जैसे सूरज को ढंक लेते, गहराये-कजरारे बादल। उसी तरह के आत्म-ज्योति पर, फ्रले हैं कलुषों के आँचल॥1॥
आत्म-शक्तियाँ सुप्त पड़ी है, कई आवरण चढ़े हुये हैं। आत्म-चेतना पर विस्मृति के, मोटे-ताले पड़े हुये हैं॥
कोषों पर जो पड़े आवरण, जब तक नहीं हटाये जाते। तब तक हमें विपुल-वैभव का, मिल न सकेगा कोई भी फल ॥2॥
कोषों से हट गये आवरण, कमी नहीं है फिर वैभव की। बंद-ग्रंथियाँ अगर खुल गई, दौलत मिली आत्म-उद्भव की॥
कोषों, चक्रों और ग्रन्थियों से अद्भुत-भंडार भरा है। जिस दिन यह भंडार मिल गया, सारं संकट जायेंग टल॥3॥
कोषों की हम करें साधना, चक्र ओर ग्रन्थियाँ जगायें। इतने वैभवशाली हो, क्यों कंगले हों? निहाल हो जायें॥
सदाचार, संयम, तप-निष्ठा और तितीक्षा-वृत ही पालन। सेवा, स्नेह और जन-जन के प्रति समता, ममता हो निश्छल॥4॥
हो प्रकाश के पुँज, भटकते रहें नहीं हम अन्धकार में। रखे हाथ पर हाथ न बैहे रहें, निराशामय-विचार में॥
हम अज्ञान, भाव, अशक्ति को हते रहें न अब जीवन में। अथक-आत्म-विश्वास जगायें और उजागर करें आत्मबल॥5॥
स्वयं प्रकाशित हो, प्रकाश दें अंधकार में खोये जन को। आत्म-शक्ति को जगा, जगामें आओ! हम सोये जन-मनको॥
भूली-भटकी-भौतिकता की, आत्म-ज्योति का मिले उजाला। ऐसे आध्यात्मिक-प्रकाश से करें प्रकाशित सारा भूतल॥6॥
*समाप्त*