करते ही हैं। मरने के बाद भी शान्त नहीं बैठते और संकट उत्पन्न करते देखे जाते हैं। उनके प्रभाव से वस्तुएं तक अभिशप्त हो जाता हैं तथा उपरोक्त प्रकार के संकट खड़े करती देखी जाती हैं।


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