मनुष्य पराजय के लिए नहीं

December 1980

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सन् 1656 में आस्ट्रोलिया के एक पैंसठ वर्षीय उद्यागपात फ्रैंक व्यूरे पेयर का हृदयगति अवरुद्व हो जाने से देहान्त हो गया । यों रोज कितने ही व्यक्ति कितनी ही बीमारियों से मरते है । गरीब भी और अमीर भी, मजदूर भी और उद्योगपति । थोड़े बहुत दिनों तक लोग शोक मनाते है औपचारिकता निभाते है और फिर सब कुछ पूर्ववत चलने लगता है । किन्तु फ्रेंक व्यूरे पेपर का निधन हुआ तो उसके कारखाने में काम करने वाले चार हजार व्यक्ति ऐसे विलख उठे जैसे वे अनाथ हो गये हो । उसका कारण था फ्रेंक ने अपने कारखाने के श्रमिको और कर्मचारियों का इस प्रकार ध्यान रखा था, जैसे कोई स्नेही, वत्सल हृदय अभिभावक । वह अपने पीछे 1861 में हुआ था । निम्न वर्ग की स्थिति वाले परिवारों को जिन आर्थिक विपन्नताओं और कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है , वही परिस्थितियाँ व्यरें पेयर परिवार के साथ भी रहीं और माता-पिता अपने बच्चे के लिए आवश्यक दूध तथा पौष्टिक आहार की व्यवस्था तक न कर सके । परिणाम स्वरुप फ्रेंक का स्वास्थ्य प्रारम्भ से ही कमजोर रहने लगा । प्रायः वह बीमार रहता और अपने माता-पिता के लिए इस तरह की आपदा के कारण उपस्थित करता रहता कि पता नहीं कब उनका लाड़ला चल बसे । गरीब है तो क्या हुआ ? अपने बच्चों से सभी को प्रेम और ममत्व रहता है ।

पाँच छह वर्ष की उम्र में ही फ्रेंक बुरी तरह बीमार पड़ा । उसे गठिया का बुखार हो गया था, दिन रात बुखार के पात से जलता और हाथ-पैरों में दर्द की शिकायत करता । माता-पिता के पास इतने साधन तो थे नहीं कि उपचार की कोई व्यवस्था कर पाते । अपनी कोई पूछ न होते देखकर बीमारी ने भी फ्रेंक को जल्दी ही मुक्त कर दिया । किन्तु जिस प्रकार भिक्षा न मिलने या अपमानित होने पर अघोरी सन्यासी दरबाजे पर चिमटा पटक कर चला जाता है; उसी प्रकार फ्रेंक के स्वास्थ्य पर भी बीमारी अपने चिन्ह छोड़ गई । बीमारी ने उसके हृदय को प्रभावित किया, वह कमजोर हो गया तथा उसमें विकार आ गया ।

इस विकार का पता कुछ वर्षा बाद चला जब फ्रेंक को हृदय रोग ने आ घेरा । स्थानीय डाक्टरों ने रोग को असाध्य बताया और कहा कि यह कुछ ही दिनों का मेहमान है । न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था फ्रेंक । उसका रोग जो असाध्य बताया गया था, अपने आप शामिल होने लगा । उस समय वह बारह-तेरह साल का तो था ही । किस तरह रोग पर काबू पा लिया इस सम्बन्ध में वह कहा करते थें, मेरे मन में यह आकाँक्षा अदम्य रुप से उठती रहती थी कि मुभे जीवित रहना है, स्वस्थ होना है और स्वस्थ होकर दुनिया में कुछ कर दिखाना है । इस जिजी विषा का ही प्रताप कहा जाना चाहिए कि फ्रेंक ने बीमारी को परास्त कर दिया ।

सामान्य रुप से स्वस्थ हो जाने के बाद फ्रेंक ने अपने मन से इस विचार को उखाड़ फ्रेंका कि वह किसी असाध्य रोग से पीड़ित है । वह अन्य किशोरों की भाँति पढ़ने-लिखने और खेलने-कूदने में व्यस्त हो गया । कुछ दिनों बाद गाँव में एक तैराकी प्रतियोगिता हुई । फ्रेंक भी अपने साथियों के साथ तैराकी के करतब देखने के लिए तरणताल पर पहुँचा । प्रतियोगियों को उनके प्रशंसकों ने सम्मानित किया और विजयी होने के लिए शुभ कामनाएँ दीं । प्रतियोगिता के बाद विजेताओं को सम्मानित किया उससे वह असाधारण रुप से प्रभावित हुआ ।

फ्रेंक विचार करने लगा कि लोंगों का स्नेह और सम्मान अर्जित करने के लिए मुभे भी तैराक बनना चाहिए । यह विचार संकल्प बना और वह तैराफी का अभ्यास करने लगा । अब उसके सारे खेल बन्द होगए । महत्वाकाँक्षाएँ जैसे एक तैराकी के विभिन्न पेंतरे आजमाने का अभ्यास करने लगा । कुछ ही वर्षां में उसने आस्ट्रेलिया की चैम्पियन शिप हथिया लो । इसके बाद वह ओलम्पिक प्रतियोगिताओं में भी तैराकी का प्रतियोगी बना ।

तैराकी के क्षेत्र में इतनी ऊँची सफलता प्राप्त करने के बाद दुर्देव ने अपना दाव फिर चलाया और बचपन में ही उसके शरीर में घुस बैठा हृदय रोग फिर उभरा । लेकिन फ्रेंक ने भी जैसे अपने संकप और जीवन्तता से दुर्दैव को परास्त करने की कसम खा रखी थी । कुछ दिनों बाद वह फिर स्वस्थ हो गया । चिकित्सकों के लिए यह आर्श्चय का विषय था कि फ्रेंक का हृदय इतना रुग्ण है, फिर भी वह स्वस्थ कैसे है ? सामान्य स्थिति में ही उस रोग के रहने पर कोई व्यक्ति अपना सामान्य काम-काज नहीं कर पाता फिर फ्रेंक तो उस रोग के उभार की स्थिति में भी बचा हुआ था । इतना जरुर हुआ कि उसका तैरना छूट गया । तैरना भले ही छूट गया हो पर तैराकों से उसका लगाव नहीं छूटा । वह तैराकी का प्रशिक्षक बन गया और नौसिखियों को तैराकी सिखाने लगा ।

सन् 1622 की घटना है । तब फ्रेंक ब्यूरे पेयर की आयु 32 वर्ष की थी । तैरना छोड़े उन्हें कई वर्ष हो चुके थे । समुद्र में वे अपने शिष्यों को तैराकी का अभ्यास करा रहे थे, तभी तक तैराक पर शार्क मछली ने आक्रमण कर दिया । नौसिखिया तैराक घायल हो गया और लगाकि उसमें किनारे पर वापस पहुँचने की सामर्थ्य नहीं है । फ्रेंक ने तत्क्षण तैराकी से अपना सम्बन्ध वापस जोड़ लिया और आव-देखा न ताव, अपने सहायक के साथ तुरन्त समुद्र में कूद पड़े । जब वे घायल प्रशिक्षार्थी को समुद्र में से निकालकर किनारे पर ला रहे थे, तभी उन लोगों पर दूसरी शार्क मछली ने हमला कर दिया । बड़ी मुश्किल से फ्रेंक तथा उनके साथी सहायक मछली से बचते-बचाते किनारे आ सके ।

इस घटना का विवरण समाचार पत्रों में छपा ओर विवरण में ही फ्रेंक के रुग्ण अतीत तथा डाक्टरों की चेतावनी के बारे में भी प्रकाशित हुआ । रोगी और कमजोर होते हुए भी फ्रेंक ने समचुच अद्भुत वीरता का परिचय दिया । उन्हें और उनके साथियों को आस्टे्रलिया सरकार ने पदक तथा पुरस्कार दिया । उनकी बहादुरी और साहस की लोग लम्बे समय तक प्रशंसाएँ करते रहे ।

अन्य लोगों ने उस पुरस्कार राशि का क्या किया ? यह तो नहीं मालूम परन्तु फ्रेंक ने उससे अपना कारोबार आरम्भ किया । पुरस्कार में मिली रकम से उन्होंने टायरों की मरम्मत का कार्य आरम्भ किया । इस काम का आरम्भ छोटे रुप में ही किया गया था, परन्तु इसके विकास के लिए फ्रेंक दिन-रात लगे रहते थें । अपने काम में परिश्रम और मनोयोगपूर्वक लगे रहने तथा ग्राहकों को यथासम्भव सन्तुष्ट रखने की नीति का ही परिणाम था कि उनका करोबार चल निकला और अगले बारह वर्षां में काफी धन कमा लिया ।

अब जो पूँजी एकत्रित हुई थी, उस धन से फ्रेंक ने सन् 1634 में टायर बनाने का एक छोटा-सा कारखाना खोल दिया । परिश्रम, प्रामाणिकता और ईमानदारी की दूरदर्शीं नीति ने उनके कारखाने का भी विकास किया और वे धीरे-धीरे प्रगति की मंज्जिले तय करते गए । कुल बाईस वर्षां में उन्होंने इतनी प्रगति की कि जब उनका देहान्त हुआ तो उनके पास बीस करोड़ रुपये से भी अधिक की सम्पत्ति थी ।

फ्रेंक एक सफल और आदर्श व्यवसायी तो थे ही हृदया से वे दूसरों के प्रति सम्वेदनशीली भी थे । दूसरों के दुख दर्द को वे जानते थे । उन्हें मालूम था कि गरीबी किसे कहते है ? उन्हें इस बात का भी अनुभव था कि कोई व्यक्ति अपने प्रति किस प्रकार का व्यवहार किये जाने की अपेक्षा करता है ? व्यक्ति किसी भी स्तर का हो, गरीब या अमीर, छोटा या बड़ा, प्रत्येक व्यक्ति दूसरों से अपने प्रति सम्मानजनक व्यवहार की अपेक्षा रखता है । फ्रेंक इस बात को खूब अच्छी तरह जानते थे और उनके व्यक्तित्व में उदारता तथा व्यवहार कुशलता का अद्भुत समन्वय हो गया था ।

इन गुणों के आधार पर ही उन्होंने न केवल अपने सहयोगियों, कारखाने के कर्मचारियों का हृदय जीता बरन जनसाधारण के मन मस्तिष्क में भी अपना स्थान बनाया । उनके चरित्र की इन विशेषताओं का ही परिणाम था कि साधारण व्यक्ति से लेकर विशिष्ट व्यक्ति तक हर कोई उनका सम्मान करता था । न केवल सम्मान बल्कि वे अपने सर्म्पक में आने वाले व्यक्तियों का विश्वास भी अर्जित कर लेते थे । यही कारण था कि सन् 1640 में उनसे आस्टें्रलिया के दूसरे बड़े महानगर मेलबोर्न का महापौर बनने का आग्रह किया गया और उन्होंने जन-भावनाओं का सम्मान करते हुए इस आग्रह को स्वीकार भी किया । इस पद पर रहते हुए उन्होंने मेलबोर्न वासियों की इतनी कुशल सेवा की कि उन्हें सन् 1642 में ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया गया ।

सम्पन्नता जैसे-जैसे बढ़ती गई, वैसे-वैसे फ्रेंक ब्यूरे-पेयर का हृदय और अधिक उदार होता गया । उन्होंने कई शिक्षण संस्थाएँ ,खुलबाई’ अनेकों अस्पताल बनाये, कर्मचारियों के लिए राहत कोष की स्थापना की जिससे विपत्ति के मारे लोगों की कठिन समय में सहायता की जाती थी । पैंसठ वर्ष की आयु में, सन्् 1643 में उनका हृदय रोग फिर उभरा । इस बार तो सभी चिकित्या सुविधाएँ उपलब्ध थी, परन्तु फ्रेंक, जैसे अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त कर चुके थे, दुर्दैव को पराजित करने का । इस काम को सफलतापूर्वक पूरा कर चुकने के बाद उन्होंने मृत्यु के सामने समर्पण कर दिया । उनके उपचार का प्रबन्ध किया जाने लगा तो वे बोले, मुभे जीवन से तृप्ति हो गई है । अब कोई इच्छा नहीं है । मेरे उपचार में लगने वाला पैसा उनके काम में लगा देना जिन्हें उपचार की आवश्यकता है ।

फिर भी उपचार तो चला ही किन्तु फ्रेंक ने शीघ्र ही नश्वर काया छोड़ दी । उन्होंने 20 करोड़ की सम्पति का एक बड़ा भाग जन-कल्याण के लिए दान में दे दिया था और शेष को अपने श्रमिक परिजनों के लिए छोड़ दिया । ऐसे मनस्वी, पुरुषार्थी और उदार स्वामी के लिए मजदूरों का बिलख उठना स्वाभाविक है।


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