अन्तरंग दृष्टि की विलक्षण क्षमता

August 1981

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अभी तक समझा जाता था कि किसी वस्तु को देखने के लिए दो ही वस्तुएं आवश्यक हैं एक प्रकाश और दूसरी आँख। प्रकाश जब आँखों से टकराता है तो आँखों का ताँत्रिक तंत्र एक विशेष प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया का आयोजना कर सारी सूचनाऐं मस्तिष्क को भेजता है और दृश्य दिखाई देता है। यह विज्ञान की मान्यता थी। अब विज्ञान भी भारतीय दर्शन की इस मान्यता को स्वीकार करने लगा है कि प्रकाश और आँखों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण घटक है- मन। मन एक तीसरी और उपरोक्त दोनों से महत्वपूर्ण वस्तु है जो प्रकाश और आँखों के क्रिया-कलाप को अनुभव करता है तथा नई तरह की योजनाएं बनाता है, आदेश देता है और अनुभूति का संयोजन कर दूसरे अवयवों में विभक्त करता है।

सीधी-सी बात है जिसे हर कोई जान और अनुभव कर सकता है कि प्रकाश और आँख के रहते भी वह सब कुछ नहीं दिखाई देता है जो सामने प्रस्तुत रहता है। दिखाई पड़ने वाली वस्तु का दृश्य अनुभव तभी होता है जब मन का ध्यान उस ओर रहता है अन्यथा सैकड़ों दृश्य अपने आस-पास घटते रहते हैं, उनमें से प्रत्येक को न कोई देखता है और देखता भी है तो उसे अनदेखा कर न देता है। पुस्तक पढ़ते समय आंखों के सामने पूरा पृष्ठ रहता है। आँख पर पूरे पृष्ठ की छाया पड़ती है परन्तु मस्तिष्क तक वही अक्षर, वही पंक्तियाँ पहुँचती हैं जिन्हें पढ़ा जा रहा होता है अर्थात् जिन पर मन केन्द्रित रहता है। वही दृश्य दिखाई देते हैं, जिन तक मानसिक चेतना, मन की एकाग्रता केन्द्रित हो। कहते का आशय यह कि यदि मानसिक चेतना का प्रकाश न हो तो प्रकाश और आँखों के होते हुए भी देखना सम्भव नहीं है।

मानसिक चेतना को जागृत किया जा सके, उसे सशक्त तथा प्रखर बनाया जा सके तो वह सब कुछ भी देखा और जाना जा सकता है जो आँखों से देख पाना सम्भव नहीं होता या जिन्हें देखने में आंखें समर्थ नहीं होती। दूसरे शब्दों में इसे यों भी कहा जा सकता है कि दो स्थूल नेत्रों और दृष्टिवर्धन के अद्यावधि आविष्कारों की सम्मिलित उपलब्धियों से भी अधिक समर्थ और अधिक सक्षम एक तीसरा नेत्र मनुष्य के पास है। इस यन्त्र को न कहीं खरीदना पड़ता है और नहीं इसके संचालन की शिक्षा लेनी पड़ती है। योगशास्त्रियों ने आज्ञाचक्र भी कहा है और इसका स्थान भू-मध्य भाग बताया है। तीसरा नेत्र खोलने या आज्ञाचक्र जागृत करने के लिए विभिन्न साधना अनुष्ठानों का विधान है। उन्हें निष्ठापूर्वक सम्पन्न करते हुए वह अन्तर्ज्योति विकसित की जा सकती है जिसके माध्यम से लोक-लोकान्तरों की, भू-गर्भ की पंच भौतिक परिस्थितियों को देखा और समझा जा सके।

इतना ही नहीं इस नेत्र में वह शक्ति भी है कि जीवित प्राणियों की मनःस्थिति, भावना, कल्पना, योजना, इच्छा, आस्था एवं प्रकृति को भी समझा जा सके। यों सामान्य नेत्र भी अपने आप में अद्भुत हैं। उसकी संरचना भी इतनी विलक्षण है कि उसे देखते हुए आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। जिनमें प्रकाश दर्शन की रहस्यमय परतें सन्निहित हैं, मस्तिष्क के उन संस्थानों का विवेचन कर पाना भी विरलों के लिए ही सम्भव है और समझ पाना तो और भी कठिन है।

यहाँ चर्चा इन दोनों नेत्रों से भिन्न और उनसे भी विलक्षण तृतीय नेत्र की की जा रही है। मस्तिष्क के अग्र भाग में जकड़े हुए दो नेत्र तो सभी को दिखते हैं लेकिन उनके मध्यवर्ती अन्तराल में जो तीसरा नेत्र है उसका परिचय और अनुभव योगीजनों को ही मिल पाता है। दोनों भौंहों के मध्य भाग में जो बाल रहित स्थान है, उसे भृकुटि कहते हैं। उसके नीचे अस्थि आवरण के बाद एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि आती है। इसे आज्ञाचक्र का स्थान कहते हैं। स्मरण रहे यह ग्रन्थि आज्ञाचक्र नहीं है। जैसे शरीर आत्मा नहीं है। शरीर में रहते हुए भी आत्मा-चेतना का जिस प्रकार शरीर से भिन्न अस्तित्व है उसी प्रकार इस ग्रन्थि में होते हुए भी आज्ञाचक्र भिन्न बात है। इसका अस्तित्व माँस-मज्जा से बनी यह ग्रन्थि नहीं है अपितु वह तो सूक्ष्म अस्तित्व रखती है। फिर भी शरीर शास्त्र की दृष्टि से इस ग्रन्थि का कार्य और प्रयोजन अभी तक पूरी तरह नहीं समझा जा सका है। आत्म-विद्या के अन्वेषी ज्ञाता इसके महत्व और कार्य की विशेषता को बहुत पहले से जानते हैं।

इसे दिव्य दृष्टि का केन्द्र भी कहते हैं। दिव्य दृष्टि यहीं से निसृत होती है। भूमध्य भाग में अवस्थित इस तृतीय नेत्र के कई प्रमाण अब तक मिल चुके हैं। यों तो पुराण ग्रंथों में शिव और पार्वती के प्रसंगों में भी इस तृतीय नेत्र का उल्लेख आता है। कथा के अनुसार शंकर भगवान इसी नेत्र को खोलकर उसमें से निकलने वाली अग्नि द्वारा कामदेव को भस्म किया था। संजय ने महाभारत के सारे दृश्य इसी के माध्यम से देखे और धृतराष्ट्र को सुनाये। चित्रलेखा क्षरा प्रद्युम्न के प्रति उसे बिना देखे आकर्षित होना तथा उसके साथ प्रणय सम्बन्ध का संकल्प लेना इसी दिव्य दर्शन का ही परिणाम था। ये तो खैर पौराणिक घटनाएं हुईं, लोग इनकी विश्वसनीयता पर सन्देह भी कर सकते हैं। पर ऐसे ढेरों प्रसंग हैं जिनसे इस तृतीय नेत्र के अस्तित्व तथा उसकी क्षमता का परिचय मिलता है।

कुछ दिनों पहले रूस से प्रकाशित होने वाले वहाँ के प्रसिद्ध समाचार पत्र इजवेस्तिया में एक समाचार प्रकाशित हुआ था। जिसके अनुसार निझनी तागिल नामक स्थान पर रहने वाली ‘रोजा’ नामक युवती पंक्तियों पर उंगली चलाकर मामूली प्रेस में छपी पुस्तकें पढ़ लेती है। दुनिया के कई प्रतिष्ठित समाचार पत्रों ने इस युवती के प्रमाण सहित फोटो और विवरण प्रकाशित किये हैं। आश्चर्य तो यह है कि वह पुस्तकों में बने हुए किसी भी फोटो को बिना देखे, अंगुलियों से छूकर ही बता देती है कि यह फोटो किसका है। यदि वह चित्रित व्यक्ति के बारे में नहीं जानती है तो उसकी आकृति का वर्णन कर देती है कि यह अमूक तरह का व्यक्ति है, मूँछ दाढ़ी वाला है कि बिना दाढ़ी मूँछ का, ऐसे कान हैं, और अमुक पोशाक पहने हुए है।

फोटो कोई भी क्यों न हो, किसी भी व्यक्ति की हो, जानवर की, वस्तु की, इमारत की या किसी प्राकृतिक दृश्यावली की ‘रोजा’ उसके बारे में केवल छूकर ही बता देती है। यह कैसे सम्भव है? कहीं कोई धोखा या फ्राड तो नहीं है? वैज्ञानिकों ने यह जाँच करने के लिए रोजा की आँखों पर पट्टियां बाँधकर तथा उसके चेहरे को गले तक मास्क से ढक दिया, फिर भी रोजा ने अक्षरों को पहचान लिया और फोटो के विवरण भी बता दिये। इसके बाद वैज्ञानिकों ने प्रकाश में से ‘इन्फ्रारेड किरणें’ निकाला हुआ प्रकाश छपे हुए कागज पर डाला। रोजा ने उस कागज को भी पढ़ लिया। हाँ, यह जरूर हुआ कि रोजा इस स्थिति में आकृतियां नहीं पहचान पायी। लेकिन वैज्ञानिकों ने यह मान लिया कि आंखें ही नहीं, शरीर के अन्य अंगों में भी दृष्टि तत्व हो सकते हैं। वैज्ञानिकों ने बताया कि यह असामान्य स्थिति है और हम कह नहीं सकते कि शरीर में ऐसे तत्व और कहीं हैं या नहीं अथवा उन्हें विकसित किया जा सकता है अथवा नहीं? उन्होंने यह निश्चय भी व्यक्त किया कि प्रकाश को ग्रहण करने वाले तत्व अंगुलियों में कैसे आ गये? यह जानने के लिए बाकायदा अनुसंधान एवं प्रयोग किया जायेंगे।

यदि इस तथ्य को खोज निकाला गया तो ध्यान द्वारा प्रकाश कणों को आकर्षित करने तथा शरीर में अतींद्रिय ज्ञान की क्षमता उत्पन्न करने वाली भारतीय योग प्रणाली पूर्णतः विज्ञान सम्मत प्रामाणित हो जायेगी। रोजा के समान ही मिस्टीक प्रो. फोष्टान ने एक अन्धे फ्राँसीसी व्यक्ति का उल्लेख किया। वह व्यक्ति उंगलियों से छूकर ऐसा विवरण बताया करता था जो साधारणतः आँखों के बिना नहीं बताया जा सकता। कनाडा की एक अन्धी लड़की कहानियों के माध्यम से ऐसा चमत्कार प्रदर्शन करने में सक्षम थी। फ्राँस के प्रसिद्ध कवि जूल्स रोमेन्स उन दिनों परोक्ष दृष्टि विज्ञान में बड़ी दिलचस्पी थी। उन्होंने अपने साहित्यिक कार्यों के साथ-साथ इन विषयों में शोध की थी और बताया था अगणित नेत्र विद्यमान हैं जो स्पर्श संवेदना के द्वारा निकटवर्ती वस्तु के बारे में निरन्तर जानकारी संग्रहित करते रहते हैं। आँखों की तरह ये छोटे नेत्र वस्तुओं की आकृति भले ही स्पष्ट रूप से न जान सकें, पर उनकी प्रकृति के संबंध में नेत्र गोलकों की भाँति ही ज्ञान प्राप्त करते हैं।

भूमिगत अदृश्य वस्तुओं को देखने, भू-गर्भ में छिपी जलधार और अन्य वस्तुओं का पता लगाने वाले व्यक्तियों के समाचार आये दिन प्रकाशित होते रहते हैं। उस विद्या को रेण्डोमेन्सी कहते हैं। रेण्डोमेन्सी विज्ञान के द्वारा जमीन में दबे खनिज, रसायन, तेल आदि वस्तुओं का पता लगाया जा सकता है। केवल जल की तलाश करने वाली विद्या ‘वाटर डाउनिंग’ में तो कई लोग पारंगत हैं। आयरलैण्ड के विकलो पहाड़ी क्षेत्र में मीलों दूर तक कहीं पानी का नामोनिशान नहीं था। जमीन भी बहुत कड़ी और पथरीली थी। प्रो. वेनेट जो वाटर डाउनिंग में पारंगत थे, ने खदान विशेषज्ञों के आग्रह पर अपनी इस क्षमता का सफल उपयोग किया। वे कई घण्टों तक उसे क्षेत्र में घूमते रहे और अपने ढंग से उस स्थान पर परीक्षण करते रहे। अन्ततः वे एक स्थान पर रुके और कहा कि यहाँ केवल चौदह फुट गहराई पर एक अच्छा जल स्त्रोत है। खुदाई प्रारम्भ हुई और प्रो. वेनेट का कथन बिलकुल सच निकला। चौदह फुट तक खुदाई करने पर वहाँ पानी की एक जोरदार धारा उबल पड़ी।

पिछले दिनों गुजरात के चन्द्रवदन मेहता का नाम पत्र-पत्रिकाओं में काफी लोकप्रिय हुआ है। श्री मेहता ने बम्बई में अनेक प्रतिष्ठानों के आस-पास पानी का पता लगाकर इंजीनियरों को चकित कर दिया। कुछ समय पूर्व ब्लिट्ज ने फल्टण (महाराष्ट्र) के दानी नामक एक सज्जन का विवरण प्रकाशित किया था जो अब तक दस हजार स्थानों पर भूमि में छिपे जल का पता लगा चुका है। वे अपनी इस विशेषता के कारण इतने प्रसिद्ध हो चुके हैं कि लोग उन्हें ‘पानी महाराज’ के नाम से पुकारते हैं। उनकी सेवाओं का लाभ न केवल भारत सरकार वरन् इटली, जर्मनी, एवं चेकोस्लोवाकिया देशों की सरकारें भी उठा चुकी हैं।

यह सब सूक्ष्म शरीर की दिव्य दृष्टि, आज्ञाचक्र का ही चमत्कार है। इसकी मर्यादा और क्षमता बहुत बढ़ी-चढ़ी है। उसे समझने, विकसित करने और प्रयोग में लाने की क्षमता योगाभ्यास से ही उपलब्ध होती है। उपरोक्त व्यक्तियों के उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि आँखों से ही सब कुछ नहीं देखा जा सकता। आँखों के अतिरिक्त दूसरे अंगों, इन्द्रियातीत अवयवों में भी देखने समझने की क्षमता विद्यमान है। मस्तिष्क नेत्र गोलकों का फोटोग्राफी कैमरे जैसा प्रयोग करता है और पदार्थों के जो चित्र आँखों की पुतलियों के लैंस से खींचता है, वे मस्तिष्क में जमा होते हैं। इनकी प्रतिक्रिया के आधार पर मस्तिष्क के ज्ञान तन्तु जो निष्कर्ष निकालते हैं, उसी का नाम दर्शन है। आँख इसके लिए उपयुक्त माध्यम है।

समस्त विश्व में विद्यमान प्रत्येक पदार्थ अपने साथ ताप और प्रकाश की विद्युत किरणें संजोये हुए है। कम्पन लहरियों के माध्यम से वे पदार्थ अपना प्रवाह निखिल विश्व में फैलाते रहते हैं। ईथर तत्व के द्वारा वे किरणें, लहरियाँ दूर-दूर तक जा पहुंचती हैं। यदि उन्हें ठीक तरह से पकड़ा जा सके तो जो दृश्य बहुत दूर अवस्थित है, जो घटनाएं सुदूर क्षेत्रों में घटित हो रही हैं उन्हें भी निकटवर्ती वस्तुओं की तरह देखा जा सकता है। इन दृश्य किरणों को पकड़ने के लिए नेत्र उपयुक्त हैं, यह बात ठीक है। समीपवर्ती दृश्य नेत्रों के माध्यम से ही देखे जा सकते हैं और दूरवर्ती या अदृश्य दर्शन के लिए तृतीय नेत्र को- आज्ञाचक्र को प्रयुक्त किया जा सकता है। अपने भीतर की प्रकाश सत्ता को यदि योगाभ्यास द्वारा विकसित किया जा सके, तृतीय नेत्र को जागृत किया जा सके तो उसे भी बाहरी पदार्थों को बिना आँखों के भी देखा जा सकता है। भौतिक विज्ञान में टेलीविजन प्रक्रिया के द्वारा अन्यत्र का घटनाक्रम किसी अन्य स्थान पर यथावत् देखा जा सकता है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यन्त्र हमारे आज्ञाचक्र में मौजूद हैं और उसके सहारे वह सब कुछ देखा जा सकता है जो कहीं भी घटित हो रहा है अथवा घटित हो चुका है। इस शक्ति को अधिक विकसित कर लेने पर भविष्य की झाँकी भी उसी प्रकार मिल सकती है जिस प्रकार कि यन्त्रों द्वारा निकट भविष्य में आने वाले आंधी तूफान या मौसम बदलने सम्बन्धी जानकारी मिलती है।


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