अपनों से अपनी बात

November 1980

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अगस्त, सितम्बर की अखण्ड-ज्योति में प्रज्ञा परिजनों से कुछ अनुरोध किये गये हैं जिनमें युग सन्धि के महान पर्व पर नव सृजन अभियान में कुछ सहयोग देने की प्रेरणा का समावेश है। जागृतों एवे मूर्धन्यों से ऐसी आशा, अपेक्षा की जाना उचित भी है और आवश्यक भी। व्यक्तिगत निर्वाह एवं सुख-सुविधा की व्यवस्था बनाना भी ठीक है किन्तु उसमें इतना व्यस्त और लिप्त होना उचित नहीं जिसमें आत्मकल्याण और लोकमंगल जैसे उच्चस्तरीय उद्देश्यों के लिए कुछ भी करते धरते न बन पड़े।

युग सन्धि जैसे विशेष समय हजारों, लाखों वर्षों बाद आते हैं। उन दिनों विभूतिवानों की विशिष्ट परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए - निजी कामों को गौण मानते हुए - समय की माँग पूरी करने को प्रमुखता देनी पड़ती है।

इतने पर भी कुछ की मनःस्थिति या परिस्थिति ऐसी होती है जो चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पाते। ऐसे परिजनों के लए एक सरल मार्ग यह है कि अपनी वे निजी विचारणा और जीवनचर्या में युग धर्म के अनुरुप परिवर्तन प्रारम्भ करें। नव सृजन की दिशा में कुछ कदम बढ़ाने का प्रयत्न करें। भले ही वह न्यूनतम ही क्यों न हो।

(1) साधना (2) स्वाध्याय (3) संयम (4) सेवा इन चार उपचारों को आत्मोर्त्कष के आधार भूत अवलम्बन माना गया है। इन्हें किसी न किसी रुप में अपनी जीवनचर्या में स्थान देने और परिवार को भी विस्तृत शरीर मान कर उसमें भी वे हलचलें उत्पन्न की जानी चाहिए, यह हर स्थिति के व्यक्ति के लिए नितान्त सरल है।

साधना -

उपासना, पराशक्ति के साथ अपना सम्बन्ध सूत्र जोड़कर उसके अनुदानों के लिए द्वार खोलने की प्रक्रिया है। युग संधि में यह नितान्त आवश्यक है। भले ही वह दस मिनट जितनी स्वल्प ही क्यों न हो। इतने पर भी उसे निष्ठा युक्त तो होना ही चाहिए। नैष्ठिक अर्थात आस्था और दृढ़तापूर्वक अपनाया जाना। भोजन अथवा शयन के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ा जाय। इतना किये बिना भोजन न करेंगे। पर सोयेंगे नहीं ऐसा नियम बना लेने पर दस मिनट की उपासना भी प्रभावी हो सकती है।

प्रातः आँख खुलते ही विस्तर पर ही गायत्री का मानसिक जप और सविता के प्रकाश का ध्यान किया जाय। प्रातःकाल के स्वर्णिम सूर्य को जीवन का सौभाग्योदय माना जाय और नमन करते हुए इस आलोक को आत्मसात करने की भावना की जाय। शरीर से सर्त्कम, मन से सद्विचार, अन्तःकरण से सद्भाव अपनाये जाने की दिव्य प्रेरणा ही सविता का अनुदान समझा जाय। रात्रि को भी सोते समय विस्तर पर गायत्री का मानसिक जय और अस्त होते हुए सविता का ध्यान किया जाय। सविता अर्थात जीवन। अस्त अर्थात् मरण। मरण को ध्यान में रखने तथा उसकी दूरदर्शिता तैयारी की बात सोची जाय।

यह न्यूनतम उपासना हुई। इनके अतिरक्त स्नान करने के उपराँत भी कुछ समय गायत्री का प्रतिमा पूजन, नमन, अभिनन्दन, जप, ध्यान का कुछ औपचारिक नियम बनाया जाय। परिवार में भी हर सदस्य को इतना करने की प्रेरणा दी जाय।

स्वाध्याय -

वर्तमान परिस्थितियों में महामनीषियों का सत्संग सम्भव नहीं रहा। वे या तो हैं ही नहीं, है तो व्यस्त रहते हैं। फिर अपनी सुविधा के अनुरु उनसे सर्म्पक साधना भी सम्भव नहीं। ऐसी दशा में समस्याओं के समाधान और उपयोगी मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए ‘स्वाध्याय’ ही एकमात्र अवलम्बन है। उगे आत्मा की भूख बुझाने के लिए अन्न की तरह ही अनिवार्य माना जाय और इसके लिए न्यूनतम आधा घण्टा समय निकाला जाय। भले ही वह काम-काज के बीच थोड़ी सुविधा मिलने के समय ही क्यों न किया जाय।

‘अखण्ड-ज्योति’ इस दृष्टि से उच्चस्तरीय मधु संचय है। अब इसी सहयोगिनी ‘युग निर्माण’ पत्रिका साथ में गुँथ गई हैं। दोनों समन्वय स्वाध्याय की आवश्यकता को अन्न, जल की तरह पूरी कर सकती हैं। अखण्ड-ज्योति का विषय चिन्तन को और युग निर्माण का कर्म को दिशा देना है। यह ज्ञान कर्म का समन्वय-कृष्ण, अजफ्रन का - राम हनुमान का समन्वय जैसा युग्म समझा जा सकता है। इन पत्रिकाओं को दो बार पढ़ा जाय। एक बार सिद्धान्त समझने की दृष्टि से और दूसरी बार यह सोचने के लिए कि क्या इन प्रतिपादनों में से कुछको अपने जीवन क्रम में समिमलित किया जा सकता है। यदि हाँ तो वर्तमान परिस्थितियों में उसके लिए किस प्रसंग में, किस क्रम से कदम बढ़ाया जाय? इस प्रगति पथ के आन्तरिक और बाहरी अवरोधों से किस प्रकार जूझा जाय? उच्चस्तरीय परिणामों के साथ सम्बद्ध होना ‘चिन्तन’ ओर उन्हें क्रियान्वित करने की योजना बनाना ‘मनन’ कहलाता है। स्वाध्याय सत्संग-प्रत्यक्ष और चिन्तन मनन-परोक्ष है। आत्मिक प्रगति के लिए इन प्रयोजनों को भजन ध्यान से कम महत्वपूर्ण एवं कम आवश्यक न माना जाय।

संयम -

संयम को तपश्चर्या कहा गया है। संयम अर्थात अनुशासन। अस्त-व्यस्त और अनियंत्रित जीवनचर्या ही प्रगति पथ की सबसे बड़ी बाधा है। अपने को आदर्शवादी अनुशासन में कसने के प्रयासों को तप साधना में सम्मिलित किया जा सकता है। रुझान, श्रम, विचार ओर धन की चारों सम्पदाओं पर ऐसा अनुशासन बिठाना चाहिए कि इनके अपव्यय को जितना बचाया जा सकना सम्भव हो बचाया जाय।

(1) समयगत अनुशासन यह है कि प्रातःकाल उठते ही व्यस्त दिनचर्या बनाई जाय ओर उस पर दृढ़तापूर्वक आरुढ़ रहा जाय। आलस्य में श्रम और प्रमाद में मनोयोग का एक क्षण या एक कण भी बर्बाद न होने देने का प्रयत्न किया जाय। इस निर्धारण में आजीविका, परिबार एवं सामान्य क्रिया-कलापों के अतिरिक्त लोकमंगल परमार्थ के लिए समयदान का भी समुचित स्थान रखा जाय।

(2) विचारगत अनुशासन यह है कि सृजनात्मक चिन्तन का अभ्यास डाला जाय। मनोविकारों तथा निरर्थक कल्पनाओं की धमाचौकड़ी को रोकने के लिए मस्तिष्क को खाली न रहने देना। अध्ययन या सृजन चिन्तन में लगाने की आवश्यकता है। बुरे विचारों को भले विचारों से काटने का संघर्ष निरंतर जारी रक्षा जाय। प्रमाद तनिक भी न बरता जाय। सदा जागरुक रहा जाय।

(3) रुझान संयम यह है कि इन्द्रिय लिप्सा, वासना एवं बड़प्पन की तृष्ण को अनियंत्रित न होने दिया जाय। इन्द्रियाँ अमर्यादित वासना के लिए ललकती रहती है। मन भी ग्यारहवीं इंन्द्रिय हे। उसे संचय की तृष्णा और बड़प्पन की अहंता छाई रहती है। उपलब्धियों की आतुरता, मर्यादाओं को तोड़कर किसी भी प्रकार मनोरथ पूरा करने की मचलती है। अभिलाषाओं के इस रुझान पर अंकुश लगाया जाय और मनमानी करने से रोका जाय।

(4) धन का अनुशान यह है कि ईमानदारी से कमाया जाय और दूरदर्शिता पूर्वक खर्चा जाय। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह र्प्याप्त माना जाय। सादा जीवन उच्च विचार की नीति अपनाई जाय। उत्तराधिकारियों के लिए संग्रह न करके उन्हें सुसंस्कारी स्वावलम्बी बनाना ही र्प्याप्त समझा जाय। बचत को पीड़ा और पतन के निवारण तथा सत्प्रवृत्ति संवर्धन में लगाया जाय। फ्रशन, ठाठ-बाट, दुर्व्यसन अनुपयाक्त प्रथा-प्रचलन आदि अपव्ययों में होने वाले खर्च को कठोरता से रोका जाय और बजट बना कर आय-व्यय का सुनियोजित निर्धारण किया जाय।

उपरोक्त चारों संयमों को व्यावहारिक जीवन की तर साधना कहा जा सकता है। अब तक की अभ्यस्त आदतों को रोकने और उन्हें शालीनता के ढाँचे में नये सिरे से ढालने, अनुपयुक्त को घटाने और उचित को बढ़ाने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहा जाय। आत्मचिन्तन, आत्मसुधार, आत्मनिर्माण एवं आत्मविकास के तथ्यों पर विचार करते रहने से संयम साधना के उपाय सूझते और प्रबल होते चलते।

सेवा -

सेवा का तार्त्पय है पिछड़ेपन का प्रगतिशाला में - असमर्थता का समर्थता में परिवर्तन। दो सामयिक संकट से उबारने के लिए किन्हीं आपत्तिग्रस्तों की सहायता करना भी सेवा के अंतर्गत आता है, पर उस महान् प्रवृत्ति को इतनी छोटी सीमा तक अवरुद्ध नहीं किया जा सकता। सेवा एक सतत प्रवृत्ति है। यदि उसे कष्ट पीड़ितों तक सीमित रखा जाय तो फिर उन्हीं को ढूँढते फिरना पड़ेगा। और यदि सत्पात्र न मिले तो सेवा का प्रवाह ही रुक जायेगा।

आज सर्वत्र आस्था संकट छाया हुआ है। अधोगामी विचारणा ने लोकमानस पर आधिपत्य जमा रखा है। व्यक्तिवादी संकीर्णता और सवार्थन्धता जन-जन पर छाई हुई है। सर्वतोमुखी पतन ओर पराभव का यह एक ही कारण है। व्यक्ति और समाज के लिए इस महासंकट ने सर्वनाश की विभीषिकाएं खड़ी की हैं। अस्तु दूरदर्शी सेवा साधना इन दिनों एक ही है - विचार क्राँति। समस्त समस्याओं का यह एक ही हल है। प्रज्ञा अभियान या प्रज्ञावतार का भी यही प्रयोजन है कि अवाँछनीयता पक्षधर प्रचलित विचार प्रवाह को उलट कर उस स्थान पर उत्कृष्ट आदर्शवादिता की नये सिरे से स्थापना की जाय। विवेक युक्त दूरदर्शिता का निर्धारण एक ही है कि इन दिनों समस्त साधनों को झोंक कर जन-मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति सर्म्वधन की सेवा साधना अपनाई जाय।

इस प्रयोजन के लिए इन दिनों (1) युग साहित्य (2) प्रवचन परामर्श (3) जन सर्म्पक यह तीन उपाय अपनाये जा रहे हैं। जिनके पास अवकाश है वे इन प्रयोजनों को व्यापक क्षेत्र में विस्तृत करने के लिए अधिक पुरुषार्थ करने में संलग्न हैं। प्रज्ञापीठें भी इन्ही तीन प्रयोजनों को अपना केन्द्र बिन्दु बनाये हुए हैं। उनके चल पुस्तकालय, जन्मदिवसोत्सव, विचार सत्र एवं प्रव्रज्या कार्यक्रम इन दिनों प्रािम एवं प्रमुख माने जा रहे हैं और अपेक्षा की जा रही है कि विचार क्राँति की आरंभिक भूमिका सम्पन्न होते ही - प्रगति पथ पर अन्य अनेकानेक कदम उठा सकना सुनिश्चित रुप् से सम्भव हो सकेगा।

जिन्हें व्यस्तता की कठिनाई है। जो जन-सर्म्पक के लिए अवकाश नहीं पा रहे हैं उन्हें न्यूनतम कार्यक्रम के अनुसार यह तीनों कार्यक्रम अपने परिवार को ही छोटा समाज मानकर इन उपक्रम अपने परिवार को ही छोटा समाज मानकर इन उपक्रमों को इस परिधि में क्रियान्वित करने के लिए प्रयास करना चाहिए। इसका सरल तरीका यह है कि प्रज्ञा परिवार को सदस्यता के साथ जुड़ी हुई अनिवार्य शर्त की ओर से यह उपेक्षा बरतना बन्द किया जाय और उसे आत्मकल्याण एवं लोकल्याण की दुहरी आवश्यकता पूर्ण करने में समर्थ मानकर अविलम्ब अपनाया जाय।

दस पैसा तथा एक घण्टा समय ज्ञान यज्ञ के लिए लगाते रहने पर ही कोई व्यक्ति सच्चे अर्थों में प्रज्ञा परिवार का परिजन कहा जा सकता है। झूठ-मूठ गायत्री परिवार का युग निर्माण परिवार के सदस्य कहने की आत्मप्रवचना करने से कोई लाभ नहीं। यदि सृजन शिल्पियो में अपना नाम सचमुच की सम्मिलित रखना है तो उस अनिवार्य सदस्यता शर्त का परिपालन भी ईमानदारी से होना चाहिए।

एक घण्टा समय परिवार में सुसंस्कारिता सर्म्वधन के लिए लगाना चाहिए और दस पैसा घरेलू ज्ञान मंदिर की साधना में लगाना चाहिए। इन दिनों पच्चीस पैसा जितने स्वल्प मूल्य की खोलते प्राण से भरी पूरी निताँत सस्ती पुस्तिकाएं भी युग साहित्य के रुप में छप रही है। दस पैसा से तीन रुपया मासिक होता है इतने से 12 पुस्तिकाएं खरीदी जा सकती है। इन्हें घर, परिवार के सदस्यों को पढ़ाने या सुनाने का प्रबंध किया जाना चाहिए। दोनों पत्रिकाएं इसके अतिरिक्त खरीदी जा सकें तो इतना साहित्य घर, परिवार में स्वाध्याय की परम्परा को प्रखर बना सकता है।

जन-सर्म्पक के क्षेत्र में अपने निजी परिवार को तथा जो कार्यवश मिलते आते रहते हैं, उन्हीं एक सीमित कर लिया जाय तो भी नव सृजन का न्यूनतम कार्यक्रम र्भिता रह सकता है। परिवार निर्माण योजना के अंतर्गत वलिवेश्व, नित्य नमन वन्दन, आरती, सहगान रात्रि को कथा, कहानी, अवकाश के समय पारिवारिक पंचशीलों के निमित्त सामूहिक प्रयास जैसे कई छोटे किन्तु अत्यन्त ही महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया उत्पन्न करने वाले कार्यक्रम सम्मिलित हैं। इन्हें अपनाने से परिवार में कायाकल्प जैसे सत्परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं। श्रमशीलता, सहकारिता, मितव्यता, सज्जनता, सुव्यवस्था के पंचशीलों को-परिवार की आदतों में सम्मिलित करने के लिए लगाये गये समय को समाज सेवा का ही एक छोटा रुप माना जा सकता है। इसके लिए परिवार निर्माण योजना का नये सिरे से अध्ययन करना चाहिए। और उसके लिए योजनाबद्ध रुप से अपने संकल्पित समयदान का उपयोग करना चाहिए।

दफ्तर में - कारखानों में काम करने वालों को साथियों से वास्ता पड़ता ही है। दुकान पर ग्राहक और घर पर मित्र अतिथि, सम्बन्धी आते-जाते ही रहते हैं। इनसे नव सृजन मिशन की - प्रज्ञा अभियान की चर्चा करते रहना यह भी एक बड़ा काम है। स्वयं के कुछ अधिक करने की स्थिति न होने पर भी यह सम्भव है कि उस चर्चा के फलस्वरुप किसी को उत्साह एवं साहस मिले और वह अपने संस्कारों तथ परिस्थितियों के अनुरुप समय की माँग को पूरा करेन के लिए उपयोगी दिखा धारा एवं प्रेरणा प्राप्त करके उससे भी अधिक कर-गुजरे जितना कि अपने से भी न बन पड़ता। इस प्रकार यह चर्चा करना और प्रेरणा देना भी कई बार इतनी उपयोगी हो सकती है जिसे उच्चस्तरीय परमार्थ में सम्मिलित किया जा सके। अपनी पत्रिकाएं तथा पुस्तकें इन मिलने वालों को देते और वापिस लेते रहने का सिलसिला चलाते रहा जाय तो यह सेवा भी असामान्य ही कहा जायगी।

परमार्थ का एक स्वरुप यह है कि घर में धर्मघट (अन्न घट) रखा जाय और अपनी रोटी मिल बाँटकर खाने का सिद्धाँत निभाया जाय। इन दिनों ‘शालीनता’ से बढ़कर दुःखी दारिद्र पीड़ित ओर कदाचित ही कोई दुर्दशाग्रस्त हो। उसके घाव भरने एवं उपचार करने में सहायता करने के बराबर दूसरा कोई पुण्य परमार्थ आज की परिस्थितियों में हो नहीं सकता। युग धर्म की - समय की - माँग की पूर्ति के लिए उन प्रयासों का परिपोषण होना चाहिए जो मानवी चिन्तन को परिष्कृत करने में निरत हैं। अनेकों व्यक्ति अभी भी सच्चे ब्राह्मणाँ, वानप्रस्थों, परिव्राजकों की तरह इन दिनों भी प्राचीन काल की संत परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। इनके गुजारे का प्रबन्ध करना सच्चे अथों में ब्रह्मभोज है। ऐसे ही सार्थक दान पुण्य को शास्त्रों में देव अनुग्रह, वरदान, आशीर्वाद एवं र्स्वग सद्गति देने वाला बताया गया है। प्रज्ञा अभियान में संलग्न कार्यकर्त्ताओं का निर्वाह एवं उस प्रयोजनों के लिए साधनों के लिए पैसा चाहिए। यह अंशदान हर पुण्यात्मा की कमाई में से नियमित रुप से निकलना चाहिए। ‘धर्मघट’ (अन्न घट) स्थापित होने चाहिए। एक मुट्ठी अनाज उसमें पड़ते रहने से यह परम्परा बनती है कि हमारी पवित्र कमाई में ईश्वर का, धर्म का, समाज का हिस्सा स्वीकार किया गया और उसे सद्भावना पूर्वक चुकाया गया। यह एक मुट्ठी अन्न भले ही पैसे की दृष्टि से नगण्य-सा ही क्यों न हो, उसे न्यूनतम ही क्यों न कहा जाय, पर उसे एक उपयोगी स्थापना होती है, परम्परा बनती है। इसका शुभारम्भ प्रज्ञा परिवार के परिजनों को ही करना चाहिए।

जीवित की भट्टी जलती रहे इसके लिए ईंधन डालने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। नजी षरीर निर्वाह की राशि में स्वाध्याय के लिए - परिवार निर्माण में धरेलू पुस्तकालय के लिए और लोगमंगल में नव-सृजन के लिए दस-दस पैसा जैसी राशियाँ लगाई जाय और जहाँ समूची जीवनचर्या के साथ भारी खर्च बहन करने पड़ते हैं वहाँ इन तीनों क्षेत्रों के लिए दस-दस पैसे अर्थात् कुल मिलाकर तीस पैसा और बढ़ा दिये जायं। यह वृद्धि कठिन पड़ती हो तो किन्हीं मदों में कटौती करके उसे पूरा किया जाय। पर आत्मिक प्रगति के लिए इतनी उदार साहसिकता तो अपनाई ही जानी चाहिए। धर्मघटों वाली राशि को घर की उदार महिलाओं के जिम्मे छोड़ा जा सकता है ओर उसे अभियान के उद्गम केन्द्र शाँति-कुँज में सर्वश्रेष्ठ उपयोग के लिए भिजवाया जा सकता है।

प्रज्ञा परिजन अपना जन्मदिवसोत्सव हर वर्ष बनायें। इसकी विधि-व्यवस्था सस्ती, सरल, आकषर्ण, प्रभावोत्पादक होने के साथ-साथ परिवार का वातावरण बदलने में अत्यंत सहायक भी है। पूजा, उपचार, यज्ञ आतिथ्य में कुल मिलाकर पाँच रुपये से अधिक खर्च न होने पाये, इस अनुशासन से वह सर्व साधारण के लिए अति सुगम बन गई है। इस माध्यम से एकत्रित हुए मित्र परिजन जीवन के सदुपयोग तथा उसके साथ जुड़े हुए अनेकों समाधान लेकर वापिस लौटते हैं।

जिसे जन्मदिवसोत्सव है उसे अपनी बुरी आदतों में से एक घटाने और सत्प्रवृतियों में एक बढ़ाने के लिए व्रत लेना पड़ता है। इस प्रकार हर साल एक सुधारक्रम चलते रहने पर क्रमशः वरुक्ति निर्माण का वह आधार बनता चला जाता है जिसमें परिवार और समाज को प्रकारान्तर से अधिक समुन्नत बनने का अवसर मिलता रहे।

दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने से उन्हें बोलती पुस्तकें बनाने और नव सृजन के अनुरुप् वातावरण बनाने के प्रयास युग निर्माण योजना के अंतर्गत चलते हैं। इसका छोटा रुप घर में आदर्श वाक्यों के शीशे में मड़े चित्र, तस्वीरों की तरह लगाना हो सकता है। वर्षा, धूप से बची रहने वाली किवाड़ों, खिड़कियों पर - बड़े साइज के दर्पणों पर - भी उनहें चिपकाया जा सकता है। बच्चों की पाठ्य पुस्तकों पर जिल्द बनाकर उन पर छोटे साइज के आदर्श वाक्य चिपका दिय जायं तो उन्हें बार-बार आँख के सामने से निकलने पर एक धीमा संस्कार बनता है।

विनोद के लिए संगीत, सहगान का घर में अभ्यास चल पड़े। शाकवाटिका, पुष्पवाटिका लगाने जैसे शौक आरम्भ किये जायं तो घर में उदासी का वातावरण न रहेगा।

सर्म्पक साधन के तीन आधार हैं - (1) प्राण संचार की यह ध्यान धारणा जिससे इन दिनों युग धन्धि के पुरश्चरण के भागीदार लाभाविन्वत हो रहे (2) तीर्थ यात्रा एवं परिवार प्रतिक्षण के लिए शाँति-कुँज में समय-समय पर चलने वाले सत्रों में समिलित होना (3) पत्र-व्यवहार से प्रगति पथ पर अग्रसर करेन वाले परामर्श अनुदान प्राप्त करते रहना। इन तीनों से वे प्रज्ञा परिजन भी लाभान्वित होते रह सकते हैं जिन्होंने ‘न्यूनतम साधना’ अपनाये रहने का निश्चय किया है। अस्त-व्यस्त ओर अस्थिर मति के तो हर क्षेत्र में असफल रहते हैं। उनके लिए यह न्यूनतम साधना अति सरल होते हुए भी कठिन पड़ेगी और निभ न सकेगी। इसीसे कहा गया है कि ‘निष्ठा’ बन सके तो ही आत्म-कल्याण और लोकमंगल के उभयपक्षीय साधनों को न्यूनाधिक मात्रा में साधना सम्भव हो सकता है।

उपरोक्त सभी प्रसंगों में प्रज्ञा परिजन पत्र-व्यवहार द्वारा ‘शाँति-कुँज’ हरिद्वार से आवश्यक प्रकाश एवं मार्ग-दर्शन प्राप्त करते रह सकते हैं। इस संदर्भ में जवाबी पत्र भेजने की बात अनिवार्य रुप से ध्यान में रखी जानी चाहिए। बढ़ते हुए पत्राचार का डाक-व्यय वहन कर सकना अब मिशन के लिए भी किसी प्रकार शक्य नहीं रह गया है। इसलिए जवाबी पत्र भेजने की शर्त पहले की अपेक्षा अधिक कड़ी कर दी गई है।

व्यस्त प्रज्ञा परिजन भी इतना तो कर ही सकेंगे


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