योग्यता अथवा चरित्र

December 1980

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वाराणसी नरेश ब्रहृदत्त को अपने राजपुरोहित देव मित्र के प्रति अटूट श्रद्धा थी और था अगाध विश्वास । देवमित्र के स्वभाव में विद्वत्ता, योग्यता और प्रतिभा के साथ-साथ शील, सदाचरण और नीति निष्ठा का भी समावेश था । उनके इन गुणों, योग्यता और सदाचार प्रतिभा और निष्ठा से अभिभूत होकर महाराज ब्रहृदत्त तो क्या वाराणसी की समस्त जनता उनके प्रति श्रद्वानत थी । राज्य के बाहर भी उन्हें श्रद्वा और सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था ओर लोगों में उनके प्रति अगाध श्रद्वा तथा भक्तिभाव था ।

नरेश ब्रहृदत्त से तो उनका निकट सर्म्पक था ही वे तो देवमित्र के उ़च्च उदात्त चरित्र और प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व से इतने अधिक प्रभावित थे कि लगता था, देवमित्र आराध्य है और ब्रहृदत्त से तो उनका निकट सर्म्पक था ही वे तो देवमित्र के उ़च्च उदात्त चरित्र और प्रखर प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व से इतने अधिक प्रभावित थे कि लगता था, देवमित्र आराध्य है और ब्रहृदत्त आराधक । राजपुरोहित विग्रह है और सम्राट अर्चक, भला, ऐसे नीति भक्तिमान ब्राहृण के प्रति कौन श्रद्वावान न होता ?

देवमित्र के मन में एक दिन यह प्रश्न उठा कि राजा और प्रजा उनके व्यक्तित्व के किस पक्ष से प्रभावित है ? और किस कारण उन्हें श्रद्वा तथा आदर की दृष्टि से देखती है ? वे मेरे साहित्य, शास्त्रज्ञान, विद्वता और प्रतिभ के लिए मुभे सम्मानित करते है अथवा मेरे शील सदाचरण और नीति निष्ठा के कारण मुभे श्रद्वा की दृष्टि से देखते है ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए उन्होंने एक विचित्र आचरण किया ।

एक दिन राजसभा विसर्जित होने पर देवमित्र जब अपने घर लौट रहे थे तो उन्होंने राजकोष में से एक काषार्पण (मुद्रा) उठा लिया । कोषाध्यक्ष ने देवमित्र को यह अनुचित आचरण करते तो देखा, पर देखकर अनदेखा कर दिया । सम्भवतः वह यह सोचकर रह गया हो कि पुरोहित जीने किसी प्रयोजन विशेष से ऐसा किया होगा सो कल वे उस प्रयोजन को स्पष्ट कर देंगे । लेकिन दूसरे दिन भी राजपुरोहित ने राजसभा से लौटते हुए ऐसा ही किया । उस दिन भी कोषाध्यक्ष ने देखकर अनदेखा कर दिया। पर तीसरे दिन जब पुरोहित ने राज सभा की समाप्ति पर घर जाते समय मुट्ठी भर काषर्पण उछा लिए और वे अपनी राह चलने को उ़द्यत हुए तो कोषाध्यक्ष ने लपक कर उनका हाथ थाम लिया और इसकी शिकायत दण्डाधिकारी से की ।

दण्डाधिकारी ने नरेश तक देवमित्र के इस आचरण की सूचना दी और पूछा कि पुरोहित जी के साथ कैसा व्यवहार किया जाना चाहिए ? तो उत्तर मिला, जैसा इस तरह का आचरण करने वाले किसी अपराधी के साथ होता है । अन्ततः इस तरह के आचरण के लिए दण्डाधिकारी ने उनके प्रति, वैसा ही व्यवहार किया, जैसा किसी चोर के प्रति किया जाता है । राजसभा में उन्हें बन्दी की तरह उपस्थित किया गया । दण्डाधिकारी ने आरोप पढ़कर सुनाया, राजा ने उनसे उसी प्रकार के प्रश्न पूछे, कोषाध्यक्ष से भी पूछताछ की गई और राजपुरोहित ने दुर्ष्कम किया है, इस विषय में आश्वस्त होकर निर्णय सुनाया गया, ‘यह व्यक्ति चोर है ।

निर्णय सुनाने के बाद ब्रहृदत्त असमंजस में पड़ गए । जिसका शील सदाचार दूर-दूर राज्यों में सराहा जाता हो, वह कैसे इतना पतिति हो गया । एकान्त में पूछा तो देवमित्र ने कहा, ‘यह तो एक प्रयोग था राजन् जो मैंने अपने मन में उठे एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए किया । मै देखना चाहता था आप और राज्य की जनता मुभे जो सम्मान और श्रेय देती है उसकी अधिकारिणी मेरी प्रतिभा और योग्यता है, या शील सदाचार । आज समाधान मिल गया कि विद्वता, ब्रहृणत्व और रुप का अपना महत्व तो है, पर यदि वह शील, सदाचार और नैतिकता से च्युत हो जाए तो उसकी अन्य योग्यता का मूल्य कुछ भी नहीं रह जाता ।’

‘मैं दण्ड के लिए प्रस्तुत हूँ । ताकि लोगों में राज्य की न्याय व्यवस्था के प्रति विश्वास बना रहे ।


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