प्रतिमाओं की खेती रक्त-बीज तैयार करेगी

November 1980

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हमारी इस पृथ्वी पर मनुष्य जाति का अस्तित्व करीब दस लाख वर्षों से है। वैज्ञानिकों की मान्यता है कि करीब एक लाख वर्षों की कालावधि में मनुष्य के शारीरिक ढाँचे में कोइ्र परिवर्तन नहीं हुआ है। इन दिनों जीव वैज्ञानिक कुछ ऐसे प्रयोगों में निरत है जिनसे न केवल मनुष्य का शारीरिक ढाँचा अब की अपेक्षा काफी कुछ बदला होगा, वरन् वह बपने पूर्वजों से अधिक मेधावी प्रतिभाशाली, बुद्धिमान और क्षमता सम्पन्न होगा। वैज्ञानिक इसके लिए मनुष्यों की नस्ल में सुधार करने के प्रयास कर रहे हैं।

नस्ल में सुधार लाने का प्रयास अब तक पेड़ पौंधों और पशुओं तक ही सीमित था किन्तु अब ये प्रयोग मनुष्यों के लिए भी किये जाने लगे हैं। सर्वबिदित है कि इस तरह के प्रयासों की कल्पना सर्वप्रथम हिटलर ने की थी। उसकी मान्यता थी कि जर्मन नस्ल शुद्ध आर्य नस्ल है और वह संसार की सर्वश्रेष्ठ नस्ल है। इसी आधार पर हिटलर ने जर्मनवासियों के मन में यह धारणा बिठाई थी कि जर्मनी को समूचे संसार पर शासन करने का अधिकार है। इसके साथ ही उसने जर्मन जाति को शुद्ध बनाये रखने की आवश्यकता भी बताई थी और इसके लिए प्रयास भी किये थे। इन प्रयासों में यहूदियों को पूरी तरह नष्ट कर देने, कमजोर जर्मनों को बच्चे पैदा न करने देने और स्त्रियों को इस बात के लिए बाध्य करने के प्रयास किये थे कि वे सन्तानोत्पादन के लिए अपने पतियों पर ही निर्भर न करें वरन् बलिष्ठ और मेधावी व्यक्तियों के बच्चों की माँ बने।

हिटलर के चिकित्सक डा. जोसेफ मेनजेले ने तो यहाँ तक प्रयास किया था कि जर्मनी का बच्चा-बच्चा हिटलर की प्रतिकृति बने। उसकी कल्पना थी कि हिटलर के शरीर से कोशिकाएं लेकर असंख्य हिटलट पैदा कर लिए जाएं। किन्तु दुर्भाग्य से इसीलिए हिटलर का पतन हो गया और मेनजेले का यह स्वप्न साकार न हो सका। हिटलर के पतन के बाद मेनजेले भाग गया और कहा जाता है कि वह बवेशिया में छिपा रहा तथा बाद में अर्जेण्टाइना, पैराँग्वे आदि स्थानों पर छिपता रहा। इटालेविन ने अपनी पुस्तक ‘ब्वायज फाम ब्राजील’ में लिखा है कि मेनजेले जर्मनी से भागते समय हिटलर के रक्त और उसकी चमड़ी के नमूने साथ लेता गया था। उसने पैराम्वें की अपनी प्रयोगशाला में संजोए गये स्वप्न को साकार करने के प्रयास आरम्भ कर दिए। उसे अपने प्रयोगों में सफलता भी मिली। कहा जाता है कि मेनजेले ने हिटलर की कोशिकाओं के रेडइन्यिन जाति की 94 औरतों के गर्भ में भ्रूण स्थापित किये, जिनसे इतने ही बच्चे पैदा हुए। ये बच्चे हू-बहू हिटलर की प्रतिलिपि बताये जाते हैं। कहा जाता है कि उनमें से प्रत्येक की आयु अठारह वर्ष की है।

हो सकता है यह बात कल्पना पर आधारित हो किन्तु वैज्ञानिकों ने सिद्धाँन्ततः इस बात को स्वीकार कर लिया है कि कोशिकाओं के द्वारा भी नयी सन्तानों को जन्म दिया जा सकता है। पशुओं पर तो इस तरह के सफल प्रयोग भी किये जाने लगे हैं।

कोशिकाओं द्वारा नये बच्चों को जन्म देने की बात अभी भविष्य के गर्भ में है परंतु अमेरिका के एक वैज्ञानिक राबर्ट ग्राहम ने शुक्राणु बैंक की स्थापना की है और फरवरी 80 में अपने एक प्रयोग की सूचना दी है। इस प्रयोग को संसार भर में गंभीरता से लिया गया है। इस प्रयोग में अमेरिका की तीन महिलाओं में नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों से प्राप्त किये गए शुक्राणुओं से गर्भ स्थापित किया है। इन महिलाओं ने राबर्ट ग्राहम के ‘सीमेन बैंक’ से सन्तानोंत्पादन के लिए सहायता ली। जिन वैज्ञानिकों से इस बैंक के लिए शुक्राणु प्राप्त किये गये उनमें अधिकाँश अपने क्षेत्र के प्रतिष्ठित और मेधावी व्यक्ति हैं। एक वैज्ञानिक, विलियम शोकले को सन् 1956 में भौतिकी के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है।

ऐसी बात नहीं है कि राबर्ट ग्राहम ने इस तरह के प्रयोग की पहली-पहली कल्पना की हो। इस सम्बन्ध में प्रयास तो वर्षों से किये जा रहे थे। सर फ्राँसिस गाल्टन ने इस दिशा में ठोस कार्य किया था और काफी कुछ सफलता भी प्राप्त की थी। उस सफलता से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर विज्ञान की एक नई ही शाखा अस्तित्व में आई, जिसे ‘यूजेनिक्स’ (सुजनन विज्ञान) कहा गया।

सर फ्राँसिस गाल्टन के बाद इस दिशा में कई वैज्ञानिकों ने प्रतिभाशाली व्यक्तियों के शुक्राणुओं से उनके समान ही प्रतिभा सम्पन्न सन्तानों को जन्म देने का कार्यक्रम आगे बढ़ाया। हरमन भुल्लर ने इस विचार से इन प्रयोगों को आगे बढ़ाया कि लोग प्रतिभाशाली और मेधावी सन्तानों को जन्म दे सकें। यह तो सर्वविदित है कि मनुष्य का जन्म रज और वीर्य से होता है और अब वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा प्रयोगों द्वारा सैकड़ों वर्षों तक वीर्य को जमाकर सुरक्षित रखने की विधि खोज निकाली गई है।

इस तरह के प्रयोगों की, जिनसे स्त्रियाँ अपनी पसंद की क्षमताओं वाली सन्तानों को जन्म दे सकेंगी। इन दिनों काफी चर्चा है। इन प्रयोगों के सफल होने पर, जो आज नहीं कल निश्चित रुप से सफल होंगे कई प्रश्न चिह्न उभर रहे हैं।

इन प्रयोगों को लेकर किये जाने वाले प्रश्नों और उत्पन्न होने वाले विवादों के सर्न्दभ में जानने से पूर्व यह जान लेना उचित होगा कि शुक्राणु बैंकों द्वारा किस प्रकार मनचाहे व्यक्तित्व वाले बच्चों या मनुष्यों को उत्पन्न करने की बात सोची जा रही है। मनुष्य शरीर की एक रहस्यमय इकाई है - ‘जीन’। यह ईकाई मनुष्य शरीर की ऐसी विशिष्ट आणविक सरचना है जिनमें समस्त जीव जगत की आनुवाँशिक विशेषताएं बीज रुप से विद्यमान है। सीधे शब्दों में इन्हें जैविक बीज कहा जा सकता है। इन्हीं जीनों के माध्यम से सन्तानों में माता-पिता के गुण, और उनकी दैहिक विशेषताएं सन्तानों में अवतरित होती है। इन जैव इकाइयों के सम्बन्ध में काफी कुछ जान लिया गया है और यह भी सम्भव हो गया है कि उनमें आवश्यक परिवर्तन किये जा सकें। अर्थात वैज्ञानिक उपायों द्वारा जीन में परिवर्तन कर अनुवाँशिक गुणों में भी परिवर्तन किया जा सकता है।

जीन क्या है? वैज्ञानिकों के अनुसार जीन्स डी.एन.ए. नामक एक अम्ल के, जो शरीर में रहता है, विशिष्ट घटक होते हैं। डी.एन.ए. एक विशेष प्रकार के अणु हैं जो कोशिका के ‘क्रोमोमोम्स’ के घटक होते हैं। प्रत्येक जीन का सम्बन्ध एक विशेष प्रकार के ‘एन्जाइम प्रोटीन’ से होता है। प्राणियों के आनुवंशिक विकास में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जब किसी कोशिका का विभाजन होता है तो उस विभाजन की प्रक्रिया में दोहरे अणु पैदा हो जाते हैं और इनमें से प्रत्येक आनुवंशिकता के सूत्रबद्ध गुणों की प्रतिकृति को दोहराता है। यदि किसी जीव में कोई नई आनुवंशिक विशेषता उत्पन्न करनी हो तो उस जीव के डी.एन.ए. अणुओं में नए गुण वाला जीन रोपित करना आवश्यक हो जाता है।

संक्षेप में इच्छित और मनचाहे स्वभाव तथा गुणों वाली सन्तान को जन्म देने का यही आधार है। इस दिशा में जो प्रयोग अनुसंधान हो रहे हैं उन्हें आनुवंशिक इन्जीनियरी कहा जाता है। जीव विज्ञान की यह शाखा अर्थात आनुवंशिकी इन्जीनियरी विज्ञान की यह शाखा अर्थात आनुवंशिकी इन्जीनियरी विज्ञान अब इस स्थिति में पहुँच गया है कि उसके परिणामों को परमाणु ऊर्जा से भी अधिक सशक्त साधन समझा जा रहा है।

इस विज्ञान के द्वारा यहाँ एक उपाय किये जा रहे हैं कि एक बारगी मनुष्य जाति यदि नष्ट भी हो जाए तो उसका पुनर्जन्म सम्भव हो सकेगा। भौतिकी के वैज्ञानिक राल्फ लैप दुनिया के तमाम वैज्ञानिकों को यह सलाह देते हैं कि अभी से ऐसा प्रबन्ध कर लेना चाहिए कि समृद्ध सीमेन बैंक स्थापित किये जाएं। इसके कारण बताते हुए राल्फ लैप तर्क देते हैं कि इन दिनों दुनिया जिस तेजी से परमाणविक शस्त्रास्त्रों की होड़ में लगी हुई है उससे यह निश्चित है परमाणविक युद्ध होकर रहेगा। निश्चित ही इस तरह के युद्ध से भारी विनाश होगा और रेडियोधर्मी धूल के प्रभाव के कारण युद्ध के बाद भी काफी लम्बे समय तक पृथ्वी पर मानव जीवन दूभर बना रहेगा। ऐसी स्थिति में कृत्रिम गर्भाधान की पूरी जानकारी सुरक्षित कर लेना अचेत होगा ताकि उसके आधार पर आने वाले समय में मनुष्य की नस्ल धरती पर फिर से उत्पन्न हो सकेगी।

आनुवंशिक इंजीनियरी इससे भी आगे की बात है। कहा जा चुका है कि डी.एन.ए. अपने में सम्पूर्ण जैविक विशेषताएं समाहित किये हुए हैं और प्रत्येक कौशिका अपने में सम्पूर्ण जीव इकाई के सृजन की क्षमताओं से सम्पन्न होती है। इसे जेनेटिक कोड या प्रजनन संहिता कहते हैं। कोशिकाओं पर ऐसे प्रयोग किये जा चुके हैं कि किसी भी स्त्री या पुरुष के शरीर के अंग से निकाली गई कोशिओं के नाभिकीय द्रव को यदि स्त्री के गर्भाशय में स्थापित किया जाए तो वह अपने ही समान अन्य कोशिकाओं को जनम देती चली जाएगी और उनसे शरीर के विभिन्न अंग अवयवों का निर्माण होने लगेगा, अर्थात पूरा भ्रूण विकसित होता चलेगा।

इस तरह के प्रयोगों से अमैथुनी सृष्टि की सम्भावना भी बलवती हो गई है। डेविड रोरविक नामक पत्रकार ने अपनी पुस्तक ‘इन हिज इमेज, द क्लोनिंग आफ मैन’ में इस प्रयोग का सविस्तार वर्णन किया है। डेविड रोरविक के अनुसार इस तरह का प्रयोग अमेरिका के अरबपति ने श्रेष्ठ चिकित्सा शास्त्रियों और जीव विज्ञानियों की टीम तैयार कर करवाया था। इस टीम ने गहन अनुसंधान प्रयोगों द्वारा ऐसी विधि खोज निकाली और एक एशियाई नस्ल की स्त्री के रज से उसका नाभि पदार्थ निकालकर उसमें अरबपति के सोमन का नाभि पदार्थ भर दिया और उस अण्डे को उस स्त्री की बच्चेदानी में स्थापित कर दिया, जिससे एक बच्चे का जन्म हुआ। रोरविक का दावा है कि वह स्वयं इस प्रयोग का साक्षी रहा है और जा बच्चा उत्पन्न हुआ है, उसकी आयु सवा तीन वर्ष की हो चुकी है।

यह सारे प्रयोग मनुष्य को एक जीवित यंत्र मान कर ही किये जाते हैं। इस तरह के प्रयोगों की सफलताओं के सम्बन्ध में बढ़-चढ़कर दावे करने के बाद भी वैज्ञानिकों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि चेतना की दृष्टि से इन नई किस्म की सन्तानों का क्या स्तर होगा? जैविक प्रयोगों द्वारा चाहे जैसा मनुष्य तैयार कर लिया जाय, पर उसकी क्या नैतिकता होगी? चारित्रिक स्तर और आस्थाएं मान्यताएं क्या होगी? इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक मौन हैं। शारीरिक बल, मस्तिष्कीय तीक्ष्णता और अन्य विशेषताएं जो शरीर से सम्बन्धित है, उनकी अनुकृति तो तैयार की जा सकती है, परंतु चेतना, जिसे आत्म तत्व भी कहा जा सकता है वह तो सभी स्थूल उपकरणों से परे हैं। उसे भी क्या विकसित कर पाना सम्भव होगा?

विश्व के मूधन्य विचारक और समाज शास्त्री इस तरह के अनेकानेक सवाल उठा रहे हैं। कई लोग इसे परमाणु संकट से भी भयावह बता रहे हैं। उनका कहना है कि जब समस्त वैज्ञानिक संसाधनों पर समाज पर हावी चन्द सत्ताधीश आसानी से कब्जा कर सकते हैं तो वे पूरी मनुष्य जाति को अपने ही ढाँचे में ढालने का प्रयत्न करेंगे। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हिटलर ने अपनी-अपनी असंख्यों प्रतिकृतियाँ बनाने का प्रयास किया था। हिटलर को तो इस प्रयास में सफलता नहीं मिली, सफलता तो उसे अणुबमों के निर्माण में भी नहीं मिली, सफलता तो उसे अणुबमों के निर्माण में भी नहीं मिली। परंतु बाद के युग में ये दोनों सम्भावनाएं मूर्तिमान होती प्रतीत हो रही है।

यदि वैज्ञानिको ने इस दिशा में सफलता प्राप्त कर ली तो इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वतंत्र व्यक्तित्वों का उद्भव लगभग असम्भव हो जाएगा। एक तो मनुष्य की चेतना का स्तर यंत्र मानव से अधिक नहीं होगा, दूसरे उसमें किन्हीं अन्य औरों की विशेषताएं तथा क्षमताएं ही रहेंगी। अस्तु उनके दुरुपयोग की ही सम्भावना अधिक व्यक्त की जा रही है। एक प्रकार से इन प्रयोगों की सफलता प्रकृति के कार्य में आवाँछनीय हस्तक्षेप की ही परिचायक, कहा जायेगी और मनुष्य अपने सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का निर्णय लेने के विवेक से रहित, साँचे में ढले जीवित खिलौने के समान हलचलें करने बाला पूतला मात्र बनकर रह जाएगा। या कहना चाहिए कि प्रयोग प्रकृति के पुत्रों का मूलोच्छेद कर मनुष्य निर्मित हाड़माँस के पुतलों के निर्माण का द्वारा खोल चुके हैं।


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