जीवन और मरण की अविच्छिन्न शांखला

November 1980

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सुकरात को जहर दिए जाने की तैयारी चल रही थी।शिष्य, मित्र, सहयोगी, समबन्धी सभी के नेत्र सजल हो उठे। प्राणों से प्रिय अपने मार्गदर्शक के विछुड़ने की वेदना असहाय हो रही थी। पर सुकरात पर इसका कोई प्रभाव नहीं था। उल्टे उस दिन अन्य दिनों की अपेक्षा प्रसन्नता, प्रफुल्लता मुख मण्डल पर और भी अधिक परिलक्षित हो रही थी मृत्यु को गले लगाने की आतुरता सुकरात की देखते बनती थी। ऐसा लगता था कि किसी प्रिय जन से मिलने की उत्सुकता हो। मित्रों ने - शिष्यों ने इस आतुरता का कारण रोते हुए पूछा। सुकरात ने कहा - ‘मैं मृत्यु का साक्षात्कार करना चाहता हूँ तथा यह जानना चाहता हूँ कि मृत्यु के बाद हमारा अस्तित्व रहता है या नहीं। मृत्यु जीवन का अन्त है अथवा एक सामान्य परिवर्तन क्रम।’

सुकरात की निर्धारित समय पर विष दे दिया गया। सभी आत्मीय उन्हें घेरे हुए बैठे थे - नेत्रों से अश्रु की अविरल धारा बर रही थी। सुकरात ने कहा - “मेरे घुटने तक विष चढ़ गया है - पैरों ने काम करना बंद कर दिया - वे मर चुके किन्तु मैं फिर भी जीवित हूँ। मेरे अस्तित्व में थोड़ा भी अन्तर नहीं आया -मैं पूर्ण हूँ। देखो! मेरे हाथों ने, कमर ने, नेत्रों ने काम करना बन्द कर दिया -निर्जीव हो गये किन्तु मैं ठीक पहले जैसा हूँ।” उपस्थित स्नेही, सहयोगी फूट-फूटकर रोने लेग। सुकरात ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा “देखो! तुम्हें जीवन की वास्तविकता को समझने का एक अलभ्य अवसर मिला है। एक व्यक्ति मृत्यु की अवधि से गुजर रहा है तथा तुम सबको सन्देश दे रहा है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं-एक अविरल प्रवाह है। जीवन की सत्ता मरणोपरान्त भी बनी रहती है।

रुस के पसिद्ध गणितज्ञ डा. पी.डी. आस्पेंस्की की रुग्णता इस सीमा तक बढ़ी कि चिकित्सकों ने विस्तर से भी उठने को मनाकर दिया। तीन माह के भीतर चिकित्सकों ने उनके मरने की घोषणा कर दी। आस्पेंस्की ने सोचा कि जब मरना ही है तो विस्तर पर क्यों मरा जाय? मृत्यु का साक्षात्कार क्यों न किया जाय? वह उठा और चल पड़ा। निरन्तर चलता रहा। मित्रों ने अस्वस्थता की याद दिलायी तथा विश्राम के लिए सलाह दी। उनने कहा मैं अचेतन अवस्था में नहीं मरना चाहता। पूर्ण चेतना के साथ मृत्यु को देखना चाहता हूँ। विस्तर पर मरने की अपेक्षा चलते-चलते मृत्यु को गले लगाना चाहता हूँ। वह चलते-चलते मरा। अन्तिम पग रखने से पूर्व उसने कहा-”अब वह शरीर गिरने वाला है। तुम सब यह देखोगे किन्तु मैं तो बहुत समय पूर्व से देख रहा हूँ कि ‘शरीर ने साथ छोड़ दिया है, पर मेरी सत्ता पर कोई प्रभाव नहीं है - मैं यथावत हूँ। अन्तिम घड़ियों में उपस्थिति प्रत्यक्षदर्शियों ने कहा कि ‘आस्पेंस्की की आँखों में जो चकम, चहरे पर शाँति देखी गई, वह उसके जीवन में पहले कभी नहीं दिखाई पड़ी थी।

जीवन शाश्वत है-एक सतत चलने वाला अविरल प्रवाह है, यह अनुभव उन व्यक्तियों का है जिन्होंने मृत्यु को जानने एवं साक्षात्कार करने का प्रयास किया। अविछिन्न प्रवाह के एक घोर जीवन के साथ तथा दूसरे घोर मृत्यु को एक सहज, स्वाभाविक घटनाक्रम मान लिया जाय तो मृत्यु के सम्बन्ध में व्याप्त अनावश्यक भय एवं भ्रान्तियों से सहज ही बचा जा सकता है। कठिनाई अनभिज्ञता की पड़ती है। परिचित स्थानों एवं व्यक्तियों से डर नहीं लगता। अनजान व्यक्तियों एवं स्थानों से मिलने एवं जानने में भय लगता है। किन्तु वे परिचित हो जाने पर स्वाभाविक लगते तथा अनुभव होता है कि भय अकारण था। अन्धकार इसलिए डरावना नहीं लगता कि वस्तुतः वह डरावना है वरन् अनजान होने के कारण प्रतीत होता है। अन्धकार में भूत-प्रेत रहते तथा मनुष्य को त्राण देते हैं यह मानसिक कल्पना उसी समय तक बनी रहती है, जब तक कि अंधेरे में प्रवेश न किया जाय। मानसिक भ्रान्तियों का निवारण तो अंधकार के साक्षात्कार से होता है।

मृत्यु के संबध में भी इसी प्रकार की भ्रान्तियाँ फ्रली है। उसे कष्टकारक एवं जीवन का अन्त कर देने वाला मान लिया जाता है। अपने अस्तित्व के अन्त होने की कुकल्पना मनुष्य को जीवनपर्यन्त व्यग्र बनाये रहती तथा उतना कष्ट देती है जितना कि मृत्यु की अवधि में भी नहीं होता।

मृत्यु जीवन की विश्राम स्थली है जहाँ जीवात्मा अपनी थकान दूर करती, नये जीवन के लिए शक्ति प्राप्त करती है। थकान दूर करने के लिए श्राम तो नित्य ही करते हैं। पुनः नई शक्ति-एवं स्फूर्ति से दैनिक कार्यों में जुट जाते हैं। विश्रामावधि में जाने में न तो डर लगता, न ही किसी प्रकार की कठिनाई अनुभव होती है। विश्राम के अभाव में तो व्यय हुई शक्ति की आपूर्ति नहीं हो पाती। काया कमजोर तथा श्रम के अयोग्य हो जाती है। जीवन भर की थकान को मिटाने के लिए-भावी जीवन के लिए शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से मृत्यु रुपी विश्राम अवधि भी उतनी ही आवश्यक है। काय-परिवर्तन इसलिए आवश्यक हो जाता है कि लम्बी अवधि तक श्रम करने के कारण वह इस योग्य नहीं रहती कि कठोर श्रम कर सके। पुराने फटे वस्त्रों को बदल कर-नये पहन लिए जाते है। जर्जर हो गई मशीनों को पूर्ण रुपेण परिवर्तित कर देना ही उचित होता है। इन परिवर्तनों में न तो किसी प्रकार का दुराग्रह होता-न आशक्ति और न ही किसी प्रकार का भय। नये के प्रति परिवर्तन के प्रति भयभीत हो जाने अथवा पुरातन के प्रति आसक्ति बने हरहने से उन लाभों से बंचित रह जाना पड़ता है, जो नये वस्त्रों एवं वस्तुओं से मिलता है। मृत्यु के सम्बन्ध में भी यही बात लागू होती है।

मृत्यु इसलिए भी आवश्यक एवं उपयोगी है कि जीव नये जीवन का-परिवर्तन का-आनन्द ले सके। मृत्यु का क्रम रुक जाय, उस स्थिति की कल्पना की जाय तो पता चलता है कि जीवन कितना नीरस, एवं उभरा होगा। लम्बी आयु, अमर काया-जर्जर, अशक्त बनी लाश ढोने के समान होगी, बुढ़ापा वैसे ही कितना नीरस भरा-भरा प्रतीत होता है। उस पर भी यदि उसके साथ अमरता का वरदान जुड़ जाय तो कितनी कठिनाई होगी। निश्चित ही कोई विचारशील, काया रुपी अमरता को स्वीकार न करना चाहेगा। असमर्थ, अशक्त, जराजीर्ण काया की गठरी के बोझ को कौन सदा ढोना चाहेगा?

फिर मृत्यु से डर क्यों लगता है? शरीर के प्रति आशक्ति क्यों बनी रहती है? इन कारणों पर विचार करने पर पता चलता है कि मृत्यु एवं जीवन के स्वरुप की वास्तविक जानकारी न होने के कारण ही भय लगता है। हमारी सत्ता शरीर से अलग है-शाश्वत, अविनाशी एवं अमर है, यह बोध बना रहे तो मृत्यु की आशंका से भयभीत होने का कोई कारण नहीं दीख पड़ता। शरीर सत्ता को ही सब कुछ मान लेने, मृत्यु के साथ जीवन का अन्त समझ लेने से ही डर लगता है। शास्त्र इसीलिए निर्देश देते हैं कि अपनी सत्ता को जानो और पहचानो।

जीवन और मरण की परस्पर जुड़ी हुई अविछिन्न शांखला का स्वरुप समझा जाय और इस सुर-दुर्लभ कराया का श्रेष्ठतम सदुपयोग ध्यान में रखा जाय तो जागृति और निद्रा की तरह जन्म और मृत्यु में कोई भी अद्भुत अप्रत्याशित या अनुपयुक्त प्रतीन न होगा।


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