प्रेम और सद्भावनाओं की शक्ति

December 1980

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मानवीय अन्तरात्मा की भूख है प्रेम । इस क्षुधा की पूर्ति के लिए ही मनुष्य अपने मित्रों, प्रियजनों और परिजनों का परिवार व माता तथा उनकी परिधि बढ़ाता है, पे्रम का आदान-प्रदान दोनों ही पक्षों को, प्रेमी और प्रेमास्पद को बल प्रदान करता है । जहाँ प्रेम का आदान-प्रदान नहीं हो पाता है; वहाँ भौतिक सुख-सुविधाओं का, साधनों का बाहुल्य होते हुए भी किसी को तृप्ति नहीं मिल पाती । इस अभाव के कारण अन्तः भूमिका तृषित और मूच्िछत ही रहती है । इस सम्बन्ध में अब तक जो प्रयोग और शोध अनुसंधान हुआ है उससे यही निर्ष्कष निकलता है कि प्रेम भावना मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है । न्यूयार्क, अमेरिका के डाक्टर रेनी स्पिट्ज ने ऐसे छोटे बच्चों का अध्ययन किया जिनमें विध्वंसात्मक प्रवृत्तियों का विकास आयु के अनुपात से कई गुना अधिक था । डा. स्पिट्रज ने उनकी पारिवारिक परिस्थितियों का अध्ययन किया तो विदित हुआ कि उनमें से निन्यानवें प्रतिशत ऐसे थे जिन्हें अपनी माँ का प्रेम नहीं मिला था । या तो उनकी माँ का देहावसान हो चुका था । सामाजिक परिस्थितियों ने उन्हें माँ से अलग कर दिया था । इस प्रारम्भिक अन्वेषण ने डा. रेनी स्पिट्ज में पे्रम भावना के प्रभाव और प्रतिक्रिया का वैज्ञानिक विश्लेषण करने की प्रेरणा उत्पन्न कर दी ।

इस प्रयोग के लिए उन्होंने दो भिन्न सुविधाओं वाले संस्थानों की स्थापना की । एक में ऐसे बच्चे रखे गए जिन्हें थोड़ी-थोड़ी देर में माँ का वात्सल्य और दुलार मिलता था । वे जब भी चाहें, तभी अपनी माँ को पुकारें उन्हें अविलम्ब स्नेह, सुलभ किया जाता था और दूसरी ओर वे बच्चे रखे गए जिनके लिए बढ़िया से बढ़िया भोजन, वस्त्र, आवास, चिकित्या, क्रीड़ा के बहुमूल्य साधन उपलब्ध थे, परन्तु उन्हें मातृपे्रम के स्थान पर एक संरक्षिका भर मिली थी । इतने बच्चों को प्रेम और दुलार वह अकेली सरंक्षिका कहाँ से दे पती ? हाँ उन बच्चों को नर्स से कभी-कभी झिडकियाँ अवश्य मिल जाती थी । यही था, उन बच्चों का जीवनक्रम । एक वर्ष बाद दोनों स्थानों के बच्चों का परीक्षण किया गया । उनकी कल्पना शक्ति की मनोवैज्ञानिक जाँच की गई, शारीरिक विकास की माप, सामाजिकता से संस्कार, बुद्धि चातुर्य और स्मरण शक्ति का परीक्षण किया गया । दोनों संस्थानों के बच्चों में आर्श्चयजनक अन्तर पाया गया ।

जिन बच्चों को साधारण आहर दिया गया था, जिनके लिए खेलकूद, रहन-सहन और अन्य सुविधा साधन उतने अच्छे नहीं मिले थे किन्तु माँ का पे्रम प्रचुर मात्रा में मिला था; पाया गया कि उन बच्चों की कल्पना शक्ति, स्मरण शक्ति, सामाजिक सम्बन्धों के संस्कार तथा बौद्धिक क्षमता के विकास की गति बढ़ गई । दूसरे संस्थान के बच्चों की, जिनके लिए भौतिक सुख-सुविधाओं की भरमार थी, पर मातृ प्रेम के स्थान पर स्नेह शून्यता थी विकास दर घट गई । पहली संस्था के बच्चों के शारीरिक विकास के साथ-साथ स्वास्थ्य और उनके शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता का भी आर्श्चय जनक विकास हुआ । इस संस्था में रखें गये 136 बच्चों में से कोई ही कभी कदा बीमार पड़ा जबकि दूसरे संस्थान में 38 प्रतिशत बच्चे बीमार पड़े ।

प्रेम और स्नेह की शक्ति तथा प्रभाव को लेकर डा. फ्रीट्स टालबोट के अनुभव भी कम विस्मयजनक नहीं है । एक बार डा. फ्रीट्स जर्मनी गये । वहाँ उन्होंने ड्यूरोल्फोर्ड नगर का बाल अस्पताल देखा । इस अस्पताल में उन्होंने एक वृद्धा स्त्री देखी जो देखने में तो आकर्षक नहीं थी, परन्तु उसकी भुखाकृति रो एक विलक्षण शाँतिप्रद सौम्यता और मुसकान देखी । हर समय उसकी गोदी में कोई न कोई बच्चा खेल रहा होता था । टालबोट ने उस स्त्री को देखा तो उसके बारे में जानने की जिज्ञासा अनायास उत्पन्न हुई । उन्होंने अस्पताल के डायरेक्टर से उस स्त्री का परिचय पूछा तो डायरेक्टर ने बताया कि वह तो अन्ना है श्रीमान जी ! डाक्टरों की भी डाक्टर । उसके पास एक ही चिकित्सा है प्रेम । जिन बच्चों को हम लाइलाज घोषित कर देते है, जिनके उपचार का कोई तरीका हमें नहीं सूझता, अन्ना उन्हें भी अच्छाकर देती है ।

क्वींप यूनिवर्सिटी, आण्टोरिया (कनाडा) के वैज्ञानिकों ने ‘निणियों पर प्रेम का भौतिक प्रभाव’ विषय पर खोज की और उसके आर्श्चयजनक परिणाम सामने आए है । इस विश्वविद्यालय के फार्माकोलाजी विभाग के प्राध्यापक डा. एल्डन वायड ने बताया कि उनके विभाग की एक महिला कर्मचारी को चूहों से बहुत प्रेम है । वह उन्हें दुलार भरी दृष्टि से देखती है, उनकी सुविधाओं का बहुत ख्याल रखती है और यथासम्भव अपने व्यवहार में पे्रम प्रदर्शन भी करती है । चूहो पर इसका आश्चयजनक प्रभाव हुआ है । उस महिला ने चूहों के नाम रख छोड़े है और वह जिसे भी पुकारती है, वही आगे आता है । जैसे ही वह पिंजड़े के पास जाती है, चूहे उसके पास इकट्ठे हो जाते है और एक टक उसे देखने लगते है जो भी वह खिलाती है उसे वे खुशी-खुशी खा लेते है । यद्यपि उस भोजन में तरह-तरह की औषधियाँ मिली रहती है और इस कारण वह भोजन चूहों की रुचि तथा प्रकृति के प्रतिकूल होता है । कई बार कष्टकर ढंग से चूहों के शरीर में विभिन्न औषधियाँ पहुँचाई जाती है । अनुभव होने पर तो किसी भी चूहे को इसके लिए तैयार नहीं होना चाहिए, पर वह महिला जिस चूहे को चाहती है, खुशी खुशी इस प्रयोग के लिए सहयोग देने हेतु तैयार कर लेती है । इससे भी आर्श्चयजनक बात तो यह कि कई बार चूहों पर विषौली दवाओं का प्रयोग किया । एक ही किस्म की एक ही मात्रा में दवा दो महिलाओं द्वारा खिलाई गई । आर्श्चय की बात तो यह है कि पे्रम भावना युक्त महिला के हाथ से दवा खाने पर 20 प्रतिशत चूहे मरे, जबकि उसी दवा को उती ही मात्रा में दूसरी महिला ने खिलाया तो 80 प्रतिशत चूहे मर गए ।

पे्रम और सद्भावनाओं की शक्ति का सबसे बड़ा और जीता जागता प्रमाण है श्रीमति डोरिस मुन्डे पचास वर्ष की वृद्धा, शरीर से सामान्य महिलाओं की तरह साधरण; किन्तु भावनाओं की दृष्टि से असाधारण श्रीमति डोरिस एटलस निकालकर देखती है कि वह स्थान वह देश किस महाद्वीप में है, जहाँ सूखा या अकाल पड़ा है ? इसके बाद वह ध्यान लगाकर बैठ जाती है और कुछ हो क्षणों में उसकी स्थिति समाधिस्थ योगियों जैसी हो जाती है । आसपास क्या कुछ हो रहा है, इसका कुछ पता नहीं । शरीर कमरे में रखा होगा और भाव शरीर उस सूखें वाले इलाके में । वह अपने सम्पूर्ण हृदय से, परिपूर्ण एकाग्रता और तल्लीनता के साथ भावना करती है कि मेरी अजस्त्र प्राण शक्ति बादलों में घुल रही है । अब मैं इन बादलों को लेकर उस सूखे वाले क्षेत्र की ओर उड़ चली । बादलो की क्या विसात जो मेरी आज्ञा न मानें ? आगे आगें मैं, पीछे-पीछे बादल । बादलो चलो, तुम्हें उस क्षेत्र में बरसना है । बादलो ! लो आगया वह सूख क्षेत्र जहाँ तुम्हें बरसना है । यह देखा प्यासी धरती, प्यासे जीव-जन्तु कितने दुखी हो रहे है ।

संसार का दुख और शान्ति करुणा पर टिकी है । हर सम्पन्न व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अभावग्रस्त प्राणियों के उत्थान और उद्धार के लिए कुछ दे । तुम स्वार्थी क्यों हो गए हो ? देने की कन्जूसी क्यों करते हो ? दोगे नहीं तो तुम्हारे पास नया तीर कहाँ से आएगा ? बरसो ! बरसो !! जल्दी बरसो ताकि प्यास से सूखे कण्ठ वाले लोगों की प्यास बुझ सकें । सूखी धरती गीली हो सके । तुम्हें बरसना पडे़गा, बादलों तुम्हें बरसना पडे़गा । लो बरसो ! चलो बरसो ।

सम्पूर्ण मन प्राण से डोरिस मुन्डे इस तरह की भावनाएँ करती है और बादलों के साथ ही अपनी चेतना को घुला मिला देती है । पानी बरसने लगता है । लोग खुशी से नाचने लगते है और डोरिस मुन्डे उनकी प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता घुला देती है, फिर उसकी आत्मचेतना वापस लौट आती है । अखबारों में समाचार छपता है कि अमुक सूखाग्रस्त क्षेत्र में इतनी वर्षा हुई कि सूखे से व्याप्त हुआ संकट समाप्त हो गया । यह समाचार पढ़कर श्रीमति डोरिस की प्रसन्नता का बारावार नहीं रहा । श्रीमति डोरिस का कहना है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना के आगे बादल तो क्या भगवान को भी झुकना पड़ता है । उन्होंने एक समाचार एजेन्सी नाकिन को बताया कि अपनी इस भावना शक्ति के द्वारा उन्होंने लालचीन, पेरु, अमेरिका तथा भारत का सूखा दूर किया है । कुछ दिन पहले उन्होंने बिहार और करीब दस वर्ष पूर्व आस्टे्रलिया में पडे़़ जबरदस्त अकाल को दूर करने में उन्होंने अपनी शक्ति का प्रयोग किया था और उन्हें सफलता मिली थी ।

अपने व्यक्तित्व को सीमित करने का नाम स्वार्थ है और उसे विस्तृत व्यापक बना लेने का नाम ही परमार्थ है । पे्रम भावनाएँ व्यक्तित्व की सीमाओं का विस्तार करती है और उसी के व्यक्तित्व सबल बनता है, परिपुष्ट होता है । सीमित प्राण दुर्बल होता है, पर जैसे-जैसे व्यक्ति का अहम् विस्तृत होता जाता है वैसे-वैसे आन्तरिक वलिष्ठता बढ़ती जाती है । प्राणशक्ति का विस्तार सुख-दुःख की अपनी छोटी परिधि में केन्द्रित कर लेने से रुक जाता है लेकिन यदि उसे असीम बनाया जाए और स्वार्थ को परमार्थ में परिणत किया जाए तो उसका लाभ प्रभाव, यश, सम्मान और सहयोग के रुप में तो मिलता ही है, अन्तः स्थिति भी द्रुतगति से परिष्कृत होती है और व्यक्तित्व प्रखर होता चला जाता है ।

देखा गया है कि किन्हीं विशेष व्यक्तियों को देखते ही उनके प्रति सहज की श्रद्धा, ममता और आत्मीयता जगती है, विश्वास उमड़ता है । इच्छा होती है कि अधिक से अधिक समय तक उनके सर्म्पक में रहा जाए । जब तक उनके साथ रहते है उच्चस्तरीय भावनाएँ उठती रहती है । यह उनके व्यक्तित्व में भावनात्मक प्रौढ़ता और उदारता की ही प्रतिक्रिया है । पे्रम और सद्भावनाएँ एक ऐसी सम्पदा है जो दूसरों पर अपना प्रभाव ही नहीं छोड़ती बल्कि उन्हें बदलती उनकी अन्तःस्थिति में हेर-फेर भी करती है । व्यक्तित्व को ढालने और उसे उन्नत करने के लिए जो कुछ आवश्यक है उसमें पे्रम तथा सद्भावनाओं का विकास प्रथम सीढ़ी है । बिना भावनाओं का विकास किये और उन्हें उदात्त तथा परिपक्व बनाए कोई व्यक्ति आत्मिक उन्नति कर ही नहीं सकता।


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