भूदेव की आराधना

November 1980

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एक बार र्स्वग के देवता धरती पर विचरण करने आये। उन्हें आशा थी कि धरती के निवासी उनका पुल स्वागत करेंगे।

उन दिनों खेतों में अनाज के पौधें लहलहा रहे थे। कलियाँ और वाले निकल रही थीं। लोग उन्हें देखकर फूले नहीं समा रहे थे। चारों ओर मस्ती छाई हुई थी, जहाँ देखो वहाँ वसन्तोत्सव मनाया जा रहा था।

देवताओं की तरफ किसी ने आँख उठाकर भी नहीं देखा। उन्हें जिस स्वागत की आशा थी वह कहीं नहीं मिला। वरदान देने की अपनी क्षमता पर उन्हें जो गर्व था वह गल चला।

वे सोचते थे कि अभावग्रस्त मनुष्य उनकी अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए बहुत गिड़गिड़ायेंगे और न जाने क्या-क्या माँगेंगे। याचकों की मनोकामना पूर्ण करने वाला सदा यशस्वी होता है और मान पाता है। देवा इसी का आनन्द लेने तो पृश्वी पर आये थे। जिसके स वरदान देने की क्षमता हो उसके लिए वैसी चाहना उचित भी थी।

जब देवता निराश लौटने लगे तो उनने धरती से पूछा - तुम्हारे पुत्र, किस उपलब्धि में हर्ष-विभोर हो रहे हैं? ये हम से क्यों कोई याचना करने नहीं आते?

धरती ने इतनी दूर से पधारे हुए अपने मान्य अतिथियों का झुक-झुककर स्वागत किया और नम्रतापूर्वक, बोली-इस लोक में यहाँ का भी एक देवा है, वह भी आपकी ही तरह सामर्थ्यवान है। मेरे पुत्र उसी की पूजा करते हैं और फलस्वरुप जो चाहते हैं सो प्राप्त कर लेते हैं। आजकल उसी की अनुकम्पा यहाँ बरस रही है, सौ सबका मन उसी की स्वागत में लगा हुआ है। आप कुसमय आये। यदि दूसरे दिनों में आते तो सम्भव था आपकी भी अर्चना होती।

देवताओं के आर्श्चय का ठिकाना न रहा। उनने पूछा - भला इस मनुष्य लोक में भी कोई देवता बसता है? और वह हम लोगों की तरह ही सामर्थ्यवान है? ऐसा हमें अब तक विदिन न था, यदि ऐसा है तो उसका नाम बताओ, स्था दिखाओ।

धरती मुस्कराई। उसने एक मनुष्य को पास बुलाया और उसकी हथेली दिखाते हुए कहा, वह देवता यहाँ रहता है, खेत-खेत में उसी की विभूति बिखरी पड़ी है। मेरे सब पुत्रों का भरण-पोषण उसी के द्वारा होता है। श्री और समृद्धि, सफलता और प्रगति सभी कुछ तो उससे मिलता है।

हथेली में रहने वाला, न दीखने वाला और इतनी विभूतियों का अधिपति भला कौन देखता होगा? र्स्वग से पधारने वाले अतिथियों के लिए यह एक पहेली थी। वे उसे न सुलझा सके तो पूछने लगे देवी ! जरा और स्पष्ट करो। उसका नाम रुप तो बताओ।

धरती की छाती र्गव से तन गई उसने कहा - वह देवा है, “श्रम”। मेरे पुत्रों ने उसी की आराधाना करने की ठान-ठानी है और वे आज नहीं तो कल इस लोक में र्स्वग की रचना करेंगे। खेत-खेत पर हरियाली के रुप में यह श्रम ही लहलहा रहा है। जहाँ भी इस देवता की अर्चना होती है वही विभूतियाँ हाथ बाँध कर आ खड़ी होती है।

जहाँ श्रम की पूजा होती है वहाँ कोई ऐसी कमी नहीं रह सकती जिसके लिए देवताओं को कष्ट करना पड़े। इस तथ्य और सत्य के साथ-साथ र्स्वग निवासियों ने वस्तुस्थिति को समझा और वे अपनी निरुपयोगिता एवं मनुष्य की उपेक्षा का रहस्य समझते हुए अपने लोक को वापिस चले गये।


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