जंगल में वट के दो वृक्ष पास-पास लगे हुए थे। एक था खूब फैला-फूला हुआ और दूसरा था दुबला-पतला। मोटा वृक्ष बड़ा अहंकारी था। एक दिन वह दुबले वृक्ष से बोला- ‘भाई हम दोनों एक दिन ही उत्पन्न हुए और एक-सी जलवायु में पले। परन्तु तुम कितने दुबले पतले हो। न तुमने पृथ्वी से पर्याप्त रस ग्रहण किया, न मेघों से खूब जल लिया। सहमे, सिकुड़े से तुम खड़े रहते हो। मुझे देखो में आकाश में सिर उठाकर तन कर खड़ा हूँ।’
छोटा वृक्ष विनम्रता पूर्वक बोला- ‘मित्र, जंगल में अनेकों वृक्ष हैं। उन सभी को अपने पोषण की सामग्री चाहिए। यदि पृथ्वी का सारा रस में ही ले लूँगा, मेघों के जल का बहुत-सा अंश मैं ही ले लूँगा, सबसे अधिक वायु का उपयोग में ही करूंगा तो अन्य बेचारे क्या करेंगे। यही कारण कि मैं पृथ्वी से, वायु से, मेघों से थोड़ा अंश ही सोच विचार कर लेता हूँ। इससे मैं भले ही दुबला रह गया हूँ, पर मेरे और भाई तो जीवित हैं, स्वस्थ हैं, इसकी मुझे प्रसन्नता है।’
‘ओह तुम्हारा तो दृष्टिकोण ही विचित्र है।’ बड़े वट ने अहंकार में फूलकर कहा।
बड़ा वट धीरे-धीरे बढ़ता ही गया। पृथ्वी, सूर्य, वायु सभी से वह अधिकाधिक भाग लेने की चेष्टा करता। कुछ दिनों में वह इतना बड़ा हो गया कि आसमान ही छूने लगा। अब उसे अपनी शक्ति का अभिमान भी इतना हो गया कि किसी को कुछ समझता ही न था।
एक दिन बड़ी जोर का तूफान आया। छोटा वृक्ष सिर झुका कर खड़ा हो गया, परन्तु बड़ा वट अभिमान से तना खड़ा रहा। कुछ घंटों बाद जंगल के सारे पेड़ों ने पाया कि बड़ा वट जड़ से जमीन पर उखड़ा हुआ पड़ा था जबकि छोटा वाला आनन्द से वायु में झूम रहा था।
‘अहंकारी कभी सुख नहीं पता’ पीपल का पेड़ बोला।
‘दूसरों का भी हिस्सा छीनने वाले दुष्ट का नष्ट हो जाना ही अच्छा है’ नीम का पेड़ बोला। बबूल के पेड़ ने उसकी हां में हां मिलाते हुए कहा- ‘जो दूसरों के कुछ काम न आ पाये उसका जीना भी कोई महत्व नहीं रखता। उसका जीतना और मारना दोनों एक जैसे हैं।’