मनःक्षेत्र की ढलाई-वास्तविक पुरुषार्थ

August 1981

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विचारों का अपना महत्व है और कार्यों का अपना। पर वे दोनों ही सामयिक और अस्थिर हैं। समयानुसार वे बादलों की तरह उछलते और गरज बरस कर समाप्त हो जाते हैं। इतने पर भी उन दोनों के संयुक्त प्रभाव से उत्पन्न हुई प्रतिक्रिया देर तक बनी रहती है। बादल बरस जाने का समय समाप्त हो जाने पर भी खेत में नमी बनी रहती है और देर तक अपने प्रभाव को बनाये रहती है। आवाज अन्तरिक्ष में गूँजती है, पर उसके कम्पन कुछ समय तक वातावरण में बने रहते हैं। इसी प्रकार जिन विचारों का कार्य रूप में परिणित होने का अवसर मिलता है, वे कर्ता के ऊपर एक देर तक ठहरने वाली छाप छोड़ जाते हैं। इसी को आदत कहते हैं। अध्यात्म की भाषा में इन्हें ही ‘संस्कार’ कहा जाता है। ये ‘संस्कार’ अपना प्रभाव सहज समाप्त नहीं करते अपितु मनःक्षेत्र में जड़ जमाकर बैठ जाते हैं। इसे ही ‘स्वभाव’ कहते हैं।

आदतें मनःक्षेत्र की संचित सम्पदा हैं। उनके सहारे जीवन का ढर्रा अपनी पटरी पर थोड़े से सहारे-इशारों भर से लुढ़कने लगता है। लट्टू एक बार घुमा देने पर देर तक अपनी धुरी पर घूमता रहता है। आदतों के सम्बन्ध में भी यही बात है। वे आरंभ में तो प्रयत्न-पूर्वक ही विनिर्मित होती हैं किन्तु पक जाने पर अपना ऐसा प्रभाव दिखाती हैं, मानो मनुष्य को उन्हीं के नियंत्रण में वशीभूत होकर रहना पड़ेगा। धीरे-धीरे वे अपने शिकंजे में इस प्रकार मनुष्य को कस लेती हैं कि उसे उनसे छट निकलने का मार्ग ही नहीं सूझ पड़ता। विवश असहाय-सा वह ढर्रे वाले प्रवाह में बहने लगता है।

‘नशेबाजी’ इसका अच्छा उदाहरण है। आदत पड़ जाने पर उसका टूटना कितना कठिन हो जाता है इसे सभी जानते हैं। अन्य दुर्व्यसनों के सम्बन्ध में भी यही बात है। उचक्के, उठाईगीरे बिना जरूरत के भी वैसी हरकतें करते रहते हैं। गाली बकने की आदत पड़ जाने पर अनजाने ही वह शब्दावली मुँह से मौके बेमौके निकलती रहती हैं।

अच्छी आदतें स्वभाव का अंग बन सकें तो समझना चाहिये कि प्रगति-पथ पर चल पड़ने और लक्ष्य तक पहुँचने की समस्या का आधा भाग हल हो गया। इसके विपरीत यदि उस प्रकार का ढर्रा न चला, स्वभाव न बना तो आदर्शवादी थोपाथापी पुरानी विकृत आदतों के टकराव में हार मानती और दुम दबाकर भागती दृष्टिगोचर होगी। स्वाध्याय और सत्संग से कई अच्छे निष्कर्ष निकलते हैं। सन्मार्ग पर चल पड़ने का सत्परिणाम भी समझ में आता है। कुछ करने की उमंग भी उठती है किंतु व्यवहार में कुछ वैसा बन नहीं पड़ता। पथ कठिन जान पड़ता है। सुविधा के सामान्य ढर्रे से विपरीत यह आदर्शवादी मार्ग रुचिकर लगते हुए भी अपनाते नहीं बन पड़ता। यदि कुछ शुभारम्भ किया भी तो अजीब-सा लगता है। संकोच होता है और उस नवीन निर्धारण का गले उतरना कठिन हो जाता है। इस असमंजस का एक ही कारण है पुरानी आदतों की प्रबलता। इसी कारण उबरने के मन्सूबे तेज हवा में उड़ने वाले तिनकों की तरह इधर-उधर बिखर जाते हैं और मनुष्य अभ्यस्त दुष्प्रवृत्तियों के सहारे पतन के गर्त में निरन्तर अधिक गहरा उतरता चला जाता है।

बुरी आदतों का अभ्यस्त होना सरल है क्योंकि उनका प्रचलन सर्वत्र पाया जाता है और अनुकरण करने के लिए वातावरण पहले से ही बना मिलता है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति किसी भी वस्तु को ऊपर से नीचे खींचती रहती है किन्तु कुछ भी उछालना हो तो उसके लिए अतिरिक्त शक्ति साधन जुटाने होंगे। इसी प्रकार अच्छी आदतें डालती हों तो उसके लिए उच्चस्तरीय विचारों को लगातार मनःक्षेत्र में प्रवेश कराते रहने, उत्कृष्टता की दिशा में चलते रहने के लिए निर्धारित कार्यक्रम बनाते एवं संकल्पपूर्वक क्रियान्वित करने होते हैं। इतना बन पड़ने पर ही सुसंस्कारों की वह पूँजी जमा होती है, जिसके सहारे सराहनीय प्रगति का सरंजाम जुट सके।


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