हृदय रोग के तीन कारण मानसिक तनाव, शारीरिक बढ़ाव और रक्त का दबाब

November 1980

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मुट्ठी खोलने और बन्द करने की क्रिया से मिलता-जुलता क्रिया-कलाप हमारे हृदय का है। वह एक मिनट में प्रायः 72 बार सिकुड़ता, फ्रलता है। चौबीस घंटे में 103680 बार और वर्ष में लगभग चार करोड़ बार यह क्रिया उसे अनवरत गति से करनी पड़ती है। दो धड़कनों के बीच प्रायः आधी सैकिण्ड का वह विश्राम भी ले लेता है। हृदय को अपनी ड्यूटी बजाने में उतना ही परिश्रम पड़ता है जितना किसी मनुष्य को 10 पौंड वजन जमीन पर से तीन फुट ऊंचाई तक प्रतिमिनट दो बार उठाने, रखने में करते रहना पड़ेगा। दौड़ते आदमी के पैरों की माँसपेशियों को जितना श्रम करना पड़ता है उससे दूना श्रम हृदय कर माँसपेशियों को अहिर्निशि करते रहना पड़ता है।

शरीर का और कोई अंग इतना कठेर श्रम नहीं करता जितना कि हृदय। इसलिए इसके लिए ईंधन की खपत भी अधिक करनी पड़ती है। खाद्य के रुप में शरीर को जो ईंधन प्राप्त होता है उसका प्रायः आधा भाग हृदय को क्रियाशील रखने में खर्च हो जाता है। शरीर को प्राप्त होने वाली आक्सिजन का 25 प्रतिशत भाग भी उसी के निमित खर्च हो जाता है। मनुष्य कृत अच्छे से अच्छा भाप का टरबाइन केवल 25 प्रतिशत ईंधन को शक्ति का रुप में परिणत कर पाता है, पर हृदय है जो ईंधन का 50 प्रतिशत शक्ति के रुप में उपयोग कर लेता है।

धमनियों द्वारा रक्त हृदय में आता है और उसे आक्सिजन तथा अन्य पोषक तत्व पहुँचाता है। 24 घंटे में प्रायः 4 हजार गैलन रक्त का प्रवाह हृदय में होता है।

स्टेथेस्कोप से हृदय कर की धड़कन सुनने पर उसमें दो आवाजें सुनाई पड़ती है एक ‘लप’ दूसरी ‘ड’। डप की ध्वनि लप की अपेक्षा अधिक जोरदार किन्तु अल्प-कालिक होती है। इस बीच प्रायः पौन सैकिण्ड का विराम भी होता है यही हृदय का विश्राम काल है। हृदय की धड़कन को नाड़ी परीक्षा से भी जाना जा सकता है। उसकी चाल भी प्रति मिनट 72 बार ही रहती है। अधिक परिश्रम करने पर वह 120 तक हो सकती है, पर स्वाभाविक स्थिति आने पर फिर उतनी ही हो जाती है।

धमनियों और उसे शाखा-प्रशाखाओं में होता हुआ रक्त शरीर की समस्त रक्त बाहिनियाँ नापी जायें तो उनकी लम्बाई 70 हजार मील बैठेगी। रक्त को इतना सफर निरंतर करते रहना पड़ता हे।

हृदय यन्त्र अति कोमल होते हुए भी अतीव सुदृढ़ है। यदि उस पर अनावश्यक दवाब न पड़े तो दो सौ वर्षों तक निरंतर काम करता रह सकता है। दुर्भाग्य इस बात का है कि लोगों के दिल दिन-दिन कमजोर होते चले जाते हैं और हृदय रोग तेजी के साथ बढ़ रहे हैं। आहार-बिहार की विकृतियाँ और मानसिक उद्विग्नता ही हृदयदय रोगों का मुख्य कारण है। शारीरिक, मानसिक अव्यवस्था अपनाकर हम अपने हाथों अपने पैर काटते हैं और हृदय रोगों के मरीज बनते हैं।

अमेरिका में दिल के दौरे से कोई छै लाख आदमी हर साल मरते हैं तथा 20 लाख से अधिक हृदय रोगों से रुग्ण अस्पतालों में दर्ज हैं। जिन्हें छोटी-मोटी शिकायत है और घरेलू डाक्टरों से दवादारु करते रहते हैं उनकी संख्या इसके अतिरिक्त है।

सम्पन्न देशों में अमीरी से उत्पन्न और गरीब देशों में अभावजन्य परिस्थितियों के कारण इन रोगों की वृद्धि हो रही है फिर भी गरीब देश या गरीब लोग इस बात से प्रसन्न रह सकते हैं कि उनका पिछड़ापन हृदय रोगों की दौड़ में भी अपेक्षाकृत पीछे ही रख रहा है।

अपने देश में दिल के रोगियों का विभाजन उपलब्ध अस्पतालों की रिपोर्ट के अनुसार इस प्रकार किया जा सकता है। 20 प्रतिशत कोरोनरी, 20 प्रतिशत हाइपरटेन्शन, 20 प्रतिशत रोमोटिक, 15 प्रतिशत वेन्ट्रिकल, 5 प्रतिशत वंशानुगत तथा 20 प्रतिशत अन्यान्य कारण। हृदय रोग के मरीज तो बहुत पाये जाते हैं, पर उनमें से मृत्यु एक लाख आवादी पीछे 137 की होती थी अब थोड़े ही दिनों में बढ़कर वह 220 हो गई है।

अमीरों को होने वाले रोगों में ‘हार्ट अटैक’ की भी गणना है। अमेरिका में जितने लोग केन्सर से मरते हैं उससे दूने ‘हार्ट अटैक’ से मरते हैं। दिल की बीमारियों से ग्रसित रहने वालो लोगों की संख्या तो अन्य रोगों से बीमारों जितनी ही है। यह खतरनाक रोग विस्तार की दृष्टि से सामान्य रोगों की संख्या जितना ही पहुँच चुका है।

रक्त वाहनी नलियों के अन्दर की सतह एक बहुत चिकनी झिल्ली से ढकी रहती है। इस झिल्ली पर रक्त दोष के कारण एक पीला पदार्थ जमा होने लगता है इसे एथिरोस्क्लेरोसिस कहते हैं। इसके खुरदरेपन के कारण कई तरह की परतें उसमें जमा होने लगती हैं। यह परतें रक्त में बाधा डालती हैं और जहाँ रुकावट होती है वहाँ रक्त का जमाव होने लगता है।

धमनी के अन्दर जमने को थ्राम्वोसिस कहते हैं। धमनी के रुकने से मस्तिष्क को रक्त नहीं पहुँचता। ऐसी दशा में दिल का दौरा पड़ने या लकवा मार जाने की सम्भावना रहती है।

कारोनरी थ्राम्बोसिस ही प्रायः दिल का दौरा माना जाता है यो और भी कई कारण उसके होते हैं। इस स्थिति में सीने में तेज दर्द होता है - बाँये हाथ या पेट के बाईं ओर भी कष्ट प्रतीत होता है, साँस लेने में तकलीफ होती है, पसीना आता है।

दिल के दौरे का सबसे अधिक दोष रक्त में पाये जाने वाले कोर्लस्टाल को दिया जाता है और कहा जाता है कि यह अधिक चिकनाई उक्त पदार्थ खाने से होता है पर कई वार ऐसा भी होता है कि भोजन में उस तत्व को नहीं भी रहने दिया जाय तो भी यकृत अपने आप उसे बनाता रहता है। यों ऐसा कम ही होता है।

आवश्यकता से अधिक शरीर का वनज, बहुत चिन्ता, ज्यादा भोजन, कम परिश्रम यह बुराईयाँ ऐसी हैं जो हृदय रोगों के लिए रास्ता तैयार करती है। रक्त में शकर या चर्बी की मात्रा बढ़ना भी इस दृष्टि से खतरनाक है। जिन्हें रक्त चाप ऊंचा रहता है उनके लिए भी दिल का दौरा पड़ने का संकट बना रहेगा।

कई बार लोग दिल की धड़कन तेज हो जाने - पैल्पिटेशन को ही दिल का दौरा मान लेते हैं जब कि वस्तुतः दोनों सर्वथा अलग रोग हैं। धड़कन बढ़ जाना दिल का दौरा नहीं है।

दिल का दर्द अक्सर छाती के बीच में महसूस होता है। एक या दोनों बाँहों की ओर फ्रलने लगता है - पीठ, गर्द या जबड़ों की जकड़ता-सा लगता है।

हृदय धमियों, कारोनरी आर्टरीज-की विकास ग्रस्तता कई प्रकार के हृदय रोग उत्पन्न करती है जिनमें ऐजाइना पेक्टोरिस ही अधिक प्रख्यात है। दिल के दौरे पड़ने से रोगी छटपटा जाता है और लगता है अब दम निकला-तब दम निकला।

सच बात यह है कि हृदय रोगों का कोई कारगर उपचार अभी निकला नहीं है। जो उपचार हे वे केवल सामयिक और तात्कालिक सहायता देने भर के हैं। डाक्टर ऐमिल नाइट्राइट की डिबिया रोगी को थमा देते हैं और दर्द उठने पर उसे सूँघ लेने का निर्देश देकर अपनी जिम्मेदारी हलकी कर लेते हैं। तेज दौरा होने पर रोगी को कोई नींद की गोली या सुई देते हैं ताकि तात्कालिक घबराहट दूर हो जाय और दौरे की घड़ी टल जाय। हृदय के अवयव अपनी विपत्ति से स्वयं ही जूझते हैं और प्रकृति प्रस्तुत संकट का निरोकरण करती है। इतने समय बेचैनी की जो स्थिति रहती है, उसमें रोगी घबरा जाता है। इस घबराहट को दूर करना ही डाक्टर के वस की बात है।

इलाज के रुप में रोगी का वनज यदि बढ़ा हुआ है तो उसे भोजन में सुधार करके उसे घटाने की सलाह दी जाती है।

रक्त में कोलेस्टेरोल की मात्रा का बढ़ जाना हृदय रोगों का एक कारण माना जाता है। घी जैसे चिकनाई प्रधान पदार्थों की अधिक मात्रा में लेते रहने वाले लोगों के शरीर में - यह तत्व बढ़ता है। अनसैचुकेटिड फ्रटी एसिड कम करने वाले पदार्थ लेने का डाक्टर ऐसे रोगियों को सलाह देते हैं।

स्त्रियों को प्रायः 50 वर्ष की आयु तक मासिक धर्म होता है तब तक उन्हं दिल के दौरे की सम्भावना कम रहती है क्योंकि रक्त निकलते रहने से उनमें कोलेस्ट्राल भी इक्ट्ठा नहीं होने पाता। यह पदार्थ घी, मलाई, मक्खन, माँस, अंडा खाने से बढ़ता है किन्तु कुछ चिकनाइयाँ ऐसी भी हैं जो उसे बढ़ाती नहीं वरन् घटाती है जैसे - सरसों का तेल, नारियल का तेल, विनौले का तेल, जैतून का तेल आदि। जिन देशों में माँस, अण्डा, मक्खन आदि कम खाया जाता है उनमें उसी अनुपात के दिल का दौरा भी कम होता है। जापान और इटली इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

शारीरिक श्रम कम करना ऐसा दोष है जिससे रक्म की स्वाभाविक शुद्धता से अन्तर पड़ता है और प्रवाह में रुकावट डालने वाला गाढ़ापन बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त मानसिक उत्तेजनाएं खून सुखाती है और उसमें विषाक्तता बढ़ाती है। मात्र खुराक को दोष देना और घी छोड़कर तेल खाने लगना ऐसा उपाय नहीं है जिससे हृदय की बीमारियों से बचा जा सके। इसके लिए पूरे शारीरिक और मानसिक क्रिया-कलाप में ऐसा हेर फ्रर करना होता है, जिससे रक्त प्रवाह समेत सारी गतिविधियाँ सही और संतुलित रीति से अपना काम करती रह सके।

दिल के मरीजों को कठोर शारीरिक श्रम, मानसिक तनाव और भारी भोजन से बचना चाहिए। अक्सर भर पेट भोजन कर लेने पर दिल की चाल बढ़ती है और गड़बड़ी की सम्भावना रहती है। यदि भोजन की मात्रा कम ली जाय और खाने के बाद कुछ समय लेट लेने का नियम बनाया जाय तो बहुत कुछ रोकथाम हो सकती है। शारीरिक श्रम कम करना चाहिए किन्तु इतना कम नहीं कि पुर्जों को जंग ही लग जाय और पड़े-पड़े भोजन तक हजम करना कठिन पड़ जाय। चिन्ता, क्रोध, आवेश, भय, आशंका जैसी मनःस्थिति से बचना चाहिए। यदि कुछ सम्भावनएं भी ऐसी है तो भवत्व्यता को ईश्वर पर छोड़ कर अपना सामान्य कर्त्तव्य पूरा करते हुए निश्चिन्त रहने की - और जो होगा देखा जायेगा की - नीति अपनाने की चेष्टा करनी चाहिए।

बढ़े हुए हृदय रोग में कई और भी लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। साँस फूलती है - हर घड़ी बैचेनी अनुभव होती है। उंगलियों, नाक, जीव तथा होठों पर नीलापन छा जाता है। बार-बार खाँसी आना, कफ के साथ खून आना, कनपटियों में दर्द, बढ़ा हुआ रक्तचाप, धड़कन में तेजी एवं अनियमिता यह सब हृदय रोगों के स्वामी बन जाने के चिन्ह हैं।

डाक्टर लेग हृदय रोगी की जाँच सीने पर हृदय के चारों बाल्वों की ध्वनि सुनकर भीतर की स्थिति का पता लगाने का प्रयत्न करते हं। साधारणतया लप, डप की ध्वनियाँ सुनाई पड़ती है, पर हृदय रोगों में वे अनियमिताएं भी सुनी जा सकती है जिन्हें चिकित्सा शास्त्र में ‘मर-मर’ कहते हैं। रक्त में श्वेत कणों का तथा एन्जाइमों का बढ़ जाना भी हृदय की स्थिति को बताता है। इलेक्ट्रा कारडियो ग्राम से भी पता चलता है कि धड़कन में क्या अन्तर आने लगा है?

हृदय रोगों का भोजन हल्के से हल्का रखना चाहिए। फलों के रस, गाय का दूध आदि पेय पदार्थों पर रहा जा सके तो और भी अच्छा है। रक्तचाप बढ़ा हुआ हो तो नमक बन्द कर देना चाहिए या कम से कम लेना चाहिए। ग्लूकोज, कुचोडीन प्रकृति शक्तिवर्धक खाद्यों का भी सीमित मात्रा में प्रयोग करना अच्छा रहता है। रोगी की अधिक से अधिक विश्राम मिले इसकी व्यवस्था विशेष रुप से की जानी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118