जहाँ चाह, वहाँ राह

December 1980

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पिता नौकरी करते थे । उन्हें तीन रुपये मासिक वेतन मिलता था । घर में पत्नी बच्चों के अलावा माता पिता भी थे । इतने बड़े परिवार का खर्च तीन रुपये मासिक में मुश्किल में चलता था । ऐसी स्थिति में पुत्र को पढ़ा-लिखकर कर योग्य बनाने के साधन कहाँ से जुटते ? मन में बड़ी कसक उठती थी कि किसी भी प्रकार बच्चे को पढ़ा-लिखाकर सुयोग्य बनाया जाये, परन्तु प्रश्न वही साधनों का था । बालक ईश्वरचन्द्र भी गाँव के अन्य बच्चों को पढ़ने के लिए दूसरे गाँव के स्कूल में जाते देखकर मचल उठता, ‘पिताजी ! मुभे भी स्कूल में भरती करवा दो न ! मैं भी पढ़ूगाँ ।

पिता की छाती भर आती थी, पुत्र की उमंग और अपनी विवशता देखकर । वह समझाते, ‘बेटा तुम्हारे भाग्य मैं ही विधा नहीं है । अगर व़िद्या होती हो तुम मुझ जैसे निर्धन बाप के घर में क्यों जन्म लेते ।

पिता की विवशता देखकर ईश्वरचन्द्र मन मसोस कर रह जाता । इससे अधिक बह कर ही क्या सकता था ? पर पढ़ने की चाह कम नहीं हुई । जहाँ चाह वहाँ राह वाली उक्ति के अनुसार ईश्वर चन्द्र ने राह निकाल ही ली । उसने गाँव के उन लड़कों को मित्र बनाया जो स्कूला जाते थें । उनसे दोस्ती गाँठ कर उनकी पुस्तकों के सहारे अक्षर ज्ञान कर लिया और एक दिन कोयले से जमीन पर लिखकर अपने पिता को दिखाया । ईश्वरचन्द्र की विद्या के प्रति यह लगन देखकर पिता का हृदय अधीर हो उठा और वे अपनी गरीबी को कोसने लगे ।

एक दिन ईश्वरचन्द्र अपने पिता के साथ किसी काम से कलकत्ता की ओर जा रहे थे । रास्ते में एक जगह सुस्ताने के बाद पिता ने कहा, ‘न जाने कितनी दूर चले आए है ?” ईश्वरचन्द्र ने कहा कि नौ मील आ गये है ।

‘तुमने कैसे जाना ?” पिता ने पूछा !

‘रास्ते में हमने सबसे बाद में जो मील का पत्थर देखा था, उसे देखकर । उस पर नौ का अंक लिखा था ।

पिता यह जानकार हर्ष विभोर हो उठे कि उनके पुत्र ने अग्रेंजी के अंकों का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया है । मन में बड़ी उथल-पुथल हुई और काम में निबट कर घर लौटे तो अपनी पत्नी से रास्ते की सारी घटना कह सुनाई । पत्नी ने कहा, “लड़का है तो बुद्धिशाली पर दुर्भाग्य कि हमारे घर में पैदा हुआ है ।”

‘इस दुर्भाग्य का कलंक अब और न रहने दूँगा । पिता ने कहा-’भले ही हम लोग एक समय भोजन करें पर ईश्वर को स्कूल अवश्य भेजेगें ।’ पत्नी ने भी प्रसन्नता पूर्वक सहमति दे दी और ईश्वरचन्द्र को गाँव की पाठशाला में भरती करा दिया । वह बड़ी मेहनत से पढ़ता था । गाँव के स्कूल की सभी परीक्षाएँ ईश्वर ने प्रथम श्रेणी में पास की । गाँव की पढ़ाई पूरी हो गई तो आगं पढ़ने का सवाल था । शहर में पढ़ना तो उसके लिए सम्भव नहीं था । आर्थिक विवशता आड़े आती थी । ईश्वरचन्द्र ने स्वयं अपनी राह बनाई और आगे पढ़ने के लिए माता-पिता से केवल आशीर्वाद भर माँगा । उसने कहा-’आप मुभे किसी विद्यालय में भरती भर करा दें । फिर मैं आपसे किसी प्रकार का खर्च नहीं मागूगाँ ।

तदनुसार पिता ने ईश्वरचन्द्र को कलकत्ता के एक संस्कृत विद्यालय में भरती करवा दिया । व़िद्यालय में ईश्वर ने सेवा, लगन ओर परिश्रम, प्रतिभा के बल पर शिक्षकों को प्रसन्न कर लिया । शिक्षक इतने प्रभावित हुए कि उनकी फीस माफ हो गई । पुस्तकों के लिए वह मित्रों के साझीदार हो गए और पढ़ाई से बचे समय में मजदूरी कर गुजारे का प्रबन्ध करने लगे । इस अभाव ग्रस्तता में ईश्वरचन्द्र ने इतना परिश्रम किया कि उन्नीस वर्ष आयु में पहुँचतेःपहुँचते उन्होंने व्याकरण, साहित्य स्मृति तथा वेदशास्त्रों में निपुणता प्राप्त कर ली । यही युवक आगे चलकर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के नाम से शिक्षा व सामाजिक क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण सेवाओं के लिए प्रसिद्ध हुआ ।


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