न श्रेयः सततं तेजो, न नित्य श्रेयसी क्षमा।तस्मान्निव्यं क्षमा तात, पण्डित रवादिता॥
बेटे न सदा क्रोध की कल्याणकर है न निरंतर क्षमा ही, इसलिए आचार्यों ने निरंतर क्षमा के लिए अपवादों की, विशेष अवसरों के लिए विशेष नियमों की रचना की है।