शीतऋतु में प्रज्ञापुत्रों के लिए अनुदान सत्र

November 1980

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मनुष्य के निजी पुरुषार्थ को जितना सराहा और प्रोत्साहित किया जाय उतना ही कम है। इतने पर ही यह भुला नहीं दिया जाना चाहिए कि अनुदानों का अपना महत्त्व है। पृथ्वी का जीवन सूर्य के अनुदानों से चलता है। मनुष्य को धरती से अन्न, बादलो से जल, और आकाश से पवन की प्राप्ति होती है। वस्त्र, शिक्षा, चिकित्सा, व्यवसाय, वाहन जैसी सुविधाएं उसने स्वतः नहीं कमाई हैं। दाम्पत्ति-जीवन का लाभ दूसरों के अनुग्रह से मिला है। पुरुषार्थ की तुलना में अनुदानों की उपलब्धियाँ ही मनुष्य को सुखी समुन्नत बनाने में अपेक्षाकृत अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। यह दूसरी बात है कि वे अनुदान व्यक्ति की पात्रता के अनुरुप् मिलते हैं और जो सत्पात्र होते हैं वे ही उन्हें पचा पाते हैं।

दाता घाटे में नहीं रहता उसे उच्चस्तरीय शक्ति के बढ़े-चढ़े अनुदान मिलते रहते हैं। हिमालय से अनेकों नयाँ निकलती हैं। वह अपनी बफ्र गला कर इन अनेक सरिताओं को अगाध जलराशि प्रदान करने का उपक्रम जारी रखता है। पर उससे उसका वैभव भंडार समाप्त नहीं होता। नियति उसे निरंतर नई बफ्र का उपहार देती रहती है। समुद्र ने आनादि काल से बादलों को असीम अनुदान दिय हैं, पर उसका भण्डार चुक जाने का कोई संकट नहीं। धरती वनस्पतियों द्वारा प्राणियों का परिपोषण करती है। इससे उसकी उर्बरता समाप्त नहीं होती। प्राणियों के मल-मूत्र तथा सूखी वनस्पतियों से वह वैभव उसे खाद रुप में वापिस मिल जाता है। उदारमना समाज सेवा के रुप में अपने पुरुषार्थ एवं कौशल का उदार उपयोग करते हैं बदले में उन्हें लोक-श्रद्धा एवं जन सहयोग के बल पर यशस्वी एवं उच्चपदासीन बनने का अवसर मिलता है। जनता सरकार को टैक्स देती है। सरकार अफसरों और उपकरणों पर उसे खर्च करती है उसकी सहायता से जनता की सुख सुविधा बढ़ती है।

यह अनुदान क्रम चक्र मात्र भौतिक जगत की ही विधि-व्यवस्था ही नहीं अध्यात्म जगत में भी इसी आधार पर प्रगति क्रम चलता है। साधक को गुरुजनों का प्रोत्साहन, मार्ग-दर्शन एवं दैवी शक्तियों का अनुदान उपहार उपलब्ध होता है यह ठीक है कि साधक के निजी पुरुषार्थ का भी महत्त्व रहता है, पर इतने भर से उच्चस्तरीय उपलब्धियाँ सम्भव नहीं होतीं। वरदान देवता और आशीर्वाद सिद्ध पुरुष देते हैं। उन्हीं अनुदानों के आधार पर साधकों को प्रगति पथ पर बढ़ने की समर्थता एवं सफलता उपलब्ध होती है। महान साधकों का अपने पुरुषार्थ से ही सफलता के चरम लक्ष्य तक पहुँचना सम्भव नहीं हो सकता था। विवेकानन्द को रामकृष्ण परमहंस के अनुदान न मिले होते तो वे उतना न कर पाते जितना कर सके। चन्द्रगुप्त की सफलता का श्रेय चाणक्य के अनुदान पर निर्भर था। शिवाजी समर्थ रामदास के अनुग्रह से आगे बढ़ सके यदि वह सहयोग न मिलता तो जितना कार्य वे कर सके न कर पाते। गाँधी की घनिष्ठता के बिना विनोवा और नेहरु के सहयोग बिना लालबहादुर शास्त्री सम्भवतः उस स्थान तक न पहुँच पाते जिस तक वे पहुँच सके।

हनुमान, अजफ्रन, भागीरथ, परशुराम आदि ने भारी पराक्रम कर दिखाये इतने पर भी परोक्ष के ज्ञाता जानते हैं कि उन सबकी सफलताएं किन्हीं अन्य शक्तियों के अनुग्रह से सम्भव हो सकीं। राम के बिना हनुमान, कृष्ण के बिना अजफ्रन, गंगा के बिना भागीरथ, शिवजी के बिना परशुराम की क्या स्थिति होती। इसकी कल्पना करने भर से सहम कर रह जाना पड़ता है।

शरीरगत प्रत्यक्ष पुरुषार्थ का ही आँखें लेख-जोखा रखती हैं, पर वस्तुतः प्राणगत ऊर्जा ही इन समस्त गतिविधियों का सूत्र-संचालन करती है। समाज को व्यक्ति के श्रम का - व्यक्ति को प्राण का - प्राण को महाप्राण का अनुग्रह प्राप्त होता है। समाज की गतिविधियों से महाप्राण के समुद्र में ज्वार-भाटे आते हैं। पृथ्वी अन्य ग्रहों से अनुदान पाती है साथ ही अपनी क्षमता से अन्य ग्रह उपग्रहों की सहायता करती है। बच्चे अभिभावकों का स्नेह सहयोग पाते हैं और बड़े होने पर अपने बच्चों के अभिभावक बनकर उनका परिपोषण करते हैं।

आत्मिक क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण प्रगति के लिए इस अनुदान चक्रक के गतिशील रहने की बात भी सुनिश्चित है। गुरु, शिष्य के बीच मात्र प्रशिक्षण और मार्ग-दर्शन की बात ही नहीं चलती वरन् आदान-प्रदान का सिलसिला भी चलता है। यदि यह सम्भव न हो तो गुरु की प्रखरता पोखर के जल की तरह सड़ने सूखने लगेगी। स्वच्छता तो झरने का पानी बहते रहने से ही अक्षुण्ण रह सकती है। शिष्य के सम्बन्ध में भी यही बात है। उसका एकाकी पुरुषार्थ कितना ही उच्चस्तरीय क्यों न हो बिना किसी स्रोत से अनुदान आकर्षित किये काम नहीं चल पाता। पेड़ों में बादलों को खींचने और उन्हें बरसाने की सामर्थ्य होती है वह ठीक है, पर यदि बादल उधर से निकले ही नहीं और हल्के होने के कारण बरसने की स्थिति में ही हों तो फिर पेड़ों की आकर्षण शक्ति से भी कुछ काम बनता नहीं है।

राम और लक्ष्मण ने लंका ध्वंस और राजराज्य स्थापना का श्रेय पाया था, पर इस तयि से कम लोग ही परिचित हैं कि महर्षि विश्वामित्र उन दोनों को यज्ञ रक्षा के बहाने अपने तपोवन में ले गये थे और वहाँ उन्हं बला (वैदिकी) और अतिबला (ताँत्रिकी) विज्ञान में पारंगत करके अभीष्ट लक्ष्य को पूरा करने के लिए समर्थ बनाया था। प्रदत्त समर्थना की जाँच-पड़ताल कराने के लिए वे उन्हें जनक के धनुष यज्ञ में ले गये थे। शिव धनुष तोड़ने पर यह निश्चय हुआ था कि जो मिला है उससे उन बड़े प्रयोजनों की पूर्ति हो सकेगी। सर्वविदित है कि राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघन का जन्म यज्ञ चरु से हुआ था और उस चरु के विनिर्मित करने में भृंगी ऋषि की तप साधना ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

युग निर्माण मिशन की गतिविधियों के चमत्कारी विस्तार का केन्द्र इन दिनों शाँति-कुँज समझा जाता है। पर यह आँखों का भ्रम मात्र है। इसके लिए आवश्यक ऊर्जा हिमालय के मध्य केन्द्र से उपलब्ध होती है। बड़े बिजली घर के साथ सम्बन्ध सूत्र जुड़े रहने के कारण छोटे-छोटे कारखाने अपनी गतिविधियाँ चलाते हैं। मशीनों में चलते और उत्पादन करते देखकर मोटा अनुमान यही लगता है कि सामर्थ्य का स्रोत यह मशीनें ही हैं, पर यह सूक्ष्म बुद्धि से ही जाना जा सकता है कि इस समस्त संचालन का श्रेय उस बिजली घर का ही है जो ओझल होते हुए भी उन मशीनों को गतिशील रहने एवं उत्पादन की सामर्थ्य प्रदान करता है। युग निर्माण अभियान की सफलता एवं सम्भावना भी ऐसे ही अदृश्य अनुदानों पर अबलम्बित समझी जा सकती है। महाकाल की प्रेरणाएं ही नहीं उनकी शक्तियाँ भी अदृश्य रुप से युग परिवर्तन का सारा सूत्र-संचालन कर रही है। अग्रिम पंक्ति में खड़े व्यक्तियों को तो मुफ्त में श्रेय मिलता रहता है।

वैटरी कमजोर पड़ने पर नई शक्ति पाने के लिए ‘चार्जर’ के साथ जोड़ना पड़ता है। आग को ईंधन, मोटर को तेल, पेट को आहार की निरन्तर जरुरत पड़ती है। यह जुट सके तो समझना चाहिए कि गतिशीलता का क्रम सुनिश्चित हो गया।

प्रज्ञा परिजनों को विदित है कि मिशन के सूत्र-संचालक को बार-बार हिमालय जाना पड़ता है और वहाँ से नये अनुदान लाकर नये-नये उत्तरदायितवों का निर्वाह करना पड़ता है। निजी उपासना की सामर्थ्य बहुत स्वल्प होती है, उससे निजी आवश्यकताओं को पूरे करने के लिए स्वावलम्बी भी रहा जा सकता है। यदि बड़े काम कन्धे पर लदें तो उनकी पूर्ति के लिए अन्यत्र से बड़ी व्यवस्था करनी पड़ती है। बड़े उद्योगों का काम अपनी निजी पूँजी से नहीं चलता उन्हें बैंकों से उधार लेकर काम चलाना पड़ता है। इसी प्रकार महत्वपूर्ण प्रयोजनों के लिए व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य से काम नहीं चलता, किसी सामर्थ्य स्रोत के साथ सम्बंध जोड़कर काम चलाना पड़ता है। प्राण प्रत्यावर्तन, शक्तिपात, वरदान आदि नामों से अध्यात्म क्षेत्र में इसी प्रक्रिया को बड़े के द्वारा छोओं के लिए प्रयुक्त किया जाता रहा है।

प्रज्ञा परिजनों को युग संधि के बीस वर्षों में निजी व्यक्तित्व की प्रखरता सम्पादित करनी होगी साथ ही उस अतिरिक्त सामर्थ्य का उपयोग युग सृजन के लिए भी करना होगा। आत्म-कल्याण और लोक-मंगल के अलग-अलग प्रयोग दीखते हैं पर वस्तुतः वे दोनों एक ही तथ्य के दो पक्ष हैं। जो आत्मबल संग्रह कर सकेगा उसी के लिए लोक-मंगल का पराक्रम कर सकना सम्भव होगा। साथ ही यह भी तथ्य है कि जिसके मन में लोक-मंगल की उमंग है उसी के लिए आत्म-बल का अनुदान दिव्यशक्तियों द्वारा मिल सकना सम्भव है।

प्रज्ञा परिजनों में से प्रत्येक को अपनी मनःस्थिति एवं परिस्थिति के अनुरुप् नव-सृजन के छोटे बड़े उत्तरदायित्व बहन करने ही होंगे। जिन्हें कुछ अधिक न कर सकने की विवशता है उन्हें भी ‘न्यूनतम’ जितना अत्यन्त सरल घर, परिवार की सीमा तक सीमित कार्यक्रम सौंपा गया है।

जो समर्थ हैं उन्हें अधिक समय देने और अधिक पुरुषार्थ करने के लिए युग धर्म ने दबाव डाला है। दोनों को ही अपनी स्थिति के अनुरुप पुरुषार्थ करने होंगे। मूक दर्शक कोई भी नहीं रह सकता। चुप बैठने की छूट किसी को भी नहीं मिलेगी। जो उपेक्षा करेगा वह आत्म प्रताड़ना से, उससे भी अधिक घाटे में रहेगा जो कुछ परमार्थ अपनाने में सहन करना पड़ता। व्यक्ति और परिवार तक जिनकी साधना सीमित है उन्हें प्रज्ञा परिजन और जिन्हें समयदान, अंशदान की दृष्टि से अधिक पुरुषार्थ करने का सुयोग बन पड़ा रहा है, उन्हें ‘प्रज्ञा पुत्र’ की संज्ञा दी गई है। वैसे हैं तो वरिष्ठ दोनों ही अपने। कनिष्ठों को समर्पित बनकर देव स्तर में प्रवेश करने का आग्रह किया गया है।

ऐसी दशा में पूरे परिवार को अपने उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए इस विशेष समय में विशेष अनुदानों की आवश्यकता है। इसके बिना निजी पुरुषार्थ से उतना भर न बन पड़ेगा जितना इस विषम बेला में अभीष्ट है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए हिमालय के मध्य केन्द्र से इन दिनों अतिरिक्त शक्ति प्रवाह चल रहा है जिसे प्रातः व्यक्तिगत एवं सामूहिक साधना के रुप में उपलब्ध किया जा सकता है। महापुरश्चरण के भागीदार उसे ग्रहण कर भी रहे हैं। (1) प्राण संचार, कुण्डलिनी जागरण, स्थूल शरीर के लिए, (2) दिव्य दृष्टि-तृतीय नेत्र उन्मूलन, सूक्ष्म शरीर के लिए (3) अमृता प्राप्ति, अन्तःकरण स्फुरण, कारण शरीर के लिए। इस प्रवाह की तीन धाराएं हैं जिन्हें वरिष्ठ साधक इन दिनों संकल्प श्रद्धा के साथ अपना रहे हैं और समुचित लाभ ले रहे हैं।

इसके अतिरिक्त इसी शीतऋतु में दिवाली से होली के बीच पाँच-पाँच दिन के विशेष् अनुदान सत्रों का प्रबंध किया गया है ताकि छपे निर्देशों द्वारा समझने अपनाने में कमी रह गई हो, उसकी पूर्ति हो सके। यों पत्राचार विद्यालय और रेडियो पाठ्यक्रम में चलते ही हैं, उनसे उतना काम नहीं बनता। रोग का निदान और औषधियों का निर्धारण पत्रों से भी किया जा सकता है। पर प्रत्यक्ष मिलने से जो सुयोग बन पड़ता है वह पत्राचार से कहाँ सम्भव हो पाता है। साधनात्मक मार्गदर्शन एवं सहयोग भी प्राणवानों के सान्निध्य में रहकर विनिमय एवं आदान-प्रदान के माध्यम से अधिक प्रामाणिक रुप में मिल पाता है।

आठ वर्ष पूर्व शान्ति-कुँज में प्राण-प्रत्यावर्तन सत्र कुछ विशिष्ट व्यक्तियों के लिए लगे थे। इसके उपराँत चान्द्रायण समेत उच्चस्तरीय साधना के लिए कुछेक व्यक्तियों को बुलाया था। ब्रह्म वर्चस् की पंचाग्नि विद्या का यह तीसरा दौर है। यों उसको समग्र लाभ उठाने के लिए अधिक दिन उपयुक्त वातावरण में रहकर साधना करने की आवश्यकता पड़ती है, पर उसको साधक की स्थिति को देखते हुए सीमित मार्ग-दर्शन एवं आवश्यक अनुदान स्वल्प समय में भी दिया जा सकता है। शीत ऋतु में पाँच-पाँच दिन के सत्र इसी प्रयोजन के लिए लगाये गये हैं और उनके प्रज्ञापुत्रों तथा प्रज्ञा परिजनों को सम्मिलित होने के लिए बुलाया गया है। हरिद्वार में शीत ऋतु में हानि होने की बात किसी को भी नहीं सोचनी चाहिए। वैसा कुछ होने वाला नहीं है। विशिष्ट साधनाओं के लिए शीत ऋतु ही सर्वोत्तम मानी गई है। इन सत्रों को पिछले प्राण प्रत्यावर्तन एवं चान्द्रायण सत्र का सार संक्षेप तथा पंचाँग विद्या का नया समावेश सम्मिलित समझा जाना चाहिए।

युग सन्धि का गतिचक्र क्रमशः तीव्र से तीव्रतम होता जा रहा है। अस्तु सामयिक आवश्यकता देखते हुए अनुदान सत्र पाँच-पाँच दिन जितने स्पल्पकालीन ही रखे गये हैं। अधिक तो नहीं पर दस हजार प्रमुख प्रज्ञा पुत्र एवं नैष्ठिक साधकों को इसी शीत ऋतु में निपटना है। बाद में तो उद्घाटन प्रवास के लम्बे दौरे चल पड़ेंगे। ऐसी दशा में फिर दुबारा यह सुयोग किसे कब मिल सकेगा यह कहा नहीं जा सकता। इसबार की शीत ऋतु ही कठिनाई से इस अनुदान प्रयोजन के लिए बनाई गई है। सत्र के दिन तो पाँच ही हैं, पर उनकी व्यस्त प्रक्रिया ऐसी है जिसमें हर साधक की स्थिति के अनुरुप् उसके भविष्य का साधनात्मक मार्ग दर्शन एवं सामयिक अनुदान की व्यवस्था वस्तुस्थिति को समझते हुए की जा सके। यह थोड़ा समय भी एक वर्ष की विशिष्ट साधना से भी अधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धि हो सके।

इन सत्रों में मात्र नैष्ठिक साधक एवं वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों को ही आमन्त्रित किया गया है। अस्तु अपनी साधना तथा लोकमंगल में प्रवृत्ति का परिचय देते हुए ही सम्मिलित होने के लिए आवेदन-पत्र भेजने को कहा गया है। गरिष्ट, पौष्टिक पदार्थ बिना श्रम साधना के नहीं पचते। इसी प्रकार दिव्य अनुदान भी बिना परमार्थ साधना के आत्मसात नहीं हो पाते। बिना आत्मसात हुए पाना न पाना सर्व निरर्थक है। इसीलिए स्वीकृतियाँ देख समझकर ही दी जायेंगी।

बाल बच्चे, पड़ौसी सम्बन्धी, साथ लेकर चलते पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। अनावश्यक भीड़भाड़ से इन वरिष्ठ सत्रों की गरिमा घटेगी। अतएव मात्र वरिष्ठ साधकों को ही उनमें सम्मिलित किया जाएगा। तीर्थयात्रा र्प्यटन जैसी सुविधा न मिलने से अनावश्यक लोगों को साथ लाना सभी के लिए असमंजस का निमित्त बनेगा। ऐसी भीड़ पर प्रतिबन्ध तो पहले भी था पर इन सत्रों में उसमें विशेष कड़ाई बरती जायेगी। प्रतिबन्ध तोड़ने वालों को बैरिंग वापिस भी लौटना पड़ सकता है। परिवार सत्र गर्मियों से आरम्भ हो जायेंगे। जिन्हें बच्चों समेत आना वे अपने आने की योजना उस शांखला के अर्न्तगत बनाये और फिर कभी आवें।

शिविर में आये परिजनों को हरिद्वार एवं ऋषिकेश के दर्शनीय स्थल देखने की सुविधा भी दी जायेगी, किन्तु उसका समय एवं क्रम निश्चित होगा। मन चाहे ढंग से किसी को भी कहीं भी जाने की छूट नहीं होगी।

सत्रों में सम्मिलित होने वाले हर साधक से प्रायश्चित विधान कराया जायेगा। प्राश्श्चित द्वारा शुद्ध हुई मनोभूमि पर ही अनुदानों की स्थापना और उनका फलित होना सम्भव होता है।

साधकों में दिव्य संस्कारों के उदय का प्रयास आहार के माध्यम से भी चलेगा। हिमालय की सिद्ध बनौषधियों का क्वाथ चाय की तरह पीने को दिया जायेगा। भोजन के साथ आँवले एवं वनौषधियों की चटनी रहेगी। भोजन में केवल हविष्यान्न और मूँग की दाल का ही समावेश होगा। उसके अतिरिक्त कुछ और खाने पर प्रतिबन्ध होगा। विशेष आवश्यकता पड़े तो संचालकों के परामर्श एवं स्वीकृति से ही हल निकाले जा सकेंगे।

हर साधक को निर्धारित साधनाक्रम पूरा करना होगा। साधकों की स्थिति देखकर उनके लिए कुछ विशेष साधनाओं तपश्चर्याच का निर्धारण भी किया जा सकता है। शक्ति संचार की तीनों ध्यान धारणाओं का अभ्यास स्वयं गुरुदेव करायेंगे।

शीत ऋतु के यह अनुदान सत्र 15 होंगे। उनकी सूची इस प्रकार है -

(1) 20 से 24 नवम्बर 80, (2) 26 से 30 नवम्बर 80, (3) 1 से 5 दिसम्बर 80 (4) 7 से 11 दिसम्बर 80, (5) 13 से 17 दिसम्बर 80, (6) 19 से 23 दिसम्बर 80, (7)1 से 5 जनवरी 81, (8) 7 से 11 जनवरी 81, (9) 13 से 17 जनवरी 81, (10) 19 से 23 जनवरी 81, (11) 1 से 5 फरवरी 81, (12) 7 से 11 फरवरी 81, (13) 13 से 17 फरवरी 81, (14) 19 से 23 फरवरी 81, (15) 25 फरवरी से 1 मार्च 81 ।

सम्मिलित होने वाले समय रहते अपना स्थान सुरक्षित करा लें। सीमित स्थान पूरे हो जाने पर अगले वर्ष या फिर कभी के लिए प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।


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