ऐसा अनुमान किया जाता है कि ब्रह्माण्ड में लगभग एक अरब आकाश गंगाएं हैं। एक आकाश गंगा से सौ अरब तारे हैं। सूर्य भी एक बृहत् तारा है तथा पृथ्वी एक ग्रह। पृथ्वी के अतिरिक्त आठ ग्रह- बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, नेपच्यून और प्लूटो हैं। सूर्य के चारों ओर से नौ ग्रह अपनी अण्डाकार कक्षा में परिक्रमा करते रहते हैं। चन्द्रमा पृथ्वी का ही एक उपग्रह है। बृहस्पति के तेरह, शनि के दस, यूरेनस के पाँच, मंगल एवं नेपच्यून के दो-दो उपग्रहों की जानकारी अब तक मिली है। बुध एवं शुक्र ग्रहों के उपग्रहों के होने की कोई जानकारी नहीं मिल पायी है।
जिस आकाश गंगा की पृथ्वी अंग है, अनुमानतः उसका व्यास है एक लाख प्रकाश वर्ष तथा मोटाई दस हजार प्रकाश वर्ष। ऐसी एक अरब आकाश गंगाएं ब्रह्माण्ड में अनुमानतः अभी हैं। अपनी आकाश गंगा के तारों, ग्रहों व उपग्रहों की भी अभी तक मात्र अल्प जानकारी प्राप्त हो सकी है। अनंत ब्रह्माण्ड तक तो मस्तिष्क की कल्पना भी पहुँच सकने में स्वयं को असमर्थ पाती है। पृथ्वी के विषय में भी पूर्व के अनेकानेक मत अब असत्य सिद्ध होते जा रहे हैं। ऐसी अनेकानेक नयी शोधें अब इस क्षेत्र में हो रही हैं जो बताती हैं कि पृथ्वी के विषय में भी जो जाना समझा गया था, वह मात्र कल्पना ही थी। दो अमेरिकी खगोल शास्त्री डा. रिचर्ड और जार्ज स्मिथ एवं उनके सहयोगी शोधकर्ता लारेंस वर्कले लेव के मार्क कोरेश्टाइन के अनुसार हमारी पृथ्वी लगभग बीस लाख किलोमीटर प्रति घण्टे की भयंकर गति से वासुकि तारामण्डल की ओर दौड़ती चली जा रही है। अति सम्वेदनशील रेडियो उपकरणों द्वारा पृथ्वी वायुमण्डल से 19,800 मीटर की ऊंचाई पर किये गये परीक्षणों से यह जानकारी मिली है। इन अनुसंधानों से यह समझा जा रहा है कि ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक फल या पौधे के खिलने की तरह हुई न कि अग्निपिंड के विस्फोट से, जैसा कि माना जाता था एवं नियन्त्रित तथा पूर्णतया समान गति से उसका विस्तार होता चला गया। यह घटना 15 अरब वर्ष पूर्व हुई मानी है।
ब्रह्माण्ड में तारकों- सौर मण्डलों की क्रिया-प्रक्रिया अपने ढंग से प्रवाहित हो रही है और ग्रह-नक्षत्रों का परिवार अपने सामान्यक्रम से चल रहा है। इतने पर भी जहाँ-तहाँ ऐसी पहेलियाँ और विसंगतियाँ दृष्टिगोचर होती हैं जिनका समाधान ढूंढ़ पाने में मानवी बुद्धि किंकर्तव्य विमूढ़ रह जाती है।
इस अनन्त अंतरिक्ष में जहाँ-तहाँ ऐसे चक्रवात या भ्रमर हैं जो अपनी प्रचण्ड शक्ति के कारण महादैत्य कहे जाते हैं। उनकी पकड़ और चपेट में जो भी दृश्य-अदृश्य साकार-निराकार फंस जाता है उसे वे अपने उदर में निगल लेते हैं और यह पता नहीं चलने देते कि जो उनका खाया वह पचने के लिए कहाँ चला गया? इन भँवरों को विज्ञान की भाषा में ‘ब्लैक होल’ कहते हैं।
ब्लैक होल का अर्थ है- काला छेद। अन्तरिक्ष में वे जहाँ कहीं होते हैं, वहाँ सघन अन्धकार छाया रहता है। सघन भी इतना कि उस क्षेत्र पर पड़ने वाली प्रकाश किरणें तक उसी गर्त में चली जाती हैं और उसका दर्शन कर सकना किसी के लिए भी संभव नहीं हो पता। होल इसलिए कि उसमें मात्र पोल ही पोल भरी पड़ी है। पोल भी इतनी जिसमें कोई भी दृश्य या अदृश्य पदार्थ बिना किसी अवरोध खिंचता-घुसता चला जाता है। इस प्रवेश की गति इतनी अधिक होती है कि उसकी तुलना में प्रकाश की गति भी स्वल्प ठहराई जा सके।
अपनी पृथ्वी पर वारमूडा के निकट कई बार कितने ही जलयान एवं वायुयान इस भँवर में फंसकर अपना अस्तित्व गंवा बैठे हैं। पकड़े जाते समय तो कुछ क्षण के लिए चीखे, चिल्लाये किन्तु बाद में उनका इस प्रकार लोप हो गया मानो उनका कभी कोई अस्तित्व था ही नहीं। ढूंढ़े पर कोई निशान या प्रमाण ऐसे न मिले जिससे घटनाक्रम का या उसके निमित्त कारण का कुछ तो पता चल सके। इस क्षेत्र में होती रही दुर्घटनाओं का विवरण बड़ा रोमांचकारी है। इसी प्रकार के काले छेद इस ब्रह्माण्ड में अन्यत्र हैं भी। पृथ्वी वालों को भी उनका आभास जब-तब मिलता रहता है।
इनकी विभीषिका अत्यधिक रोमाँचकारी है। वे छोटे भी होते हैं और बड़े भी। छोटे ब्लैक होल सपोलों की तरह थोड़े से क्षेत्र में अपना फन फैलाये रहते हैं और जो उधर से गुजरता है उसे लपक लेते हैं। किन्तु बड़े ब्लैक होल ऐसे ही हैं जो अपनी समूची पृथ्वी को ही देखते-देखते निगल सकते हैं।
सुव्यवस्थित सृष्टि प्रवाह में अव्यवस्थित ब्लैक होल किस कारण उत्पन्न होता हैं और वे किस क्रम से अपना क्रिया-कलाप चलाते हैं इसकी खोजबीन अन्तरिक्ष विज्ञानियों ने की है। उससे समग्र जानकारी तो प्राप्त नहीं हो सकी, पर जो कुछ पता चला है वह भी कम रहस्यमय और कम रोमाँचकारी नहीं है।
नेशनल एरोनॉटिक्स एण्ड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) ने ‘उहुरु’ नामक एक कृत्रिम उपग्रह को गत दिसम्बर 1970 में इटली के एयरो स्पेस रिसर्च सेण्टर से अन्तरिक्ष में छोड़ा। इसका उद्देश्य “ब्लैक होल” की स्थिति का पता लगाना था। ऐसे 200 तारा स्त्रोतों का पता इस उपग्रह ने लगाया जो एक्स-रे उत्सर्जित करते हैं। इनमें प्रमुख-प्रमुख हैं- सैतोरस एक्स-3, सिग्नस एक्स-1, हरक्यूलिस एक्स-1, सिग्नस एक्स-3। वैज्ञानिकों का ध्यान इस स्त्रोतों में सिग्नस एक्स-1 की ओर अधिक आकर्षित हुआ। अध्ययन द्वारा इसमें वे सारी लक्षण पाये गये हैं जो ‘ब्लैक होल’ पर पाये जाते हैं। सिग्नस एक्स-1 की दूरी पृथ्वी से लगभग 8000 प्रकाश वर्ष (75 लाख अरब किलोमीटर) के लगभग है। गैस मण्डल में जो ब्लैक होल पाये जाते हैं, उनकी सारी विशेषताऐं इसमें है। गुरुत्वाकर्षण बल की तीव्रता के कारण यह भी प्रत्येक वस्तु पर हावी होकर उसे अपनी ओर खींच लेता है।
“ब्लैक होल” की स्थिति का पता लगाना भी एक विकट समस्या है। प्रकाश की किरण को प्रकाश स्त्रोत से यदि भेजा जाय तो ब्लैक होल प्रकाश को तुरन्त पकड़ लेगा हमें मात्र एक काला छिद्र दिखाई देगा।
आइन्स्टीन के अनुसार प्रकाश किरणों में भी द्रव्यमान होता है। यदि यह सिद्धान्त सही है तो ब्लैक होल के धरातल से ऊपर फेंकी गई प्रकाश की किरण तीव्र गुरुत्वाकर्षण के कारण पीछे खींच ली जायेगी। उसी प्रकार जिस तरह यह पृथ्वी ऊपर फेंकी गई गेंद को खींच लेती है। ब्लैक होल की तेज गुरुत्वाकर्षण का कारण यह है कि विज्ञान के सिद्धांतानुसार जो वस्तु जितनी सघन होगी, उसका आकर्षण बल उतना ही प्रबल होगा। ब्लैक होल का घनत्व अधिक होने के कारण उसका गुरुत्वाकर्षण अत्यधिक है और वह अपनी पकड़ में आने वाले प्रत्येक पदार्थ को सहज ही अपनी ओर खींच लेता है।
प्रसिद्ध तारा भौतिक शास्त्री श्री के.एस. थ्रोन और श्री नीविकोव का ब्लैक होल की उत्पत्ति के विषय में कहना है कि “विकासक्रम की अन्तिम अवस्था में तारे यदि 1.2 सौर द्रव्यमान बढ़ जाते हैं तो वह वृहत् तारे की तरह उन्हें फट जाना चाहिए। फटने से दो चीजें तारे छोड़ सकते हैं एक विस्तीर्ण गैस का बादल था दूसरा अवशेष तारा। यदि शेष तारे का भार 2 सौर द्रव्यमान से कम है तो वह एक न्यूट्रान तारे, जिसका कि घनत्व नाभिक के स्तर का होता है, में बदल जाता है तथा यदि इससे अधिक है तो वह एक ब्लैक होल में परिवर्तित हो जायेगा।”
ब्लैक होल की उत्पत्ति और भयानक शक्ति के सम्बन्ध में जो निष्कर्ष निकले हैं वे मानव जगत में प्रयुक्त होने वाले सिद्धान्तों और प्रचलनों से ही मिलते-जुलते हैं। जो भारी होता है वह अपेक्षाकृत हलकों को अपनी ओर खींचता है। जो हलका पड़ता है वह दूसरों के प्रभाव से प्रभावित होकर उनका अनुकरण करने लगता है। इस तथ्य को अधिक अच्छी तरह समझा जा सके तो स्वयं अधिक भारी भरकम बनाने और अपने प्रभाव क्षेत्र में अधिकों की सेवा कर सकने की प्रेरणा मिलती है। साथ ही यह सतर्कता अपनाने का भी अवसर मिलता है कि किसी का समर्थता, प्रतिभा से प्रभावित होकर कुछ ऐसा न करने लगे कि जो अनुचित अनुपयुक्त हो। ब्लैक होल ब्रह्माण्ड में भी है और मानव समाज में भी। प्रभाव शक्ति की जितनी उपयोगिता है उतनी ही भयंकरता भी इस तथ्य को ध्यान में रखकर चलना और आत्म-रक्षा का उपाय समय रहते करना चाहिए।
प्रकृति प्रवाह से कहीं छिद्र रह जाने के कारण भी इन ब्लैक होल की उत्पत्ति मानी गई है। छिद्र कहीं भी नहीं रहने दिये जांय। कपड़े में छोटा-सा छिद्र होता है उसे समय पर न सिया जाय तो सारे कपड़े को ही निरर्थक कर देगा। घड़े में छोटा-सा छिद्र हो जाने पर पानी भी बह जाता है। और आस-पास की जमीन भी गीली होती है। बाँधों में एकाध चूहों का छेद होता है और वह बढ़कर बाँध में दरार डालने-तोड़ने और उसके कारण बड़े क्षेत्र को जलमय करने की हानि पहुँचाता है। इसलिए समय रहते हर छिद्र को बन्द करना चाहिए। हम छिद्रान्वेषी न बनें पर उनके कारण होने वाली हानि से बेखबर भी न रहें और जहाँ पोल पट्टी दिखाई पड़ती हो वहां उसे नंगा भले ही न करें पर उसे बन्द तो किया ही जाना चाहिए।
ब्लैक होल अपनी भयानक शक्ति और उससे होने वाली हानि एवं अव्यवस्था की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं। साथ ही यह भी बताते हैं कि वैयक्तिक जीवन एवं समाज व्यवस्था में यदि कहीं ब्लैक होल हो उनके खतरे को समझें और बन्द करने का प्रयत्न करें।