अर्न्तमन का परिष्कार, योग साधना से

November 1980

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मनुष्य की बुद्धि वस्तुओं, प्राणियों और परिस्थितियों पर नियंत्रण करती है। इसी नियमन क्षमता द्वारा वह प्रकृति का लाड़ला बेटा कहलाता है और उसकी संचित सम्पदा में से मनचाहे उपहार पाता है। इतने पर भी आर्श्चय इस बात का है कि वह अपने पर नियमन नहीं कर पाता। स्वभाव में कुछ एी आदते घुस पड़ती है जो उपयोगिता की कसौटी पर सर्वथा अनावश्यक एवं हानिकारक दीखती है, फिर भी वे छूटती नहीं। नशेबाजी की लत ऐसी ही है जिसकी हानियों से उसका प्रयोक्ता भी परिचित होता है। बहुधा उसे छोड़ने की बात सोचता भी है, पर आदत इतनी गहराई तक भीतर घुसी होती है कि वह किसी के समझाने-बुझाने की - निन्दा, विरोध की परवा न करके अपने स्थान पर जमा रहता है। छूटने, हटने का नाम नहीं लेता। प्रयोक्ता अपने आपको विवश असहाय अनुभव करता है ओर आदत की गुलामी स्वीकार किये रहता है। भले ही उसमें उसे हर प्रकार की बर्वादी सहन करनी पड़े।

नशेबाजी एक उदाहरण भर है। ऐसी-ऐसी शारीरिक कुटेवों और मानसिक सनकें आदमी पर हावी रहती है। कुसंस्कार इन्हीं को कहते हैं, जो अशोभनीय, अहितकर होते हुए भी स्वभाव का अंग बनकर रहते हैं और छुड़ाये नहीं छूटते। दूसरों को समझाने फुसलाने में प्रवीण व्यक्ति भी बहुधा कुत्साओं से नहीं छूट पाते। कुण्ठाएं उन पर लदी रहती है और सुसंस्कारी बनने की इच्छा एक कोने पर धरी रह जाती है।

अर्न्तमन की संरचना ऐसी जटिल है कि उस क्षेत्र के प्रवाहों को रोकना, मोड़ना बहुत कठिन पड़ता है। तर्क में विचार बदले जा सकते हैं, पर जमे हुए विश्वासों को उलटना टेड़ी खीर है। व जिस गहराई में अपनी जड़ें जमाये रहते हैं वहाँ तक न तर्क पहुँच पाते हैं और न तयों का असर पड़ता है। मूढ़ मान्यताएं - अन्य परम्पराएं अपनाने तथा दुराग्रही होने का लाँछन लगने पर भी लोग अपनी पुरानी लकीर को पीटते रहते हैं। मौखिक समर्थन करने पर भी औच्ित्य का - स्वभाव का अंग बन सकना किन्हीं विरलों के लिए ही सम्भव होता है।

अचेतन को प्रभावित किये बिना संचित पशु प्रवृत्तियों से छूटकारा पाना कठिन है। यदि इस क्षेत्र में सफलता न मिले तो मनुष्य व्यक्तित्व के क्षेत्र में अनगढ़ ही बना रहेगा। भले ही वह समृद्ध शिक्षित समझा जाता रहे। अन्तरंग को बदलने की - आत्म नियमन की क्षमता जिस भाग्यवान को मिल सके समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य का भाग्योदय सामने आकर खड़ा हो गया।

इस दिशा में सफलता प्राप्त करने का एक ही उपाय है - योगाभ्यास। ध्यानयोग के अर्न्तगत आने वाले धारणा और प्रत्याहार उपचारों को अपनाने से साधक की संकल्प शक्ति इतनी प्रखर हो सकती है कि मनोनिग्रह एवं स्वभाव परिष्कार सम्भव हो सके।

चित्त वृत्तियों का नियमन, सरकसों के लिए हिंसक पशुओं को साधने के समान कठिन होते हुए भी असाधारण लाभदायक है। इस प्रणाम में योगसाधना एवं तपश्चर्या का हंटर ही काम देता है। अन्यथा वे छेड़खानी करने वाले पर ही उलट कर हमला करती है। महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को ‘योग’ कहा है। योग का अभिप्राय चित्त-वृत्तियों पर नियंत्रण करना है। इस साधना पथ को राजयोग या अष्टाँग योग के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसका उद्देश्य मन को सही रुप से समझ कर उसकी अपार शक्ति को नियंत्रित करके सदुपयोग करने का है।

इस योग-प्रक्रिया के आठ सोपान हैं अंतिम सोपान समाधि है। समाधि का उद्देश्य मनुष्य की आन्तरिक चेतना का विकास वह महान क्षमता अर्जित करता है जिससे जीवन की वास्तविकता को समझ कर उसकी समस्याओं का आत्यन्तिक समाधान हो सके। प्रथम पाँच सोपान-यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार हैं। ये पाँच योग के बहिरंग साधन कहलाते हैं। इनके अभ्यास से ही शरीर और मन अगले सोपानों के लिए पृष्ठभूमि बनते हैं। धारणा, ध्यान और समाधि ये तीन योग के अंतरंग अभ्यास कहे जाते हैं।

चित्त के संस्कार ही मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। चेतना के विकास के साथ-साथ संस्कार छूटते जाते हैं। योगाभ्यास द्वारा मानव-मन सशक्त एवं सक्षम बनता जाता है साथ ही निर्मल व परिष्कृत भी होता जाता है। वस्तुतः मन का परिष्कार ही चित्त का परिष्कार है। चित्त का परिष्कार होते समय बुरे एवं कुत्सित विचार निष्कासित होते हैं जिन्हें देखकर बहुत से साधक प्रारंभिक अवस्था में घबड़ा उठते हैं जब कि ऐसी कोई भयोत्पादक बात नहीं, यह स्वाभाविक है जब अशुद्धियाँ निष्कासित होती हैं तो दुर्गन्ध आती ही है। इसी प्रकार चित्त की शुद्धि के समय बुरे विचार, अनुभव बाहर निकलते हैं। गन्दगी विचारों के रुप में निकलती चली जाती है। जिनमें अनेकों दबी-छुपी इच्छाएं, वासनाएं सम्मिलित होती है।

मनुष्य का चित्त बड़ा ही विलक्षण है। चित्त जब पूर्ण रुपेण शुद्ध हो जाता है तो उसकी अंतिम स्थिति असाधारण शक्ति सम्पन्न उसी प्रकार की होती है जैसे यूरेनियम, प्लूटोनियम आदि की अवस्था आणविक ऊर्जा होती है। विभिन्न स्तरों पर ऊर्जा विभिन्न गुणों के रुप् में प्रकट होती है। तमोगुण की अधिकता वाले व्यक्ति में विकास की प्रक्रिया अत्यधिक मन्द गति से होती है। जिसका अनुभव बड़ी मुश्किल से होता है। रजोगुण प्रधान साधक में विकास की गति तीव्र होती है। सतोगुणी के विकास में संतुलिस स्थिति रहती है। जीवन के दैनिक क्रिया-कलापों में तीनों गुणों के माध्यम से ही चित्त कार्य करता है। अष्टाँग योग के सम्यक् अभ्यास से व्यक्ति चेतना के उच्चस्तर तक पहुँच जाता है। मस्तिष्क के विभिन्न भागों को क्रियाशीलता के आधार पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। बाँया भाग एवं दायाँ भाग इन्हें ही सेरेब्रल हेमिस्फिर्स कहते हैं। खोजों से ज्ञात हुआ है कि मस्तिष्क का दाहिना भाग जिसका संबंध व्यक्ति की मेधा व प्रज्ञा से होता है उसके विकसित होने से सृजनात्मक बुद्धि चित्रकला, नृत्यकला, स्नेह व उदारता व अन्तरप्रज्ञा का विकास होता है। इसके विपरीत बाएं भाग का सक्रियता के फलस्वरुप विश्लेषणात्मक व तार्किक बुद्धि का विकास होता है, इसके विषय गणित, विज्ञान, साहित्य, लेखन, कानून, शासन अदि हैं। अभी तक की उपेक्षित कला प्रियता के अभाव में शाविदों व मनोवैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिकों का कहना है कि मस्तिष्क का एक पक्षीय विकास मानव जीवन पर हानिकारक प्रभाव डालते हैं।

प्रसिद्ध शिक्षा शोधार्थी श्री विवियनशेरमेन ने न्यूटन, आइन्स्टीन जैसे महान वैज्ञानिकों के उदाहरणों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उन्हें वैज्ञानिक उपलब्धि अन्तर्प्रज्ञा के विकसित होने के कारण मिली जो मस्तिष्क के दाएं भाग का कार्य है और बाद में बाएं मस्तिष्क के सक्रिय होने पर उसे भौतिक स्वरुप प्रदान किया गया। श्री विवियन के अनुसार यदि मस्तिष्क के बाएं भाग को सक्रिय न किया गया और भौतिक लिप्सा की प्राप्ति हेतु मात्र बाएं मस्तिष्क की कला कुशलता पर जोर दिया गया तो कुछ पीढ़ियों के बाद मस्तिष्क का एक भाग पूर्ण निष्क्रिय हो जाएगा, जिसके घातक परिणाम मानव समाज के समक्ष प्रस्तुत होंगे।

अध्यात्म विज्ञान के अर्न्तगत मस्तिष्क के दोनों भागों के बीच समन्वय स्थापित करने वाली नाना प्रकार की योग साधनाएं है इनमें मन्त्र जप से लेकर ध्यान, धारणा, आसन, प्राणायम, नाड़ीशोधन प्रक्रिया आदि वैज्ञानिकों द्वारा मन्यता प्रापत वापोधीडंबक के व्यायाम इस कार्य में विशष लाभकारी सिद्ध हुए हैं। योगाभ्यास के अंतर्गत इसे क्रियायोग की संज्ञा दी जाती है। वैज्ञानिक वेनक्वेट ने क्रियायोग के प्रयोग से यह सिद्ध कर दिखाया है कि इसके सतत अभ्यास से दोनों मस्तिष्कों का समान विकास होता है जिससे मानसिक संतुलन बढ़ता है व असमान्य मनःस्थिति नियंत्रित होती है। ध्यान, धारणा व क्रियायोग के सतत् अभ्यास से एक समय ऐसा भी आता है जब कि मनुष्की अन्तर्प्रज्ञा जागृत होती है और बिना कसी प्रकार के अध्ययन के ही नाना प्रकार के गूढ़ रहस्यों का विवेचन सम्भव होता है तथा प्रकृति की अनेक रहस्यमयी जानकारियाँ उसके करतलगत हो जाती हैं। भारतीय ऋषि व योगी इसके अनुपम उदाहरण हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अनुसंधानों में पाया कि दाएं मस्तिष्क का संबंध इड़ा नाड़ी से व बाएं का संबंध पिंगला नाड़ी से है।

मस्तिष्क विकास एवं कौशल अभ्यास के लिए प्रशिक्षण की अनेक व्यवस्थाएं मौजूद हैं। वे मनुष्य को चतुत बनाती है। चतुरता से सम्पन्नताओं और सफलतापओं का पथ-प्रशस्त होता है। इतने पर भी अन्तराल में सन्निहित मान्यताएं और प्शु प्रवृत्तियों के निष्कासन में इस बुद्धि वैभव का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। व्यक्तित्व की निकृष्टता पिछड़े और प्रगतिशील समझे जाने वाले दोनों ही वर्गों में प्रायः एक जैसी पाई जाती है। स्पष्ट है कि मनुष्य की उत्कृष्टता, प्रामाणिकता एवं चिरस्थायी सफलता के लिए व्यक्तित्व का उच्चस्तरीय होना आवश्यक है। इसके लिए क्या कहा जाय यह तो सर्वविदित है, पर क्या किया जाय इसका उपाय खोजने पर दरवाजे बन्द प्रतीत होते हैं। अचेतन की हठवादिता को बदल सकना सहज काम नहीं है।

इस प्रसंग में एक ही उपचार बार-बार हो सकता है। वह है योगाभ्यास और तप साधना। तपश्चर्या की आग में कुसंस्कारों की गलाया जाता है और योग साधनों से उसे उपयुक्त ढाँचे में ढाला जाता है। कुसंस्कारिता से छुटकारा पाने और सुसंस्कारी व्यक्तित्व निर्मित करने के लिए योगसाधन का जितना महत्त्व है उतना और किसी उपाय, उपचार का नहीं है।


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