सच्चा धन (kahani)

November 1980

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स्वामिनी सत्संग में गयी हुई थीं। घर में अकेली दासी रह रयी। तभी कुछ चोर घर में घुस आये और चोरी करने लगे। दासी ने यह देखा तो छिप कर तेजी से स्वामिनी को सूचित करने के लिये दौड़ी। यह देखकर चोरों का सरदार भी उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

दासी ने पाया कि स्वामिनी सत्संग सुनने में बड़ी तल्लीन हैं। उसने दो तीन बार स्वामिनी से कहा कि चोर धन लिये जा रहे हैं। पर स्वामिनी पर कोई प्रभाव न पड़ा। अन्त में फिर चौथी बार दासी ने स्वामिनी को झकझौर कर अपनी बात कही। तब उनकी तल्लीनता भंग हुई और वह बोलीं, ‘चोर तो नकली धन ले जा रहे हैं। तू मुझे चुपचाप यहाँ बैठने दे। असली धन तो यही है।

चोरों के सरदार ने जब यह सुना तो सोचा कि इसके घर में नकली आभूषण हैं, असली धन इसने कहीं और छिपा कर रखा है। चोरों का सरदार वापिस अपने साथियों को बुलाने चला गया।

‘चलो सत्संग में चलकर हम सभी बैठते हैं। जब वह महिला घर जायेगी तो रास्ते में उसे घेर लेंगे। वह बहुमूल्य आभूषण पहनी है, उन्हें छीन लेंगे।’ चोरों के सरदार ने कहा।

सभी चोर सत्संग में जाकर बैठ गये। मुनि कोटिकर्ण ने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उन चोरों को पहचान लिया। उन्होंने इतने प्रभावशाली शब्दों में चोरी के बुरे परिणामों पर प्रकाश डाला कि चोरों का मन भी उससे भयभीत हो उठा। मुनि का शब्द चोरों की आत्मा का झकझोरने लगा। सम्मोहन की-सी अवस्था में चोरों का सरदार उठा, मुनि के चरणों पर गिर कर अपने सारे अपराध बताने लगा। उसकी आँखों से धराप्रवाह अश्रु बह रहे थे। वह गद्गद् कण्ठ से बोला - ‘महात्मन् मुझे इस नरकीय जीवन से अब उबार लीजिए।

मुनि बोले -’वत्स! अच्छा हुआ तुम समय रहते सही मार्ग पर आ गये। मानव जीवन का सत्कार्यों से सदुपयोग करो। पाप करके इसे अवनति के गर्त में मत गिराओ। तुमने अपने दुष्कार्यो के लिये पश्चाताप किया है, यह अच्छा ही हुआ। इसका प्रायश्चित अब यही होगा कि मनुष्यों की भलाई में अपना जीवन अर्पित कर दो।’

और सन्त की प्रभावपूर्ण वाणी के जादू से सभी चोरों ने कुकर्म छोड़ दिया।


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