धर्म तर्क के न्यायालय में

November 1980

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तर्क एवं प्रमाण की अपनी उपयोगिता है। विज्ञान ने अपना सतत् विकास इसी आधार पर किया है। परीक्षण की कसौटियों पर कसने के बाद उसने अपना वर्चस्व सिद्ध किया है। उसकी प्रत्यक्षवादी मान्यताएं परीक्षण किये जाने के बाद ही अपनी प्रामाणिकता प्रस्तुत कर सकी है। धर्मतंत्र को भी प्रत्यक्षवाद ने चुनौती दी है कि परीक्षण की कसौदियों पर अपनी उपयोगिता सिद्ध करे।

इसे समय का दुर्भाग्य कहा जाना चाहिए कि धर्म ने लौकिक ज्ञान, तर्कशास्त्र से अपने को सिद्ध करना अस्वीकार किया। किसी समय मनुष्य की आस्था इतनी प्रगाढ़ एवं भावनाएं इतनी उदात्त रही होंगी कि शास्त्रों, महापुरुषों के वचनों में तर्क करने की आवश्यकता नहीं अनुभव की जाती रही होगी। किन्तु वर्तमान परिस्थितियों एवं मनुष्य की मन स्थिति में भारी अन्तर आया है। बुद्ध का असाधारण विकास हुआ है। जिज्ञासा एवं तर्क शक्ति बढ़ी है। फलस्वरुप मानवी आस्था में कमी आयी है। बुद्धवाद धर्म के सिद्धान्तों को बिना परखे, तर्क एवं परीक्षण की कसौटी पर बिना कसे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। धर्म को अब उसी बुद्धि, तर्क से प्रामाणिक एवं उपयोगी सिद्ध करने की आवश्यकता आ पड़ी है जिससे विज्ञान अपने प्रतिपादनों को सिद्ध करता है।

विवेकानन्द ने कहा था, “मेरा अपना विश्वास है कि वाह्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जिन अन्वेषण पद्धतियों का प्रयोग होता है, उन्हें धर्म क्षेत्र में भी प्रयुक्त किया जाना चाहिए। यह कार्य जितना शीघ्र हो उतना ही अच्छा। यदि कोई धर्म इन अन्वेषणों से ध्वंश हो जाय तो समझना चाहिए कि वह निरर्थक था। ऐसा धर्म जो तर्क प्रमाण एवं उपयोगिता की दृष्टि से खरा न उतरे, लुप्त हो जाना एक श्रेष्ठ घटना होगी। इस अनुसन्धान के फलस्वरुप सारा मल धुल जायेगा तथा धर्म के उपयोगी तत्व अपनी प्रखरता के साथ सामने आयेंगे।

वस्तुतः जो धर्म बौद्धिक अन्वेषण की उपयोगिता से इन्कार करते हैं वे आत्म विरोधी हैं। उनकी क्रिया प्रणाली कितनी भी सशक्त क्यों न हो, उपयोगिता के अभाव में कालान्तर में संदिग्ध बन जायेंगे। शास्त्रों आप्त वचनों के दुहराने एवं कर्मकाण्डों की लकीर पीटने मात्र से उनका महत्व नहीं बढ़ सकता, वरन् मनुष्य की व्यावहारिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करने से ही वे उपयोगी एवं प्रामाणिक बन सकते हैं। धर्म का मूल तत्व ग्रन्थों, कर्मकाण्डों से परे हैं जो परीक्षण एवं अनुभूति गम्य है। उसका अन्वेषण आज की परिस्थितियों में किया जाना अति आवश्यक है। इस सार्वभौम तत्व की सनातन गरिमा को प्रामाणित करना ही अन्वेषण का उद्देश्य है। बुद्धि का सदुपयोग इस दिशा में होना ही चाहिए।

धर्म का प्रमाण किसी ग्रन्थ की रचना पर नहीं वरन सत्यता पर आधारित है। ग्रन्थ मानवी रचना के बाह्य परिणाम है। जो सार्वभौम सत्ता एवं प्राणिमात्र की एकता का प्रतिपादन करते हैं। मनुष्य उनका प्रणेता है। बुद्धि भी मानव संरचना का ही परिणाम है। बुद्धि की शरण में न्याय के लिए जाना होगा। बुद्धि का उत्तरदायित्व है कि वह प्रचलनों के कारण एवं उद्देश्य की व्याख्या करके व्यक्ति को समाधान एवं सन्तोष प्रदान करे। उसी शाश्वत प्रयास को अन्वेषण कहते हैं। कोई घटना घटित होती है। उसे देखकर असमंजस होता है, पर यदि यह विश्वास हो जाय कि यह घटना अमुक नियम का परिणाम थी तो समाधान हो जाता है। पेड़ से सेव गिरा। न्यूटन की बुद्धि आविष्कार के लिए प्रवृत्त हुई। फलस्वरुप पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण सिद्धाँत का प्रतिपादन हुआ। इस सार्वभौम सिद्धाँत को सबने स्वीकार किया। अन्वेषण की इस पद्धति को धर्म क्षेत्र में भी प्रयुक्त करना होगा।

विज्ञान की मान्यता है कि किसी वस्तु की व्याख्या स्वयं उसकी प्रकृति में निहित है। इसी कारण वह वस्तु के स्वरुप को जानने के लिए प्रयोग परीक्षण करता है। पदार्थ सत्ता के रुप को जानने के लिए परमाणु रचना को देखना, जानना होता है। इस मान्यता के अनुसार सृष्टि में घटित होने वाली घटनाओं की व्याख्या किसी बाह्य सत्ता एवं शक्ति पर आधारित नहीं है, वरन् उसकी प्रकृति में विद्यमान है। रसायनशास्त्री अपने तथ्यों का प्रतिपादन करने मं दैत्य, भूत अथवा बाहरी शक्ति की आवश्यकता नहीं अनुभव करता। विज्ञान के इस सिद्धाँत का प्रयोग धर्म क्षेत्र में भी करना होगा। उसके सिद्धाँतों मान्यताओं को उपयोगिता की कसौटी पर कसना होगा। पारेक्ष में, जीवनोपरान्त धर्माचरण का लाभ मिलेगा या नहीं, बुद्धिवाद इस प्रश्न पर विचार करने को तैयार नहीं है। प्रत्यक्ष में, इसी जीवन में धर्म को अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी होगी।

विज्ञान अपनी व्याख्याएं वस्तु सत्ता के भीतर से करता है जबकि धर्म ऐसा करने में पिछले दिनों असमर्थ रहा है। आवश्यकता आ पड़ी है कि धर्म भी इस पद्धति को अपनाये तथा अपनी महत्ता को अपने अन्दर से सिद्ध करे। विश्व से पूर्णतया पृथक ईश्वर की सत्ता एक प्राचीन मान्यता है। ऐसे ईश्वर का सत्ता को जो श्वि से पृथक है, बुद्धिवाद, उपयोगितावाद स्वीकार करने में असमर्थ है। ईश्वर है तो उसे मानवी जीवन के निकट उपयोगी बनकर रहना चाहिए। जीवन-क्रम की श्रेष्ठता के रुप में परिलक्षित होना चाहिए। उसे श्रेष्ठ व्यक्तित्व के रुप में फलित परिणित होना चाहिए।

इस कसौटी पर कसे जाने एवं अनुसंधान पर खरा उतरने पर ही धर्म जीवन्त बना रह सकता है अन्यथा बुद्धिवाद उसे आसानी से स्वीकार नहीं करेगा, उल्टे उस पर प्रहार करेगा। अनुसंधान की उपेक्षा करके देवी-देवता की मात्र मान्यता से चिपके रहने से धर्म की उपयोगिता संदिग्ध बनी रहेगी।

वस्तु की व्याख्या उसकी प्रकृति में निहित है, भारतीय दर्शन भी पूर्ण रुप से इस सिद्धाँत का समर्थन करता है। ब्रह्म या वेदान्त में ईश्वर से ‘बाहर कुछ नहीं है।’ ‘यह सब वहीं है।’ विश्व में उसकी ही सत्ता है।’ ‘वह स्वयं विश्व ही है।’ इसी को हम देखते एवं अनुभव करते हैं। उसी में हमारी जीवनगति और हमारी सत्ता है। विश्व में अन्तर्व्याप्त ईश्वर की, समस्त वस्तु सारतत्व की एवं सर्वत्र अन्तर्यामी होने का भाव भी यही हे। वह जगत के साथ में अपने को व्यक्त कर रहा है। जड़ चेतन उसकी ही अभिव्यक्तियाँ है। व्यक्ति-व्यक्ति, देव-मानव, मानव-पशु, पशु-पौधे आदि के बीच जो विभेद दिखायी देता है वह तत्त्व की दृष्टि से नहीं परिमाण की दृष्टि से है। महान् व से लेकर सूक्ष्म कण सभी उसी चेतना के असीम सागर की अभिव्यक्तियाँ है। उपादान सबमें एक है। इस सिद्धाँत की व्याख्या के लिए किन्हीं बाह्य कारणों को ढूँढने की आवश्यकता नहीं, वरन् उसकी प्रकृति में ही जाना होगा।

धर्म की उपलब्धियाँ हैं-श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं आदर्श कृत्त्व। जो धर्म मानवी व्यक्तित्व के विकास में अपना योगदान देता है वही अपना अस्तित्व कायम रख सकता है। व्यावहारिक जीवन की समस्याओं का समाधान उसमें होना चाहिए। क्यों, किसलिए का समाधान उसे प्रस्तुत करना चाहिए। आज का विचारशील वर्ग कर्मकाण्डों में जीवन परिष्कार का दर्शन क्रम जुड़ा रहना अति आवश्क है। इसके अभाव में तो कलेवर विकृति ही खड़ा करेंगे। धर्म की गरिमा को गिरायेंगे। उसकी महानता तो तभी बनी रह सकती है जब जीवन-निर्माण की परिपूर्ण भूमिका सम्पन्न करे। मानव मानव के बीच वह भाव, विचार उत्पन्न करे जिससे वे सार्वभौम तत्व की एकता को एक दूसरे में अनुभव कर सके।

इसके लिए धर्म की मान्यताओं को विवेक के न्यायालय में प्रस्तुत करना होगा। तर्क एवं उपयोगिता की कसौटी पर कस कर उन सिद्धाँतों को अपनाना होगा जो जीवन के परिष्कार एवं उत्थान में अपना योगदान देते हों। मनुष्य-मनुष्य के बीच, प्राणी मात्र के बीच स्नेह-सौहार्द्र उत्पन्न करते हों। समाज की अन्यान्य समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करते हों। तर्क एवं परीक्षण की इन कसौटियों पर खरा उतरने के उपरान्त ही धर्म बुद्धिग्राह्य हो सकता है। वर्तमान परिस्थितियों में जब कि व्यक्तित्व के विकास के सारे प्रयत्न असफल हो रहे हैं, धर्म तत्व को बढ़कर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न करनी होगी। यह तभी सम्भव बन सकता है जब वह परीक्षण की भट्टी में समुख अपने को निर्भीकता-पूर्वक प्रस्तुत करे। भौतिकी ने जिन आधारों पर अपने को प्रामाणिक ठहराया है, उन्ही आधारों पर आत्मिकी को भी प्रामाणिक एवं उपयोगी सिद्ध करना होगा। समय की इस माँग को स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं है।


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