आनन्द का अक्षय भण्डार मानव-मन

August 1981

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मनुष्य शरीर अपने आप में परमात्मा की कलाकारिता एवं विलक्षणता का घोतक है। इतनी सुविकसित टेक्नोलॉजी वाली मशीन बना पाना तो दूर, इसी बनावट को विस्तार एवं कार्य विधि को समझ पाना भी सम्भव नहीं हो पाया है। साढ़े पाँच फुट लम्बे, औसतन साठ किलोग्राम वजनी मानव शरीर का एक-एक अवयव विलक्षणता से भरा हुआ है।

अपनी सारी विचित्रताओं के बावजूद अनेकानेक जीव जो इस सृष्टि पर पाये जाते हैं, मानव शरीर की बराबरी नहीं कर पाते। जो एक अन्तर इन दो कोटियों में स्पष्ट है, वह है इस काया के सिरमौर, केन्द्र बिन्दु मस्तिष्क का सक्रिय, समर्थ संवेदनशील एवं असीम सम्भावनाओं से भरा पूरा होना। देखने, नापने एवं मापने में छोटा-सा प्रतीत हो रहा यह मस्तिष्क रहस्यमयी क्षमताओं से सम्पन्न है। यही वह पॉवर स्टेशन है जिसके बन्द हो जाने से सारे शरीर रूपी कारखाने की गतिविधियाँ तुरंत ठप्प हो जाती हैं।

जितने हमारी आकाश गंगा में तारे हैं, करीब उतने ही (1 खरब) न्यूरान्स (स्नायु कोष) मस्तिष्क में हैं। पिछले दिनों जिस एक तथ्य ने सर्वाधिक ध्यान वैज्ञानिकों का आकर्षित किया है, वह है इन स्नायुओं को परस्पर जोड़ने वाले संधि स्थलों (सिनेप्सों) पर स्रवित होने वाले द्रव्य पदार्थ ‘न्यूरोट्रांसमीटर्स।’ आज वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा यह प्रामाणिक किया जा रहा है कि स्नायु तन्त्रों की संचार प्रणाली इन रासायनिक तत्वों पर आधारित है। मानवीय बौद्धिक क्षमता को इन रसायनों को प्रभावित कर बढ़ाया जा सकता है। दर्द एवं दुःख जिनसे सारा मानव समुदाय आज त्रस्त है, उससे राहत दिलाना भी इन रसायनों के माध्यम से सम्भव है। जिस आनन्द की तलाश में भटकता मनुष्य स्वयं को अफीम, अल. एस. डी., अल्कोहल के नशे में डुबा देता है, वह आधुनिक विज्ञान के अनुसार अन्दर से ही मस्तिष्कीय परतों को विकसित कर, रसायनों का स्राव उत्तेजित कर प्राप्त किया जा सकता है।

जिन संभावनाओं का वर्णन आज का स्नायु वैज्ञानिक कर रहा है, वे आध्यात्म विज्ञान की स्थापनाओं के चिर पुरातनकाल में वर्णित की जाती रही हैं। वे भी यही मानते थे कि मस्तिष्क शरीर रूपी यन्त्र को चेतन संचालक केन्द्र है। इसकी प्रसुप्त क्षमताओं को विकसित कर ही वह सामर्थ्य अर्जित की जा सकती है जो इन्द्रियातीत है। काया की सूक्ष्म संरचना का हवाला देते हुए ऋषिगणों ने सहस्रार के रूप में एक ऐसे विद्युतप्रवाह के मस्तिष्क में अवस्थित होने की कल्पना की है जो मस्तिष्क के अनगिनत महत्वपूर्ण केन्द्रों, स्नायुकोशों की परतों तथा स्नायु-रसायन संदेशवाहकों के स्रावों को उत्तेजित करता है। जो भी साधक इस सूक्ष्म तथ्य को जानकर सोये को जगा देता है वह अनगिनत विभूतियों का स्वामी बन जाता है। असंयमी आनन्द की प्राप्ति, संवेदनात्मक अनुभूति, उदारता मिश्रित करुणा की उत्पत्ति इसी विद्युत्केन्द्र की जागृति की प्रत्यक्ष उपलब्धियाँ हैं।

आज का वैज्ञानिक शैशवावस्था से निकलकर वयस्क नियति में आ पहुँचा है। धीरे-धीरे वे रहस्य खुलते जा रहे हैं जो विज्ञान के लिए अंधेरे के गर्त में छिपे पड़े थे। मस्तिष्क को एक पेचीदा कम्प्यूटर ठहराया जाना भी उन्हें अब अति सरलीकरण लगने लगा है। भावनाओं, संवेदनाओं एवं विचार शक्ति जैसी विशेषताओं का सम्बन्ध अब न्यूरोकेमीकल ट्रांसमीटर्स से जोड़ा जा रहा है। यह भी कहा जा रहा है कि अब अपनी इच्छा से भावनाओं पर नियन्त्रण, उसका नियमन एवं बौद्धिक क्षमता का विस्तरण संभव है।

मस्तिष्क इस माने में एक बिल्कुल ही निराला अवयव है कि इसमें सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है। सिनेप्सों के स्थान पर रासायनिक संदेशवाहकों के माध्यम से यह कार्य सम्पादित होता है। तीस विभिन्न प्रकार के पदार्थ मस्तिष्क में ट्रांसमीटर की भूमिका अदा करते हैं। ये पेप्टाइड्स कहलाते हैं एवं इधर-उधर बिखरे रहने के बजाय कुछ विशिष्ट केंद्रों में इनकी सघनता अधिक रहती है। डा. डोनाल्ड जेन्डन जो कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी के फार्माकोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं, बताते हैं कि इन रसायनों की मात्रा इतनी न्यूनतम होती है कि इसे ढूँढ़ पाना वैसा ही है, जैसा स्वीमिंगपूल में से चुटकी भर नमक को अलग करना।

सबसे महत्वपूर्ण पिछली एक दशाब्दी की खोज है- “एनकेफेलीन” नामक हारमोन्स। भावनाओं, उद्वेगों और मस्तिष्कीय नियंत्रण को विचलित करने वाले प्रवाहों पर काम करने वाले इन हारमोन्स को मस्तिष्क स्वयं बनाता है। जब वैज्ञानिकों ने यह जानने की कोशिश की कि अफीम दर्द की अनुभूति को दबाने के लिये मस्तिष्क के किस भाग पर काम करती है तो उन्होंने मध्य मस्तिष्क के भावनाओं से सम्बन्धित भाग में कुछ ऐसी व्यवस्था पायी, मानो वे अफीम के रसायनों से संयोग हेतु ही बनी हों। असली मुद्दा यह था कि आखिर प्रकृति ने मस्तिष्क के कोषों में अफीम से संयोग करने की विशिष्ट व्यवस्था क्यों बनायी। तब वैज्ञानिक द्वय जॉन ह्यूजेज एवं ट्रांस कोस्टर लिक्स (स्काटलैण्ड) ने अफीम से मिलती-जुलती रासायनिक संरचना वाले, पीड़ा नाशक एवं आनन्द की अनुभूति देने वाले ‘एनकेफेलीन’ हारमोन्स की खोज की एवं सारे वैज्ञानिक जगत को भावनाओं की इस केमीस्ट्री का स्वरूप बनाकर शोध का एक नया आयाम ही खोल दिया।

जॉन हापकिन्स मेडीकल स्कूल के सोलोमन स्नीडर के अनुसार मनोरोगों एवं तनावजन्य व्याधियों में ‘एनकेफेलीन’ की खोज में एक नयी दिशा मिली है। मनोवैज्ञानिक रूप से दबाव डालने वाली परिस्थितियों के विरुद्ध हम जिस प्रकार स्वयं को तैयार करते हैं, उसमें हमारे मनोबल को दृढ़ बनाने में, इस तनाव से मुक्ति दिलाने में “एनकेफेलीन” की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जो अपने इस आंतरिक स्राव का, अमृतकलश का सदुपयोग कर लेता है, वह इन बाह्य विभ्रमों से व्यथित न होकर हर परिस्थिति में आनन्द लेता है। इन “एनकेफेलीन एवं एण्डॉरफिन” रसों की सघनता मस्तिष्क एवं सुषुम्ना के उन हिस्सों में अधिक होती है, जो प्रसन्नता एवं दर्द की अनुभूतियों से संबंधित होते हैं, भाव संवेदनाओं के लिये उत्तरदायी केन्द्र माने जाते हैं। वैज्ञानिकों की ऐसी मान्यता है कि एक्युपंक्चर की चिर पुरातन चीनी पद्धति, मस्तिष्क का इलेक्ट्रोडों के माध्यम से उत्तेजन अथवा हिप्नोसिस या रोग निद्रा की क्रियायें एवं आधुनिकतम तनाव निवारक बायोफिडबैक पद्धति में एनकेफेलीन रूपी दर्द नाशक- अफीम जैसे रसायनों का मस्तिष्क में स्राव और उत्सर्जन ही एक प्रमुख क्रिया है।

वस्तुतः आनन्द जीवात्मा का लक्ष्य है। इसी की प्यास उसे सतत् रहती है। हिरन की नाभि में कस्तूरी होती है, पर वह आनन्द की खोज में मारा-मारा फिरता है। इसी प्रकार आनन्द का अक्षय भण्डार अंतःकरण की गहरी परतों में छिपाये मनुष्य उसे बाहरी साधनों में, सतत् ढूंढ़ता रहता है। विषयों में- साधनों में वह चिरस्थायी आनन्द न मिलने पर भटकाव, थकान, निराशा, अप्रसन्नता स्वाभाविक है। यह आनन्द मिलने की आशा जीवधारियों के जीवित बने रहने का एक प्रमुख कारण है।

“एतस्यैवानन्दस्यान्यानि भूताति मात्रामुपजीवन्ति।” बृहदारण्यक 4।3।32

“उल्लास, सन्तोष, तृप्ति, तुष्टि शान्ति के रूप में जिस दिव्य संवेदना की अनुभूति साधक को होती है, वही आनन्द है।” विज्ञान बताता है कि यह आनन्द का स्त्रोत अन्दर है। सूक्ष्म अध्यात्म एनाटॉमी भी इस स्त्रोत को आनन्दमय कोष की, अंतःकरण की गहरी परतों में छिपा बताती है।

न्यूरोकेमिकल्स, एनकेफेलीन एवं एण्डॉफिन खोजों ने वैज्ञानिकों को आँतरिक संरचना की जटिलता को समझने के कुछ नये आयाम दिये हैं। इन सब उपलब्धियों पर चिन्तन करने से निष्कर्ष यही निकलता है कि लौकिक क्षणिक सुखों में आनन्द की तलाश ही रोग, शोक, निराशा व तनाव को जन्म देती है। इसका साक्षात्कार यदि अपने अंतःकरण में किया जा सके, साधना द्वारा अन्तः की परतों को उत्तेजित किया जा सके तो आँतरिक प्रगति का पथ-प्रशस्त किया जा सकता है।


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