पिछले दिनों जीवन-दर्शन पर नई दृष्टि से विचार करने वाले मनीषियों ने कुछ ऐसे तथ्य भी ढूंढ़े और प्रतिपादन किये हैं जो देखने में तर्कपूर्ण एवं आकर्षक प्रतीत होते हैं, इतने पर भी उनकी परिणति प्रतिक्रिया ऐसी प्रतीत नहीं होती जिसे लोकोपयोगी कहा जा सके।
ऐसे प्रतिपादनों में जॉन स्टुअर्ट मिल का बहुचर्चित ‘उपयोगितावाद’ भी एक है। जिसके अंतर्गत कहा गया है- जो उपयोगी है उसे चुना और संभाला जाय। साथ ही यह भी जोड़ा गया है कि जो निरुपयोगी है उसे नष्ट होने दिया जाय या त्याग कर दिया जाय। इस मान्यता में दुर्बलों पर दया करने को निरर्थक ही नहीं हानिकारक भी बताया गया। बेकार का कूड़ा-कचरा बढ़ने से सुन्दरता और व्यवस्था पर आघात पहुँचने- संसार को समुन्नत बनाने में अवरोध पड़ने- का तर्क देकर वे कहते हैं कि उपयोगी को ही चुना, पोसा जाय।
इस तर्क में वे प्रकृति के व्यवस्थाक्रम को साक्षी रूप में प्रस्तुत करते हैं। बड़ा पेड़ अपने समीपवर्ती पौधों की खुराक खा जाता है। स्वयं बढ़ता है नीचे उगने वालों को सुखा देता है। बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। हिंस्र पशु, छोटे-मोटे जानवरों को उदरस्थ करते रहते हैं। मनुष्यों में भी प्रचलन चलता तो बहुत दिन से रहा है, पर उसे ऐसा खुला समर्थन नहीं मिला जैसा कि उपयोगितावाद को एक दर्शन के रूप में प्रस्तुत करके उसे लोक मान्यता के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए इन दिनों किया गया है। जिसकी लाठी उसकी भैंस। ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ -जैसी उक्तियों में मत्स्य न्याय का समर्थन किया गया है और जंगल के कानून को मनुष्यों के लिए भी उपयुक्त बताया गया है।
ऐसे अन्य प्रतिपादनों में नीत्से जैसे अन्य दार्शनिकों का भी समर्थन मिला है और उन्होंने और भी जोर देकर इस बात को ऐसे तर्क तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया है कि समर्थों की मदांधता को उससे नया साहस मिला है। वे अपने कृत्यों का अब दार्शनिक स्तर पर भी समर्थन करने लगे हैं। पिछले दिनों नाजीवाद का जर्मन दर्शन क्या कहर ढा चुका है यह सर्वविदित है। प्रत्यक्ष कारण उसका जो भी रहा है, परोक्ष रूप से उसे “वरिष्ठों को ही जीवित रहने का अधिकार” का दार्शनिक समर्थन भी मिला है। फलतः उद्दण्डता ने मनमानी करने के लिए इसे एक नये और पैने हथियार के रूप में प्रयुक्त किया है। लोक-मान्यता उसी प्रवाह में बहने लगी तो खतरा यह है कि मध्यकालीन डाकुओं, सामन्तों और पिण्डारियों का जमाना अब दैत्य दानव के रूप में नहीं एक उपयोगिता एवं आवश्यकता का जामा पहनकर दुर्बलों के उत्पीड़न, विनाश का एक नया संकट खड़ा करेगा।
जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने प्रतिपादित उपयोगितावाद की व्याख्या करते हुए उसका आधार बड़े सभ्य और भले शब्दों में अधिक लोगों का अधिक सुख बताया है।
इस प्रतिपादन पर दृष्टि डालते ही कई प्रश्न उठते हैं। यह निर्णय कैसे किया जाय कि अमुक बात से अधिक लोगों को सुख प्राप्त होगा? लोगों की इच्छाएं अनेक प्रकार ही होती हैं और वे बदलती भी रहती हैं। भूखा आदमी रोटी को सर्वोपरि सुख मानता है और पेट भर जाने पर विलासिता और स्वच्छंद आचरण को। इस दृष्टि से देखा जाय तो दूसरे को नीचा दिखाने और उसके अधिकार छीनने में भी बहुतों को सुख मिलना है। इसके लिए आवश्यक होगा कि सुख की व्याख्या की जाय।
विचार करने पर हम उन्हीं शाश्वत सिद्धान्तों पर पहुँच जायेंगे सबों का सुख सन्निहित है। इसके विपरीत ‘अधिक संख्या का सिद्धान्त’ के भीतर अनौचित्य ही नहीं संघर्ष भी छिपा हुआ है साथ ही उसमें स्थायित्व भी नहीं है, अतः उसे मूल्याँकन का शाश्वत आधार नहीं बनाया जा सकता है।
यह सही है कि जीवन में अस्थायी मूल्यों की भी आवश्यकता होती है किन्तु वे सापेक्ष हैं। उनका रुख स्थायी मूल्यों की ओर होना चाहिए। अर्थात् यदि सामाजिक जीवन में हिंसा या दण्ड की आवश्यकता पड़ती है तो उसका भी लक्ष्य अहिंसा या सर्व कल्याण होना चाहिए।
भौतिकतावादी दार्शनिकों का कथन है कि न्याय अथवा कानून का आधार ‘उपयोगिता’ है। उदाहरण के रूप में, यदि दो व्यक्तियों में झगड़ा है तो यह देखना चाहिए कि हमारे लिए कौन-सा अधिक उपयोगी है और उसी के पक्ष में निर्णय देना चाहिए। प्रायः समर्थ सत्ताधारियों की मनोवृत्ति इसी प्रकार की होती है। उनकी दृष्टि में स्वार्थ पूर्ति के लिए दूसरे वर्ग का दमन या उसकी सुविधाओं में कटौती करने में कोई हानि नहीं है। उपनिवेशवादी भी इसी मनोवृत्ति से काम लेते हैं। वे यह मानते हैं कि शासक वर्ग की सुविधाओं के लिए शासितों का शोषण करने में कोई हानि नहीं है और वे उसी प्रकार के कानून भी बनाते रहते हैं। अमेरिका में नीग्रो जाति को अधिकार प्राप्त नहीं हैं, जो गोरी जाति को प्राप्त हैं। अफ्रीका के अनेक देशों में वहाँ के मूल निवासी अफ्रीकी भी नागरिक अधिकारों से वंचित हैं। शासकों की दृष्टि में यह अन्याय नहीं है।
इस सिद्धान्त में दो दोष हैं। पहला यह है कि मानव और मानव में परस्पर विषमता स्वीकार की गई है, जो आपने आप में अन्याय है। जब तक एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपने से हीन समझाता रहेगा तक तक एक को दूसरे से भय बना रहेगा।
वाल्मीकि रामायण का कथन है- ‘भयं भीताद्धि जायते’ अर्थात् जो हमसे डरा हुआ है, हमें सदा उसी का डर रहता है। शोषक को शोषित से सदैव भय बना रहता है। इससे मुक्ति पाने के लिए वह अधिकाधिक शोषण करता है और कठोर उपायों को काम में लाने लगता है। एक ओर शस्त्रास्त्र एवं हिंसक साधनों को बढ़ाता जाता है और दूसरी ओर शोषित को बन्धनों में जकड़ता चला जाता है।
उपयोगितावाद में सबसे बड़ा दोष यह है कि इसका कोई निश्चयात्मक आधार नहीं है। भिन्न-भिन्न वर्गों के स्वार्थ आपस में टकराते रहते हैं। प्रत्येक वर्ग न्याय की व्याख्या अपनी स्वार्थ-सिद्धि को लक्ष्य में रखकर करने लगता है। परिणाम-स्वरूप न्याय अपने आप में संघर्षों का कारण बन जाता है। पूँजीपति और मजदूरों में तथा अन्य प्रकार से ये संघर्ष विश्व के अभिशाप बने हुए हैं।
एक बात और है। प्रत्येक व्यक्ति में महत्वाकांक्षाएं होती हैं और वह अन्य व्यक्तियों पर राजनीतिक, सामाजिक तथा अन्य प्रकार का प्रभाव स्थापित करना चाहता है। अपनी-अपनी महत्वाकाँक्षाओं को लेकर व्यक्तियों में संघर्ष चलते रहते हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे को पराजित करना चाहता है। ऐसी स्थिति में उपयोगितावाद का क्या अर्थ होगा? प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वार्थ को लक्ष्य में रखकर उसका भिन्न-भिन्न अर्थ करेगा। जब महात्मा गाँधी ने हरिजन आन्दोलन प्रारम्भ किया तो अन्य वर्णों के बहुत से व्यक्तियों ने प्रश्न खड़ा किया कि हरिजन दूसरों के बराबर हो गए तो कचरा कौन उठायेगा, टट्टियों की सफाई कौन करेगा? चारों ओर गन्दगी फैल जायेगी और रोग बढ़ने लगेंगे। इंग्लैण्ड में जब छोटे बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य कर दी गई तो एक भद्र महिला ने न्यायालय में पहुंचकर शिकायत की कि उसका नौकर स्कूल जाने लगा है। परिणाम स्वरूप चिमनी साफ नहीं होती और रसोई घर में गन्दगी फैल रही है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अधिकार प्राप्त वर्ग उपयोगितावाद की व्याख्या अपने स्वार्थों को लक्ष्य में रखकर करता है। अतः उसे न्याय का आधार नहीं बनाया जा सकता।
उपयोगिता या लाभ को न्याय का आधार मान लेने पर कर्तव्य या उत्तरदायित्व की रक्षा नहीं हो सकती। बहुत से कार्य ऐसे हैं, जिन्हें प्रत्यक्ष लाभ न होने पर भी करना आवश्यक होता है। उदाहरण के रूप में वृद्ध तथा रोगियों की सेवा, कष्ट पीड़ितों की सुश्रूषा इत्यादि।
उपयोगितावाद में प्रत्येक मनुष्य इस बात को सोचकर चलता है कि उसके द्वारा किया जाने वाला कार्य किसी स्वार्थ को सिद्ध करता है या नहीं। ऐसी स्थिति में पुत्र कह सकता है कि वृद्ध माता-पिता की सेवा करना मेरा कर्त्तव्य नहीं है, क्योंकि उनके जीवित रहने में कोई लाभ दृष्टिगोचर नहीं होता।
यूनान की एक प्राचीन घटना है- सिसरो नाम का दार्शनिक गड्ढे में गिर पड़ा। वह उपयोगिता का समर्थक था। सिसरो का एक शिष्य उसी रास्ते से निकला और गुरु को गड्ढे में पड़ा देखकर सोचने लगा इन्हें बाहर निकालने से कोई निश्चित लाभ होगा या नहीं? वह दो घण्टे तक खड़ा-खड़ा सोचता रहा। अन्त में इस निर्णय पर पहुँचा- यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें निश्चित रूप से लाभ ही होगा। यदि यह मर जाते हैं तो किसी नये अध्यापक को काम मिलेगा और उसके परिवार का पोषण होगा जबकि गड्ढे में गिरने वाले की मृत्यु से एक का ही हर्ज होगा। यह सोचकर वह गुरु जी को गड्ढे में छोड़कर चला गया। यह घटना उपयोगितावाद के नग्न चित्र को उपस्थित करती है।
सृष्टि क्रम में ‘उपयोगी का चुनाव’ का भी एक सिद्धान्त प्रचलित तो है, पर उसका तात्पर्य इतना ही है कि समर्थता प्राप्त करने की हर किसी की प्रवृत्ति बढ़े। सभी समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनें। उसका अर्थ यदि दुर्बल दमन का निकाला जाने लगा- जैसा कि उपयोगितावाद के नाम पर इन दिनों निकाला जा रहा है तो उससे महाविनाश की ही पृष्ठभूमि बनेगी। जो समर्थ होंगे उनमें से जो अधिक समर्थ होगा वह अन्य छोटों को उदरस्थ करता चला जायेगा। इस प्रकार एक-दूसरे के पेट में घुसते-घुसते अन्त में कोई एक ही बचा रहेगा। उदरस्थ करने के लिए कोई अन्य न बचने पर वह भी जीवित न रहेगा। नियति की कराल दाढ़ों में पिस जाने से बच न सकेगा। समय रहते इस भ्रान्त दर्शन के जाल-जंजाल से बच निकलने में ही भलाई है।