जीवन की सभी विषमताओं से संघर्ष सम्भव

November 1980

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परिवर्तन जीवन्तता का प्रतीक है। स्थिर और अचल स्थिति में जड़-पदार्थ और निष्प्राण शरीर ही रहते है। यदि जीवन चेतना का अस्तित्व है तो परिस्थितियों में परिवर्तन उतार-चढ़ाव भी नितान्त स्वाभाविक एवं अनवार्य है। उनका प्रभाव भी पड़ता है। बहुत से लोग समझते हैं कि अनुकूल परिस्थितियाँ विकास एवं प्रगति में सहायक होती हैं तो प्रतिकूलताएं अवरोध। एक सीमा तक यह सही भी है। लेकिन जीवटदार और मनोबल सम्पन्न व्यक्तिया को प्रतिकूलताएं भी चुनौती देती है और अनुकूलताओं की अपेक्षा कहीं अधिक सहायक सिद्ध होती ह। इस चुनौती भरी स्थिति में मनुष्य की अन्तर्निहित ऊर्जा प्रसुप्त स्थिति से जागृत होकर अवरोधों को हटाने, मिटाने में लग जाती है। सामान्य अवस्था में वह शक्ति प्रसुप्त ही रहती है जो प्रतिकूल परिस्थितियों में किसी दैवी सहायता की तरह उभर कर आती है।

कई व्यक्ति प्रतिकूलताओं के भय से वर्तमान ढर्रे को बदलते हुए घबराते हैं और सोचते हैं कि परिवर्तन को सहन करना उनके लिए सम्भव न होगा। लेकिन यदि मानवी सत्ता का विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि परिस्थितियों के अनुरुप अपने को ढाल लेने की उसकी क्षमता अद्भूत है। जिन परिस्थितियों में उसे रहना पड़ता है वह उसी के अनुरुप अपनी रुचि और प्रकृति को ही नहीं, शारीरिक क्षमता को भी डाल लेती है।

परिवर्तन को सहन न कर पाने का भय या आशंका उस स्थिति में विशेष रुप से उत्पन्न होती है जब सुविधाजनक जीवन में से निकल कर किसी महान् उद्देश्य के लिए कष्टसाध्य जीवन अपनाने की जरुरत पड़ती है। निस्सन्देह सेवा, साधना और परमार्थ प्रयोजनों का मार्ग सुख सुविधाओं से भरा नहीं है। उसमें अपेक्षाकृत अधिक श्रम करना पड़ता हे और सुख सुविधाओं में भी कटौती करनी पड़ती है। लेकिन उस आदर्श को अपनाने से ऐसा कोई संकट उत्पन्न नहीं होता कि मनुष्य के लिए वह सहन करना भी दुष्कर हो जाय।

फिर भी इस तरह का भय तो उत्पन्न होता ही है कि सुविधायें छोड़ देने पर उनका अभ्यस्त अपना जीवन-क्रम किस प्रकार चलेगा। परमार्थ प्रयोजनों में सुख सुविधाओं की कटौती तभी तक डरावनी ओर शंकित लगती है जब तक कि उस क्षेत्र में प्रवेश नहीं किया जाता। जिसने तैरना नहीं सीखा है उसे पानी में घुसना संकट को निमन्त्रण देना जैसा लगता है, पर जब नौसिखिये पानी में घुसते और हाथ-पैर चलाना आरम्भ करते हैं तो विश्वास होता है कि न तो पानी में घुसना उतना संकटापन्न था और न तैरने की प्रक्रिया ही इतनी जटिल थी।

अभ्यास हर कठिनाई को सरल बना देता है। क्योंकि मनुष्य में परिस्थितियों के अनुरुप अपने आपको ढालने की क्षमता अद्भुत और आर्श्चयजनक रुप से विद्यमान है। उसकी इस क्षमता का कहीं अंत ही नहीं है और अन्यास किया जाय तो कोई भी व्यक्ति ऐसी विकट परिस्थितियों में भी संतोष तथा आनन्द के साथ जीवन व्यतीत कर सकता है जो अनभ्यस्त लोगों को मृत्यु जैसी प्रतीत होती है। उदाहरण के लिए शीत सम्बन्धी सहनशीलता को ही लिया जाए। साधारण सर्दी भी कई लोगों के लिए बाहर निकलना दुश्वार कर देती है। उत्तरी ध्रुव और दक्षिणी ध्रुव की सर्दी तो इतनी भयंकर होती है कि उसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। जहाँ सदैव असह्य शीत पड़ता हो और सर्वत्र बफ्र की मोटी परतें ही नजर आती हैं, बर्फीली हवाएं अधिक चलती हैं। वहाँ कैसे निर्वाह हो सकता है, सामान्य व्यक्ति के लिए इसकी कल्पना कर पाना भी कठिन है।

परंतु जब से यह पता चला कि ध्रुव प्रदोशों मं पहुँच कर वहाँ पृथ्वी के गहन रहस्यों का पता लगाया जा सकता है। वहाँ के अन्तर्ग्रहीय विकिरण के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का आसानी से अध्ययन किया जा सकता ह। इतना ही नहीं उस क्षेत्र में दबी पड़ी प्रचुर धातु सम्पदा का हस्तगत होना भी सहज सम्भव है। इन सम्भावनाओं को जाँचने के लिए यह आवश्यक हो गया कि शोधकर्ता वैज्ञानिकों का दल देर तक वहाँ रहे और अपना खोज कार्य जारी रखे। ध्रुव प्रदेश के बर्फीले भू-भाग पर हमेशा दो सौ मील प्रति घण्टे की चाल वाले बवण्डर, तूफान चलते हैं। इन बवन्डरों में बफ्र के टुकड़े और कण उसी तरह उड़ते, लहराते रहते हैं जिस प्रकार हवा और आँधी में धूलि कण। वहाँ का तापमान शून्य से 125 डिग्री नीचे रहता है। चारों ओर बफ्र ही बफ्र जीम रहती है, जमीन के कहीं दर्शन तक नहीं होते। नीरवता का साम्राज्य है, चारों ओर सन्नाटा तथा सुनसान वातावरण। सूर्यास्त के समय वहाँ ऐसी चित्र-विचित्र भयंकर आकृति वाली ज्योतियाँ दिखाई देती हैं कि लगता है प्रेतलीला हो रही हो।

ऐसे प्रदेश में जान, मौत के मुँह में घुसने जैसा ही हो सकता है। पर दुस्साहसी मनुष्य प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थितियों की चुनौती स्वीकार कर अपने शौर्य एवं साहस का परिचय देते है। ध्रव प्रदेशों की खोज के लिए भी वही साहस आगे आया और उस हिमाच्छादित प्रदेश में बस्ती वसा कर रहना स्वीकार कर लिया गया। यह कार्य कई वर्षों से निरंन्तर चल रहा है और सुविधा पूर्ण जीवनयापन करने वाले अब इस असुविधा भरी परिस्थितियों के न केवल अभ्यस्त हो गए हैं, वरन् आनन्द भी अनुभव करते हैं।

इस शोध कार्य में बारह देशों के वैज्ञानिक भाग ले रहे हैं। ब्रिटेन, अमेरिका और रुस के वैज्ञानिकों ने तो दक्षिणी ध्रुव प्रदेश का धरातल ऐसा है कि वहाँ हल्के से हल्का खेमा भी गाढ़ा जाय तो भी प्रतिवर्ष खेमा छह फुट बफ्र में धंस जाता है। इस कठिनाई से बचने के लिए वैज्ञानिक डेरे गाढ़ते समय अपने साथ जहाजों में पत्थर लेकर आते हैं ताकि धसने की अड़चन अपेक्षाकृत कम उठानी पड़े। इस क्षेत्र में केवल पैगुइन पक्षी ही रहते हैं, जो वहाँ पहुँचे वैज्ञानिकों को हलचल कुतूहलपूर्वक देखने के लिए अक्सर पंक्तिबद्ध आकर खड़े हो जाते हैं।

इस प्रदेश में शोधरत वैज्ञानिकों और उनके कर्मचारियों को चमड़े के कपड़े पहनने पड़ते है। और दुहरे तिहरे गरम मौजे। फिर भी ठण्ड की अधिकता से बचा नहीं जा सकता। बिजली के उपकरण, तेल, आवश्यक यंत्र तथा खाद्य-पदार्थ आदि जरुरी वस्तुएं वहाँ जहाजों द्वारा पहुँचाई जाती है। वस्तुओं और कुछ भारी उपकरणों को ढोने के लिए वहाँ हलके टैंक भी पहुँचा दिये गये हैं। अब वहाँ शोधकर्ताओं और उनके साथ गये कर्मचारियों के लिए कुछ बस्तियाँ भी बसा दी गई है। विर्डस्टेशन, मैकमर्डी, अपडसन, स्कार्ट, एल्सवर्थ, हैलट आदि वैज्ञानिकों के नाम पर बनी इन बस्तियों में ही आवश्यक संयंत्र लगे हुए हैं जो उन सम्भावनाओं की खोज में निरत है जिनसे अगले दिनों संसार के भाग्य और भविष्य निर्माण में भारी सहयोग मिल सकेगा।

दक्षिणी ध्रुव प्रदेश में ग्रीष्म ऋतु प्रायः जनवरी, फरवरी के महीनों में आती है। पर उन दिनों भी अधिकतम तापमान जीरों डिग्री सेन्टीग्रेड रहता है। इसी ऋतु में वहाँ जहाजों से माल पहुँचाया जाता है। इस प्रदेश का क्षेत्रफल भारत से लगभग पाँच गुना अधिक है। करीब दो हजार मील दूर इस प्रदेश में कहीं कोई आबादी है। अब तक की खोज खबर से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि इस भू-भाग के नीचे सोना, चाँदी, टिन, कोयला, लोहा, जस्ता, अभ्रक, सीसा, यूरेनियम, क्रोफाइट आदि धातुओं का विपुल भण्डार है। इस सम्पदा को यदि निकाला जा सके तो संसार की समृद्धि में भारी बढ़ोतरी हो सकेगी। यदि इस प्रदेश को यातायात के उपयुक्त बना लिया गया और उधर से वायुयानों और जलयानों का गुजरना सम्भव हो सका तो पृथ्वी के किसी भी दूरवर्ती कोने से पहुँचना अपेक्षाकृत अधिक सरल हो जायेगा।

यह भी सम्भावना बताई जा रही है कि यदि मनुष्य दक्षिणी ध्रुव तक सरलतापूर्वक पहुँच सका तो वहाँ से राकेट, भारी वायुयान आदि चलाना सरल पड़ेगा। अमेरिका से अफ्रीका की और आस्ट्रेलिया से आस्ट्रेलिया की ओर वायुयान द्वारा यात्रा करने में बहुत कम समय लगेगा तथा बहुत कम दूरी तय करनी पड़ेगी। यही नहीं इस क्षेत्र में अन्तरिक्षयान छोड़ने में भी भारी सुविधा रहेगी। समस्त पृथ्वी की सूचनाएं एक स्थान पर एकत्रित करना इस एक जगह पर अपेक्षाकृत अधिक आसान रहेगा। धरती पर सर्वत्र फ्रले परमाणुआँ तथा इलेक्ट्रान किरणों का प्रभाव दक्षिणी ध्रुव पर बहुत कम है। यहाँ कास्मिक किरणों की अधिकता के कारण अंतरिक्ष संबंधी शोध कार्य भी आसानी से किये जा सकेंगे।

दक्षिणी ध्रुव की अपेक्षा उत्तरी ध्रुव की परिस्थितियाँ भिन्न और अधिक जटिल है वैज्ञानिक इस क्षेत्र में और भी फूँक-फूँककर पैर रख रहे हैं, इतने पर भी यह एक आर्श्चय की बात है कि इस क्षेत्र में मनुष्य जाति का अस्तित्व बहुत पहले से विद्यमान पाया गया। वैज्ञानिक जब तब और जहाँ तहाँ जाते हैं, पर आर्श्चय इस बात का है उन जैसे उपकरणों और सुरक्षा साधनों से वंचित रहते हुए भी घोर शीत के वातावरण में भी वहाँ मनुष्य चिरकाल से रह रहा है और उस गला डालने जैसी शीत की विभीषिका को चुनौती देता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा है।

वैज्ञानिक पीटर स्क्लेंडर ने उत्तरी ध्रुव प्रदेश के मूल निवासी एस्किमो लोगों की जीवनचर्या का गहन अध्ययन किया और पता लगाया कि इन लोगों ने न केवल अपने शरीर में ही शीत सहने की क्षमता एकत्रित की है वरन् उससे निपटने के लिए ऐसी तरकीबें भी खोज निकाली है जिसे देखकर उनकी विज्ञान बुद्धि को सराहे बिना नहीं रहा जा सकता। उदाहरण के लिए वे बफ्र की सतह पर बफ्र से ही अपने लिए घर बनाते हैं जो काफी गर्म रहते हैं कारण कि उनके भीतर जो हवा कैद रहती है उसे ईंधन से गर्म कर लिया है कि वह गर्मी देर तक बनी रहती है जिसमें मनुष्य लम्बे समय तक सुविधापूर्वक साधारण वस्त्र पहन कर भी रह सके।

बफ्र पर, बफ्र से बने मकानों के भीतर भी गरम वातावरण रह सकता है वह वैज्ञानिक बुद्धि का ही कमाल है और परिस्थितियों ने यह वैज्ञानिक बुद्धि कथित सभ्य संसार में पिछड़े होने के बावजूद भी उन लोगों में उत्पन्न कर दी। मोमबत्ती की तरह चर्बी भरी मछली को वे लोग न जाने कहाँ से ढूँढ लाते हैं और उससे अपनी प्रकाश सम्बन्धी आवश्यकता पूरी करते हैं। आमतौर पर देर तक बफ्र में रहने से हाथ पैर की अंगुलियाँ गलने लगती है और शरीर के अन्य अंगों का भी यही हाल होता है, पर एस्किमों लोगों के शरीर मं परिस्थितियों के अनुरुप अपने आप को ढाल लिया है। उनका रक्त प्रवाह शीत के प्रतिरोध करने जितना ही तीव्र हो जाता है और गर्म बना रहता है तथा अंगुलियों सहित उनके शरीर का प्रत्येक अंग बफ्र को चूनौती देता हुआ उछलता, कूदता रहता है।

वह तो हुई वहाँ रहने वाले लोगों की बात। अब उस क्षेत्र के भू-गर्भ में छिपी उस सम्पदा का अध्ययन ही किया जा रहा है जिसे हथिया लेने के बाद मनुष्य कुबेर जैसा सम्पत्तिशाली बन जायेगा। ध्रुव प्रदेश के निकटवर्ती हिमाच्छादित क्षेत्रों में भी शीत की कमी नहीं, वहाँ भी शोधकार्य चल रहा है और पता लगाया गया है साइबेरिया में र्स्वण, अलास्का में पेट्रोल, उज्जावा में लोहा, उत्तरी कनाडा में ताँबा प्रचुर परिमाण में बफ्र की मोटी परतों के नीचे दबा पड़ा है।

पृथ्वी की इस विशाल सम्पदा को दुस्साहस भरे शोध कार्यें द्वारा ही हस्तगत किया जा सकता है। इसके लिए उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के असह्य शीत की चुनौती देते हुए दुस्साहसी लोगों ने वहाँ अड्डा जमाया है। ठीक उसी स्तर का दुस्साहस उच्चस्तरीय आध्यात्मिक प्रयोजनों के लिए भी चाहिए, जिससे नवनिर्माण जैसे महान लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। यदि वे इस दिशा में सचमुच चल पड़े तो समय बतावेगा कि उस मार्ग में आने वाली जिन असह्य असुविधाओं की कल्पना की जा रही थी वे कितनी सरल हैं। मनुष्य का यह छोटा-सा दिखाई देने वाला कायकलेवर अद्भुत आश्चर्यो से भरा हुआ है। आवश्यकता केवल उसे चुनौती देने और साहस जुटाने भर की है।


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