निंदक नियरे राखिये

November 1980

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जीवन में कई बार ऐसी परिस्थितियाँ सामने आती है जो असह्य होती हैं और “मन को खिन्न, विषण्ण दुःखी तथा उदास बना देती है।” इसी तरह की परिस्थितियों में एक है किसी के द्वारा आलोचना या निन्दा किया जाना। सामान्यतः मनुष्य अपने लिए प्रशंसा ही सुनना चाहता है। किसी व्यक्ति में लाख कितने ही दोष-दुगफ्रण भरे हों, उसे अपनी कमियाँ दिखाई नहीं देतीं। दिखाई देती भी हैं तो वह उसके अपने स्वभाव को नहीं, परिस्थितियों को ही जिम्मेदार ठहराता है। गलतियाँ होती है तो कारण बताया जाता है कि परिस्थितियाँ ही अमूक प्रकार की थीं जिनमें ऐसा होना स्वाभावितक था। गलतियाँ करने और स्वभाव में त्रुटियाँ होने के बाबजूद भी मनुष्य उन्हें स्वयं तो नजरअन्दाज करता ही है, अपने सार्थियों, मित्रों-परिचितों और अन्य लोगों से भी यह अपेक्षा करता है कि वह भी उन परिस्थितियों को नजरअन्दाज कर दें।

एक तो मनुष्य को अपनी कमियाँ, त्रुटियाँ कम ही दिखाई देती है और दूसरे दिखाई भी देती है तो वह इतना असहिष्णु अनुदार होता है कि किसी और के द्वारा उनकी ओर इंगित किया जाना सह नहीं पाता। इसे व्यक्ति का अहंकार भी कह सकते हैं कि वह दूसरों को अपने दोष दर्शन के अधिकार देना नहीं चाहता और यदि कोई उसके दोष देखता या बताता है तो न केवल दुःखी होता है, वरन् उनका प्रतिकार करने के लिए भी कटिबद्ध हो जाता है। अपनी निन्दा आलोचना को न सह पाना एक कमजोरी ही कही जायेगी। उसी तरह की कमजोरी कि व्यक्ति सुखकर अनुकूल परिस्थितियों की कामना करता है और दुःखदायी प्रतिकूल परिस्थितियों से घबड़ाकर दूर भागता है। उसी प्रकार मनुष्य अपनी प्रशंसा सुनना तो पसंद करता है, किन्तु निन्दा या आलोचना से बचना चाहता है। जबकि निन्दा आलोचना प्रशंसा का ही दूसरा पक्ष है। दोनो एक सिक्के के दो पहलू हैं। जो व्यक्ति जितने प्रशंसित और चर्चित होते हैं उनकी उतनी ही निन्दा आलोचना भी होती है। बुरे कामों में लगे अपराधी प्रकृति के व्यक्तियों की निन्दा अलग बात है, उसे भर्त्सना और प्रताड़ना कहा जा सकता है। यहाँ निन्दा से आशय व्यक्ति की कमियों और त्रुटियों की चर्चा ही लगाना चाहिये।

इस स्तर की निन्दा आलोचना को सहज भाव से लिया जा सके तो व्यक्ति को अपने आपका सुधार करने के लिए भारी मदद मिलती है और यदि व्यक्ति दुसरों के द्वारा की गई आलोचना को रचनात्मक दृष्टि से देखने लगे तो उसे अपने उर्त्कष में इतनी सहायता मिलती है कि उसे सहज ही अपने सुधार की दिशा मिलती है। अपने में कौन-सी खामियाँ या त्रुटियाँ हैं, कौन-सी कमजोरियाँ है, क्या दोष है? यह स्वयं इतना पता नहीं चलता जितना कि दूसरे लोग अनुभव कर सकते हैं। क्योंकि व्यक्ति स्वयं तो अपनी दृष्टि से अपने लिए हित कर आचरण ही करत है दूसरों पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है? अथवा दूसरों का उससे हित हो रहा है या अहित? इसकी नाप-जोख करने का कहाँ अवकाश रहता है और कहाँ इसकी आवश्यकता समझी जाती है? जबकि आवश्यक यह भी है कि अपनी रीति-नीति का, आचरण, व्यवहार का दूसरों पर भला-बुरा क्या प्रभाव पड़ता है? दूसरों का हित होता है अथवा अहित? यह भी ध्यान में रखा जाये। अपने व्यवहार या आचरण की परख दूसरों के द्वारा की गई आलोचना और निन्दा के प्रकाश में भलीभाँति की सकती ह। इसीलिए कहा गया है - निन्दक नियरै राखिए आँगन कुटी छबाय। बिन पानी साबुन बिना निर्मल करै सुभाय॥

दिन्दा, आलोचना दुराग्रह वश भी की जा सकती है। यदि उससे भी उद्विग्न न हुआ जाये तो अपनी सहनशीलता बढ़ती है उससे कुछ घाटा नहीं होता। बल्कि मनीषियों ने तो यहाँ तक कहा है कि इस प्रकार की निन्दा से मनुष्य बन्दनीय स्थिति को प्राप्त हो कसता है। पाणिनी ने तो निन्दा को भी एक रस मानते हुए कहा - भूमि निन्दा प्रशंसा सु नित्य योगेऽतिशायने। सम्बन्धेऽस्ति विवक्षायाँ भवन्ति यातुवादयः॥

- रसानामानन्दंः रसानन्दः

‘जैसे शांगार, वीर आदि रस के साथ यथा सामायिक दृश्य एवं भावों के प्रदर्शन में आनन्दानुभूति होती है, उसी प्रकार निन्दा रस के प्रवाह में भी रसास्वादन होता है।’ दिन्दा को ग्यारहवाँ रस बताते हुए उसका स्थायी भावद्वेष कहा गया है। ईर्ष्या और किसी का यथोचित मार्गदर्शन करने के लिए की गई आलोचना उसके संचारी भाव बताए गए हैं।

सचमुच व्यक्ति यदि अपनी निन्दा को सकारात्मक भाव से स्वीकार करने लगे तो इसमें हित और उर्त्कष साधन ही होता है। कई बार यह निन्दा अपने प्रकट-अप्रकट दोर्षों की ओर इंगित करती है। तथा उन्हें सुधारने की प्रेरणा देती है तो कई बार जब अतिरंजित ढंग से आलोचना निन्दा की जाती है तो वह उन दोषों की ओर से सतर्क करती है। भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकारान्तर सं अजफ्रन की आलोचना करते हुए ही, उसमें युद्ध के सम्बन्ध में उत्सुकता और कर्मयोग के प्रति जिज्ञासा जागृत की थी। अजफ्रन की भर्त्सना-सी करते हुए भगवान कृष्ण कहते हैं - कृतस्वा कश्पलमिदं विषमें समुपस्थितम् अनार्य जुष्टमस्वर्ग्य कीर्तिकरमजफ्रन॥ क्लैव्यं या रमगमः पार्थ नैतत्वच्युपद्यते क्षुद्रं हृदय दौर्बल्यं त्यतत्वोतिष्ठ परंतम॥

-(गीता2/2,3)

अर्थात - हे अजफ्रन। तुम्हें इस विषमस्थल में यह अज्ञान किस कारण उत्पन्न हुआ? क्योंकि यह न तो श्रेष्ठजनों द्वारा आचरण किया गया है तथा न र्स्वग और कीर्ति को देने वाला है। इसलिए हे अजफ्रन! नपुँसकता को मत प्राप्त हो, तुम्हारे लिए यह उचित नहीं है। तुम्हारे हृदय में जो तुच्छ दुर्बलता उत्पन्न हो गई है, उसे त्याग कर तुम युद्ध के लिए खड़े हो जाओ।

भगवान श्रीकृष्ण ने यह मित्रतापूर्ण परामर्श और मन को कचोट देने वाले शब्द नपुँसकता, क्षुद्र हृदय की दुर्बलता, श्रेष्ठजनों द्वारा असमर्थित आचरण बता कर अर्जन को यह प्रश्न करने के लिए ही प्रेरित किया और तैयार किया कि - “कार्यव्यदोषोपहत स्वभावः पुच्छामि त्वा धर्म संमूढ़ चेताः” (2/7)

कायरता रुप दोष से उपहत हुआ धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपको पूछता हूँ? जो कुछ निश्चय किया हुआ कल्याणकारण साधन हो, वह मेरे लिए कहिए! धर्मशास्त्रों और पुराण ग्रन्थों में ऐसे कई प्रसंग आते हैं, जिनमें चरित नायकों को किसी ने ऐसी कोई बात कह दी कि उससे उनका सोया हुआ पौरुष पराक्रम जागृत हो उठा तथा जिस कार्य को नायक असम्भव समझ रहे थे, उसे आनन-फानन में ही कर गये।

लोकतंत्र इसलिए अन्य सब शासन प्रणालियों से श्रेष्ठ हे और सफल सिद्ध हुआ है कि उसमें सत्तारुढ़ पक्ष केन्द्र अतिरिक्त एक सबल विपक्ष भी होता है जो शासकों की त्रुटियों और गलतियों को बताता रहता है। उसकी आलोचना करता है और उस आलोचना का अंकुश, विरोध का भय शासकों को मनमानी करने से रोके रहता है।

इसलिए निन्दा आलोचना से बजाय रुष्ट होने, दुःखी होने या प्रतिकार लेने की भावना रखने की अपेक्षा उसका रचनात्मक उपयोग करने की ही बात सोचनी चाहिए। इसी में भला है और इसी में हित। यदि निन्दा आलोचना को सहज भाव से स्वीकार किया जाए तो मनीषियों का कथन है कि इससे दुगफ्रणों का विनाश हो जाता है। “ज्योतिषा बाधते तमः निन्दा वाधते दोष।” संस्कृत की प्रसिद्ध सूक्ति है। तदनुसार निन्दा आलोचना का उपयोग अपने उर्त्कष, आत्म-परिष्कार के लिए भी किया जा सकता है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। चाहिए वह दृष्टि जो निन्दा के प्रकाश में पने दुगफ्रणों-दोषों को ढूँढ सके और चाहिए वह सहिष्णुता जो निन्दा आलोचना को सह सके।


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