अपनों से अपनी बात

December 1980

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ह्वश द्यक्वह्लह्व स्रद्ध द्बभ्स्नद्मद्ग ड्डश्चश"द्मर्द्धं; ;द्मह्यह्लह्वद्म

महत्वपूर्ण काम करने के लिए उसके अपयुक्त ढाँचा खड़ा करना पड़ता है। युद्ध छेड़ने से पहले समर्थ सैनिक, अपयुक्त शस्त्र एवं आवश्यक साधन जुटाने पड़ते हैं। खेती तब होती है जब जमीन, हल, बैल, खाद, सिंचाई, आदि की व्यवस्था बन सके। उद्योग चलाने होंतो कारखाना, मशीने, पूँजी, कारीगर, प्रबन्धक आदि का प्रबन्ध करना होता है। मनुष्य वयस्क होने पर ही पुरुषार्थ एवं उपार्जन कर सकने योग्य बनता है। इस स्थिति तक पहुँचाने में अभिभावकों को बालक का भरीण-पोषण एवं शिक्षा, स्वाबलम्बन

आदि का कष्ट साध्य ताना-बाना बुनना पड़ता है। सरकार का ढाँचा कितना भारी हैं। उस विशालकाय तन्त्र के खड़े होनेप र ही शासन व्यवस्था के अनेकानेक कार्य[म बनते हैं। धर्मतन्त्र के सम्बन्ध में ही चश्मों में फेर बदल करते ही वस्तुएँ दूसरे रंग की दीखने लगती हैं। चिन्तन की दिशा धारा में परिवर्तन होते ही गतिविधियों में उलट-पुलट होती हैं और तदनुरुप् परिस्थितियों में जमीन, आसमान जैसा अन्तर दृष्टिगोचर होने लगता है। युग परिवर्तन का आधारभूत सिद्धान्त एक ही है कि मनुष्य के चिन्तन को संकिर्ण स्वार्थपरता से विरत करके लोकहित के उदार उद्देश्यों के साथ जोड़ा जाय। ऐसा बन पड़े तो विग्रह, विलास, और बडप्पन में संलग्न क्रियाशीलता को बर्बादीसे बचने और नव सृजन में जुट पड़ने का आवसर मिलेगा। जो कुशलता और सक्रियता, विनाश और विग्रह की दुष्प्रवृत्तियों कोइतनी समर्थ बना सकती है वे यदि सत्प्रवृत्ति सर्म्वधन में लगेगी तो कोई कोई कारण नहीं वर्तमान नरक को भविष्य के र्स्वग

यही बात है। अर्थतंत्र समाज व्यवस्था, शिक्षा चिकित्सा, संचार, परिवहन आदि सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों के लिए यही एक मात्र मार्ग है कि पहले समर्थ ढाँचा खड़ा किया जाय। इसके बाद उपयुक्त प्रतिफल की आशा की जाय।

प्रज्ञा अभियान को अपने युग को सर्वोपरि महत्व विस्तार एवं प्रभाव वाली प्रक्रिया कह सकते है। उसके माध्यम से समस्त मानव जाति के चिन्तल एवं रुझान की दिशा धारा बदलने की बात सोची गई है। इसी प्रकार विग्रह में संलग्न शक्तियों को सृजन में नियोजित करने से धरती पर स्वर्गीय परिस्थितियाँ उत्पन्न करने की तैयारी की गई है।

रेडियों की सुई घुमाते ही दूसरे स्टेशन सुनाई पड़ने लगते हैं, सड़क बदलते ही दूसरे नजारे दीखते हैं। रंगीन में न बदला जा सके।

प्रज्ञा अभियान का आरम्भिक कार्य धर्मतन्त्र का पुनर्जजिवन है। जिसके सहारे जन-मानस के परिष्कार एवं सत्प्रवृति सर्म्बधन का दुहरा प्रयोजन एक साथ पूरा हो सके। प्रज्ञा संस्थनों को प्रज्ञा अभियान का दृश्य माना, ढाँचा समझा जा सकता ह। जिसके खड़े होने पर यह आशा की जा सकेगी कि लोकमानस में उत्कृष्टता की फसल उगाई और मनुष्यों के रहने योग्य नई दुनिया बनाई जा सकेंगी।

प्रज्ञापीठों का समग्र ढाँचा चार आधारों पर खड़ा किया जा रहा है-(1) छोटी-बड़ी इमारतें (2) स्थयीं कार्यकर्ताओं की नियुिक्त (3) ज्ञानघटों के माध्यम से अर्थ व्यवस्था (4) घर-घर अलख जगाने वाले युग साहित्य एवं उद्बोधन उभर उत्पन्न करने वाले जन्मदिवसोत्सवों के माध्यम से जन-सर्म्पक। यह चारों प्रयोजन बन पड़ने पर चार दीवार वाला वह भवन बनकर तैयार होता हैं जिसकी छाया में सुविधापूर्वक निर्वाह किया जा सके। चार पाये की चारपाई होती है। उपरोक्त चार आधारों के सहारें ही प्रज्ञापीठें समग्र मानी जायेंगी और अपनी समर्थंता का परिचय दे सकेंगी।

चरणचीठे प्रज्ञापीठे इन दिनों तेजी से बन रही हैं। भारत के सात लाख गाँवों में हर सात गाँव पीछे प्रज्ञा संस्थान बनाने की-एक लाख निर्माणों की योजना है। हर संस्थान में न्यूनतम दो कार्यकर्त्ता काम करें तो दो लाख स्थायी लोकसेवी भावनात्मक नव सृजन में संलग्न होंगे और अपने प्रभाव एवं प्रयास से अन्य अंसख्यों को प्रशिक्षित, उत्साहित, आन्दोलित करेंगे।

लोकमानस को उलटने का कार्य युग साहित्य करेगा और उस युगान्तरीय चेतना को सुनाने, समझाने के लिए जन्मदिवसोत्सवों की छोटी विचार गोष्टियाँ घर-घर में निवोजित होती रहेंगी। प्रज्ञा संस्थानों में दो-दो घन्टे की तीन कक्षाएँ बालकों, प्रौढ़ों एवं महिलाओं को शिक्षित बनाने के साथ-साथ सुसंस्कृत बनाने का उत्तरदायित्व भी वहन करेंगी। हर प्रज्ञा संस्थान में स्िनीय पुस्तकालय रहेगा और सात गाँव के कार्य क्षेत्र में चल पुस्तकालय चलेगा। स्वास्थ्य सर्म्वधन के लिए व्यायाम, उपचार एवं प्रशिक्षण होगा। रात्रि की कक्षाओं में ऐतिहासिक उद्धरणों के माध्यम से व्यक्ति परिवार एवं समाज के नव निर्माण की बौद्धिक, नैतिक एवचं सामाजिक क्रान्ति की पृष्ठीमि खड़ी होती रहेगी।

संक्षेप में यही वह ढाँचा है जिसके आधार पर युग परिवर्तन की विशालकाय योजना को हाथ में लेने और क्रियान्वित करने का साहस किया गया है। प्रारम्भ भारत से-हिन्दू धर्मानुयायियों-किया जा रहा है। क्योंकि मिशन के वर्तमान सूत्र संचालकों का नीजि सर्म्पक, अध्ययन, अनुभव एवं प्रभाव उसी स्तर का हैं। अगले दिनों मिशन का व्यापक विस्तार होगा और सभी देश, सभी धर्म वर्ग उस प्रकाश की छत्र छाया में अपने प्रयासों कों सम्मिलित करते हुए उज्ज्वल भविष्य की संरचना में कदम से कदम मिलाकर काम करते हुए दृष्टिगोचर होंगे। आरम्भ छोटा होने पर भी उसकी दिशा सही रहने पर उसके विस्तार की पूरी-पूरी सम्भावना रहती है। बीज को वृक्ष और चिनगारी को ज्वाल माल बनतेजिनने देखा है वे जानते हैं कि एक दिन का शिलान्यास किसी दिन विशाल भवन बनकर अपनी कीर्ति पताका फहराता देखा जाता हैं।

समस्याओं का आत्यन्तिक समाधान ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के सनातन प्रतिपादन को व्यवहार में उतारने से ही सम्भव होगा। विज्ञान ने दनिया को बहुत छोटा कर दिया है। परिस्थितियों ने विवश कर दिया हैं कि सहजीवन या सह मरण में से एक को अपनाने का निर्णय ठीक इन्हीं दिनों करना होगा। आशा यही है कि ‘सहजीवन’ को मानवी बुद्धिमत्ता स्वीकार कर लेगी और उसके एकमात्र उपाय ‘विश्व परिवार’ बनाने की नीति को मान्यता देगी। विश्व परिवार के चार आधार होंगे- (1) विश्वराष्ट्र (2)विश्वभषा (3)विश्व संस्कृति (4) विशव आचरण। इन चारों के लिए आवश्यक पृष्ठीमि बनाने का काम ‘महाप्रज्ञा’ का है। विचार क्रान्ति के रुप् में इन दिनों उसी को जागृत किया जा रहा है। प्रज्ञा अभियान का शुभारम्भ और चरम लक्ष्यस को इसी दृष्ट से देखा समझा जाना चाहिए।

इन बीस वर्षो में प्रज्ञा परिजनों को स्वयं आगे बढ़ कर उस मध्यवर्ती योजना को क्रियान्वित करना होगा जिससे अवाँछनीयता काप उन्हमूलन और सत्प्रवृति सर्म्वधन का दुहरा प्रयोजन एक साथ पूरा होता रहे।

युग सन्धि की बीस वर्षीय अवधि को सृजन शिल्पियों में पाँच-पाँच वर्ष के चार पंचवर्षीय योजनाओं में बाँटा है। सामर्थ्य अभिवर्धन एवं परिस्थितियों के अनुकूलन को देखते हुए-एक के बाद दूसरी योजना का स्वरुप एवं एवं कलेवर बढता चला जायगा। उस अवधि में दृष्टिवृत्तियों के उन्मूलन और सत्प्रवृत्तियों के सर्म्वधन का दुहरा कार्यक्रम साथ-साथ चलता रहेगा।

प्रज्ञा अभियान द्वारा धर्मतन्त्र को पुनर्जीवित करने के लिए प्रज्ञा संस्थानों का सजी ढाँचा खड़ा करने का आरम्भिक प्रयोजन योजना के प्रथम वर्ष में उस सीमा तक पूरा हो चलेगा कि उसके कन्धों पर कहने लायक बोझ डाला जा सके।

प्रथम पंचवर्षीय योजना में पाँच सृजनात्मक और पाँच सुधारात्मक कार्यक्रम हाथ में लिए गये हैं। सृजनात्मक कार्यक्रमों में-(1) शिक्षा विस्तार (2) स्वास्थ्य सर्म्वधन (3) स्वच्छता, श्रमदान (4) गृह उद्योग (5) हरितमा विस्तार यह पाँच प्रमुख हैं। सुधारात्मक कार्य-क्रमों में (1) नशा निवारण (2) शदियों में होने वाले अपव्यय का प्रतिरोध (3) हरामखोरी, कामचारी का विरष्कार(4) फैशन फिजूलखर्ची की रोकथाम(5) अवाँछनीयताओं का उन्मूलन। इन दसों का प्रमुख माना गया है। इसका अर्थ यह नहीं कि ग्यारवहवाँ कार्य हाथ में लेने पर कोई रोक हैं। स्िनीय आवश्यकता और परिस्थिति के अनुसार वे सभी काम हाथ में लिये जा सकते हैं जो अनौचित्य को हटाने और शलीनता की सत्प्रवृत्तियों को अग्रगामी बनाने में सहायक हो सकें। उपरोक्त दस कार्य[मों में से किन्हें, कब, कहाँ, किस प्रकार, किस क्रम से क्रियान्वित किया जायगा यह रणनीति स्थानिय परिस्थितियों एवं आवश्यकताओं को देख कर निर्धरित और परिवर्तित की जाति रहेगी।

देखने में उपरोक्त दस कार्यक्रम जाने-पहचाने से लगते हैं। उन पर बहुहत कुछ कहा-सुना और लिखा पढ़ा जाता रहा है किन्तु प्रगति पथ एक ही चट्टान से रुका रहा हैं कि चिन्तन को क्रिया में परिणित कर सकने वाली ऊर्जा की आवश्यकता पड़ेगी। कितना श्रम, पुरुषार्थ, मनोबल एवं साधनों का ईधन झोकने पर वह भट्टी गरम होगी जिसमें गलाने और ढालने का दुहरा प्रयोजन साथ-साथ पूरा हो सके, यह किसी ने विचारा ही नहीं। प्रस्ताव और परामर्शो में घूम रहने से यह बातें जानी-पहचानी सी लगती है, पर यथार्थता यह है कि इस दिशा में चिन्ह पूजा के अतिरिक्त कोई ठोस काम हुआ ही नहीं। ठोस काम किसे कहतें हैं? उसे जानना हो तो बुद्ध के धर्मचक्र, प्रवर्तन, गाँधी के सत्याग्रह आन्दोलन, ईसाई मिशन, साम्यवादी विचार विस्तार जैसे सफल आन्दोलनों के ढाँचे और प्रयास पुरुषार्थ का गम्भीर अध्ययन करके यह पता लगना होगा कि आन्दोलन क्यों सफल होते और क्यों असफल रहतें हैं।

उपरोक्त दसों आन्दोलनों के पक्ष में लोकमत तैयार करने और उन्हें सफल बनाने के लिए समर्थन ही नहीं सहयोग भी प्राप्त करने के प्राणवान प्रायास जुझारु प्रज्ञा पुत्रों के नेतृत्व में चलेंगे तों कोई कारण नहीं कि जन-मानस को नव सृजन के-अभीष्ट परिवर्तन का पक्षधर न बनाया जा सके। समय की माँग ठीक तरह समझी और समझाई जा सके उसे पूरी करने के लिए प्रतिभाशाली लोगों द्वारा स्वंय अग्रगामी आदर्श उपस्थिति करते हुए अनुगमन का आहृन किया जाय तो बात अनसुनी कर दिये जाने का अवसर आ ही नहीं सकेगा।

प्रस्तुत दस सूत्री कार्यक्रम इतने महत्वपूर्ण के हैं कि उन्हें ठीक तरह समझा समझाया जा सके तो कार्य रुप में परिणित करने वाला प्रवाह चल पड़े तो इस पर विश्वास किया जाना चाहिए कि असंख्य जीवन्तों का समर्थन सहयोग उसे अनायास ही मिलने लगेगा।

(1) शिक्षा के अभाव में मनुष्य एक प्रकार से अन्धा होता है, उसे समीपवर्ती लोगों से मिलने वाली जानकारी के आतिरिक्त इतिहास के-अन्यत्र घटित होने वाले घटना-क्रमों के-सामयिक प्रवाहों के सम्बन्ध मन जानकारी होती है न ढलने, बदलने की आवश्यकता अनुभव होती है। इस पिछड़ेपन को अपने समय में गरीबी से भी अधिक कष्ट कर समझा जाना चाहिए। समस्या का हल अब तक सरकार के मत्थे थोपा जाता रहा है जब कि उसके लिये इतना बड़ा भार पूरी तरह उठा सकना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता। हर साल जितने नयें स्कूल खुलते हैं उससे अधिक बच्चे पैदा हो जाते हैं फलतः निरक्षरता का अनुपात जहाँ का तहाँ बना रहता हैं। अपने देश में इन दिनों प्रायः 75 प्रतिशत निरक्षरता है उसे दूर करने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र में ही उपाय किये जाने चाहिए। इसके लिए प्रौठ शिक्षा के-दो-दो घन्टे चलने वाले पाठ्य-क्रमों के-दौर चलने चाहिए। विद्या ऋण चुकाने के लिए शिक्षितों से अध्यापन के लिए समयदान माँगा जाय और उस आधार पर गाँव-गाँव, गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में ऐसी पाठशलाएँ चलाई जाँय जिनमें अपनी-अपनी सुविधा के समय पर (1) बालक, महिलाएँ और प्रौठ़ दो-दो घन्टे की कक्षाओं में पढ़ने के लिए पहुँचा करें। शिक्षितों से विद्या ऋण चुकाने का अनुरोध करने की तरह ही अशिक्षितों में शिक्षा के लिए उत्साह उत्पन्न करना और उन्हें पाठशाला के साथ जोड़ देना, देखने में छोटा किन्तु करने में कठिन काम है। जो भी करना हो होगा ही। इसी योजना के अर्न्तगत देश को शिक्षित बनाया जा सकेगा। यहाँ शिक्षा के साथ-साथ उस जीवन दर्शन को भी हृदयंगम करने की बात अविच्छिन्न रुप् से जुड़ी रहनी चाहिए जिसके आधार पर व्यक्ति को नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का ज्ञान एवं उसके परिपालन का साहस उत्पन्न हो सके।

(2) स्वास्थ्य सर्म्वधन में आहार, बिहार का नये सिरे निर्धारण करना होगा और खेलकूद से लेकर व्यायाम तक की परम्परा को जन-जन के स्वभाव में उतरना होगा। गरीबी के रहते हुए भी रास्ते शाक-भाजियों के सहारे आहार में पोषण को सम्मिलित रखा जा सकता है। पकाने की विधी थोड़ी-सी बदली जा सके तो आहार के जीवन तत्वों को आधे से अधिक मात्रा में बचाया जा सकता है। खाने के ढंग में थोड़े से परिवर्तन से आये दिन उत्पन्न होने वाली पेट की खराबी से बचा जा सकता है और उस आधार पर दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु से बचना सम्भव हो सकता है। घरों में शाक-भाजी उगाने भर से हर परिवार के भोजन में उपयुक्त पोषण सम्मिलित रह सकता है। ब्रह्मचर्य के लिए निष्ठा उत्पन्न की जा सके तो स्वास्थ्य की बर्वादी भी रुके। यौन रोगों से भी बचा जाय और अन्धाधुन्ध प्रजनन से होने वाले व्यापक विनाश पर भी अंकुश लगे। व्यायायाम का स्वास्थ्य रक्षा के सर्न्दभ में अपना महत्व है। खेल कूदों को उत्कृष्ट स्तर का मनोरजन कह सकते है। आसन,प्रणायाम,ड्रिल कवायर, खेलकूदों के लिए व्यवस्था बनाने तथा प्रचलन आरम्भ करने की आवश्यकता है। इस प्रशिक्षण में प्रजनन जैसे अश्लील एवं रहस्यमय विषय को भी इस सीमा तक सर्वसाधारण को समझाना होगा कि शलीनता की मर्यादा भी बनी रहे और इस सर्न्दभ में छाये हुए व्यापक अज्ञान से होने वाली भयानक हासिनयों से भी बच सकना सम्भव हो सके। शिशु पालन जैसे अतिरक्त विषय को भी स्वास्थ्य सर्म्वधन में सम्मिलित रखा जायगा। शरीरिक ही नहीं मानसिक स्वास्थ्य को भी समग्र स्वास्थ्य का अविच्छिन्न अंग मानकर चलना है स्वास्थ्य सवर्धन की आवश्यकता पूर्ति लोकशिक्षण स्तर पर ही पूरी हो सकती है। वह कार्य डाक्टर, अस्पताल या नई औषधियों की अभिवृद्धि भर से पूरा नहीं हो सकता।

(3) स्वच्छता, श्रमदान की इसलिए आवश्यकता पड़ी कि देश की तीन चौथाई जनता छोटे देहातों में रहती है और वहाँ मनुष्यों के मल-मूत्र तथा घर, कुँओं की कीचड को हटाने का कहीं कोई प्रबन्ध नहीं हैं। यह गन्दगी, दुर्गन्ध और बीमारी बढ़ाने में निरन्तर लगी रहती है। इसे हटाने के लिए सफाई कर्मचारी रखना जहाँ सम्भव नहीं वहाँ श्रमदान के सहारे ही उसे हटाया जा सकता है। लकड़ी से बने टाट से ढक पखाने खेतों में रखे जाँए। लोग उन्हीं में शैच जाँय और ऊपर से मिट्टी डालें। दूसरा विकल्प यह है कि एक हाथ में पानी का लोटा दूसरे में खुरपी लेकर जाने की प्रथा आरम्भ की जाय। जमीन में छोटा गड्ढा खोद कर टट्टी जाया जाय और उठते समय उसे मिट्टी से ढक दिया जाए। इन प्रचलनों से एक ओर गन्दगी हटेगी, दूसरी ओर बहुमूल्य खाद से खेती की पैदावार बढ़ेगी। जापान जैसे देशों में मनुष्य के मल को सुनहरी खाद कहा जाता है और उत्पादन वृद्धि में उसका पूरा-पूरा लाभ लिया जाता है। जहाँ सैप्टिक पखने बन सकें, वही उनका प्रबन्ध हो, जहाँ न बन सकें वहाँ खेतों में मल-मूत्र गाढ़ने का उपक्रम चले।

घरों के पानी को पक्की नाँद में इकट्ठा किया जाय। कुँओं के पानी को समीप में केले आदि के पेड़ों में खपाया जाय। नित्य निकलने वाले कूड़े-कचरे तथा घरों के पानी को जगह-जगह खाद के गड्ढे बनाकर उनमें दबाया जाय। रास्ते साफ रखे जाँय। कुँओं की कीचड़ निकालते रहने की व्यवस्था बने। जहाँ-तहाँ होते रहने वाले गड्ढे भरे जाते रहें। यह सब काम सामूहिक सफाई से सम्बन्धित है, जिनके लिए हर गाँव में श्रमदानी स्वयं सेंवियों की मण्डलियाँ खड़ी की जानी चाहिए।

व्यक्तिगत स्व्च्छता में, स्नान, मंजन, नाखून, कपडे़, जूते, घर, वर्तन, सामान, खद्य-पदार्थ, आदि की सफाई की आदत हर व्यक्ति में डाली जानी चाहिए। आलस्य और आदत के कारण अपने देश में हर जगह गन्दगी सुधारने के लिए प्रायः वैसा ही नया शुभारम्भ करना होगा जैसा कि छोटे बालकों को इस सम्बन्ध में सिखाया सधाया जाता है। स्वच्छता स्भ्यता का अंग है। सुव्यवस्था एवं सुसज्जता से मानवी गरिमा का कला बोध प्रकट होता है। इस क्षेत्र में हम कितने पिछडे़ है इसे किसी सच्चे अर्थो में ‘सभ्य’ व्यक्ति की आँखें से अपनी दुर्दशा देखी जा सकती है। कपड़े धोने से लेकर घरों को साफ-सुथरा और वस्तुओं को व्यवस्थित रखने तक की जताने की नहीं, व्यवहार में उतारने की आवश्यकता है ताकि उसके बदले दृष्टिकोण से जीवन क्रम के हर क्षेत्र को सुन्दर सुव्रुवस्थित बनाने का अवसर मिल सके।

(4) गृह उद्योग सहकार। अपने देश में बेकारी का-उससे जुड़ी गरीबी का प्रश्न दिन-दिन विकट होता जाता हैं। उसका समाधान अन्न क्षेत्र खोजने से नहीं उद्योगों को पनपानें और हर व्यक्ति को काम देने की व्यापक जन योजना बनाने से ही लेगा। खेतों की जोतें छोटी होती जाती हैं। साधनों के अभाव में सिचाई जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाति फलतः किसानों का तथा कृषि मंजूरी का प्रायः आधा समय बेकारी में बीतता है। फलतः गरीबी बढ़ती है। शिक्षित लड़के नौकरी ढूँढते है, पर उतनी आवश्यकता ही नहीं जिनमें हर साल लाखों की संख्या में निकलने वाले शिक्षितों को खपाया जा सके। बेकारी से मात्र गरीबी ही नहीं बढ़ती, खुराफातें भी पनापती है।

ठसका समाधान कुटीर उद्योगों को पनपाने से ही सम्भव है। अब यह कार्य सहकारिता के अर्न्तगत ही हो सकता है। सहकारी संगठन बनें, कच्चा माल दे, उद्योग कौशल सिखायें, बना माल खरीद और उसे उपयुक्त स्िन पर सही मूल्य में खपाने का प्रबन्ध करें गाँधी जी के खा दी आन्दोलन की तरह हाथ श्रम से बनी वस्तुओं का उपयोग करने का एक नया आन्दोलन चलाया जाय ताकि कुटीर उद्योगों के उत्पादन की खपत हो। बड़े मिलों को कुटीर उद्योगों की प्रति द्वन्दता करने से रोका जाय। सहकारी संगठनों के अर्न्तगत देश में पशु-पालन, मधु उत्पादन, वरुत्र उद्योग, मिट्टी के बर्तन खिलौने, खपरैल बनाने कितने ही नये उद्योग हर गाँव में पनपाये जा सकते है। उससे खाली समय में होने वाली खुराफातें रुकेंगी-गरीबी घटेगी और जन-जन में रचनात्मक कौशल की-स्वातलम्बन की भावना जागेगी।

म्हिलाओं की श्रम शक्ति प्रायः निरर्थक ही चली जाती है उसे कुटीर उद्योगों में लगाया जाय तो वे घर की अर्थ व्यवस्थ में सहायक रह सकती है। और किसी विपत्ति के समय अपना बालकों का पेट स्वावलम्बन पूर्वक भर सकती है। हर दृष्टि से कुटीर उद्योगों का प्रचलन घर-घर में पहुँचाये जाने की आवश्यकता समझी और उसकी पूर्ति की जानी चाहिए।

(5) हरितमा विस्तार की उपेक्षा होती है और लोग यह नहीं समझ पाते कि मनुष्य और वनस्पतियों का जीवन क्रम एक-दूसरे के साथ जुड़ा हुआ है। वृक्ष वनस्पति घटने या मिटने से मनुष्य जीवन तो असम्भव हो ही जायगा। अन्य प्राणियों का अस्तित्व भी मिटने लगेगा। हर जीवधारी का आहार वनस्पति है। शिकारी जीव भी शाकाहारी प्रणियों को ही मारते खातें हैं। जलचरों को भी पानी में पाई जाने वाली दृश्य या अदृश्य हरितमा पर ही गुजर करनी पड़ती हैं।

आबादी बढ़ रही है और वनस्पतियों का स्िन घट रहा है, साथ ही उस ओर उपेक्षा भी बरती जा रही है। परिणामतः वायु प्रदूषण का परिशोधन करने वाले महत्वपूर्ण तन्त्र के नष्ट होने सेस घुटने एवं विषाक्तता का नया संकट बढ़ रहा है, पेड़ कटने से भुमि का उपाजाऊ भाग वर्षा में बह कर नदी समुद्र में चला जाता है। वर्षा कम होती हैं। पत्तों के जमीन पर सड़ने से गोबर जैसे खाद की कमी पड़ती है। पक्षियों का आश्रय टूटने से वे फसल के हानिकारक कीडे-मकोडे़ को समेट नहीं पाते। इमारती लकड़ी दुर्लभ होती जाती है, फलतः बढ़ती हुई आबादी के लिए नये आवास प्रबन्ध मँहगे होते जा रहे हैं। जलाऊ लकड़ी ही वर्तमान स्थिति में चूल्हा जलाने का प्रधान उपाय है। पेड़ घटने से अगले ही दिनों जलाऊ लकड़ी का संकट उत्यन्त उग्र होकर सामने आने वाला है। हरितमा के अभाव में मस्तिष्कीय शान्ति को आघात पहुँचता है और उद्विग्नता की मनःस्थिति पनपती है।

इन तथ्यों को देखते हुए देश में नये सिरे से वृक्षारोपण एवं वनस्पति सर्म्बधन का आन्दोलन चलना चाहिए। घरो के आसपास पेड़ लगाये जाँय। खाली जगह में इमारती या जलाऊ लकड़ी के पेड़ लगे। किसान भी थोड़ी जमीन में एक-एक छोटी बगीची लगा कर घर परिवार के लिए फल उगायें। शाक वाटिका के लिए नये सिरे से उत्साह उत्पन्न करने की आवश्यकता हैं। पक्के आँगन में भी गमले, टोकरीन पेटियाँ रखकर शाक-भाजी तथा फुल-पौधे उगाये जा सकतें है। इसके लिए छतें भी काम में आ सकती है। छप्परों पर बेलें छाइदै जा सकती हैं और उनसे फूल तथा शाक मिल सकते है। तुलसी का पौधा घरेलू औषधी की तरह हर आँगन में थाबला बना कर रखा जाना चाहिए। उस स्िपना में वनस्पति प्रतिमा के रुप में भगवान का देव मन्दिर बनाने एवं अर्घदान, दीपक जैसी सर आराधना का अवसर भी मिलता है। इस प्रयोजन के लिए बीज भण्डार तथा पौध नर्शरी जैसी सुविधए भी जगह-जगह उपलब्ध रहना चाहिए और बोने उगाने सम्बन्धी सस्ता साहित्य हर जगह मिलना चाहिए। घरेलू शाक बाटिकाएँ आहार में जीवन तत्वों के समावेश की आवश्यकता हर जगह पूरी करती रह सकती है।

यह सृजनात्मक सत्प्रवृत्तियों की चर्चा हुई। इस आधार पर ज्ञान, धन, स्वास्थ्य, कौशल, उत्साह जैसी कितनी ही साधनपरक एवं गुणपरक सम्पदाओं की आशाजनक वृद्धि हो सकती है। उसका प्रतिफल सम्पन्नता समर्थता और प्रगातिशीलता के रुप् में सर्वत्र दृष्टिगोचर हो सकता है। मोटे रुप् में किसी लाटरी खूटने या अनुदान वरदान मिलने, आकस्मिक लाभों को ही लाभ माना जाता है, वास्तविकता यह है कि यदि सत्प्रवृत्तियाँ बढ़ चले तो सर्वतोमुखी प्रगति का ताना-बाना सुविस्तृत एवं स्थिर प्रगति समृद्धि बन कर सामने आ सकता है। बूँद-बूँद से समुद्र बनना और धूलि कणों से पर्वत उठता है। यह तथ्य सामझा जा सके तो यह अनुभव करने में किसी को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि सृजन की दिशा में बढ़तें हुए प्रज्ञा अभियान के यह कदम अन्ततः सर्वतीमुखी प्रगति की दृष्टि से कितने सुखद सत्परिणाम प्रस्तुत कर सकते हैं।

सुधारात्मक कार्यक्रमों में से जिन पाँच को सर्वप्रथम हाथ में लिया गया है उनमें (1) नशा निवारण (2) विवाहोन्माद का प्रतिरोध (3) हरामखोरी का तिरष्कार (4) फैशन फिजूलखर्ची की रोकथाम (5) अवाँछनीयताओं का उन्मूलन प्रधान है। इनकी हानियों से सभी परिचित है। इनमें लगने वाले मनुष्य के श्रम, समय, धन का अपव्यय होने का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जा सके तो प्रतित होगा कि आधी से अधिक क्षमता और सम्पदा इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों में नष्ट हो जाती है। इस बर्वादी को रोका और उस बचत को प्रगति प्रयोजनों में लगाया जा सके तो आज का पिछडापन दूर होने और प्रगति के उच्चशिखर तक पहुँचने में तनिक भी बिलम्ब न लगें।

(2) सभी जानते हैं कि नशेबाजी की दुष्प्रवृत्ति से व्यक्ति औससर समाज को कितनी असीम हानि उठानी पड़ती है। स्वास्थ्य बिगड़ता है। बुद्धिबल घटता है। क्रिया शक्ति क्षीण होती है। दरिद्रता बढ़ती है। निन्दा होती है। परिवार में विक्षोंभ पनपता है। बच्चे कुसस्कारी परम्पराएँ अपनाते है। ऐसी अनेकों हानियों से भरी-पूरी नशेबाजी को मिटाया ही जाना चाहिए। इन दिनों नशें में तमाखू और शराब अग्रिणी है। इनके निमित्त, लगने वाली भूमि, पूँजी, श्रम शक्ति का मूल्याँकन किया जाय तो प्रतीभा होगा कि इतने धन में पूरे देश को सुशिक्षित अनाया जा सकता और मनुष्य का आयुष्य आरोग्य एवं कोशल अनेक गुना अधिक बढ़ सकता है।

(2) देश की 65 करोड़ आबादी में यदि छै आदिमियों का कुटुम्ब माना जाय तो प्रायः 11 करोड़ कुटुम्ब बनते है। एक कुटुम्ब में चार वर्ष बाद एक विवाह होता हो तो ढाई करोड़ विवाह हर साल होते हेंगे। एक विवाह में यदि औसर, पाँच हजार लगता हो तो यह राशि 12500000000000 रुपयों की होती है। इतने धन से सरकार का समूचा बजट पूरा होता रह सकता है। इस राशि को बचाया जा सके और कुटीर उद्योगों में लगाया जा सके तो कुछ ही दिनों में देश की अर्थ व्यवस्था का काया-कल्प हो सकता है और देखते-देखते प्रस्तुत दयनीय दरिद्रता का स्िन खुशहाली ले सकती है। न्यायपूर्वक इस अपव्यय के लिए कमाई कर सकना वर्तमान परिस्थितियों में सर्वसाधारण के लिए किसी प्रकार सम्भव नहीं हो सकता है। ऋण लेने अनीतिपूर्वक कामनि, कड़कियों को कुमारी रखने, अयोग्य हाथों में सौंपने जैसे अवाँछनीय दुष्परिणाम ही सामने आते है। दहेज की वेदी पर आयेदिन कितनी नव-वधुओं के बलिदान होते रहते है। उस रोमाँचकारी घटनाओं को देखने-सुनने वाले इसी नतीजे पर पहुँचते है। कि अपने समाज पर लगे हुए इस कलंक को एक दिन के लिए भी सहन नहीं किया जाना चाहिए।

(3) आलस्य वश ठालीपन को सौभाग्य बड़प्पान का चिन्ह मानने-श्रम का महत्व न समझने से देश के अधिकाँश लोग ऐसे ही बैठे ठाले समय गँवाते रहतें है। जिनके ऊपर महत्वपूर्ण जिम्मेदारियाँ लदी हैं, वे भी कामचोरी के अभ्यस्त पाये जाते है। फलतः उत्पादन क्षमता का आपे से अधिक भग ऐसे ही आलंस्य प्रमाद में नष्ट हो जाता है। यदि हर व्यक्ति निचर्या बनाकर काम करें, समय को नष्ट न होने दे, श्रम रत रहे तो स्वास्थ्य, धन तथा कौशल की दृष्टि से देश दिन-दिन अधिक सुसम्पन्न होता चलेगा। हरामखोरी एक प्रकार की महामारी है। जिसे व्यक्ति और समाज को बीमारी जैसी अपंग असमर्थता का अभिशाप सहना पड़ता है। आवश्यकता श्रम की प्रतिष्ठा तथा हरामखोरी की निन्दा का वातावरण बनाने की है। साथ ही जन-जन से सम्पक साध कर उसकी क्रियाशीलता में नया उत्साह भरन की है। उसमें व्यक्ति और समाज दोनों को ही उर्त्कष के मार्ग पर बढ़ चलने का नया मार्ग खुलेगा।

(4) फैशन फिजूल खर्ची को यों शैक-मौज की साधारण बात माना जाता हैं पर उस पर खर्च होने वाले समय एवं पैसें की बर्वादी का हिसाब लगाया जाय तो प्रतीत होगा कि इन ठाट-बाट एवं अंहकार प्रदर्शन की मदों में प्रायः रसोई घर में लगने वाली राशि के समान ही खर्च होता रहता है। चित्र-विचित्र डिजायनों के सन्दूक भरे कीमती कपड़े, सोने, चाँदी के आभूषणों, श्रंगार प्रसाधन, सजावट के फर्नीचर, उपकरण, मटरगश्ती, आबारागर्दी, ताश शतरंज, अनावश्यक वाहन, बडे़ भवन, प्रीति-भोज, विनोद साधन जैसे अनेकों दुर्व्यसन इन दिनो छोटे या बड़े रुप से जन-जन पर छाये हुए है। अमीरी का ढोग बनाने, दूसरों की आँखों में चकाचौध उत्पन्न करने के लिए समय और पैसे की बुरी तरह बर्वादी होती है और मिथ्या अंहकार के दिखवे का प्रचलन बढ़ता है। वस्तुतः यह बचकानापन मनुष्य को क्षुद्रता का-आत्महीनता के उद्वत परिचय का चिन्ह है। श्रंगारिकता के आकर्षण से व्यभिचार के लिए परोक्ष उत्तेजन मिलता है, ईर्षा उत्पन्न होती है और अनुकरण के लालच में लोग अनैतिक तरीके अपनाने पर उतारु होते है।

जेवरों वाली राशि को यदि पशु पालन जैसे घरेलू उद्योगो में लगाया जा सके तो देश में फिर से दूध घी की नदियाँ वह सकती है। बछड़ों सें ऐसे नये टैक्टरों की आवश्यकता पूर्ण हो सकती है जो लागात में सस्तें, चलाने में सरल और अपनी खुराक जितना गोबर उत्पन्न करते रह सकते है। फैशन की पोशाकें हटाकर यदि सादगी से तन ढकने की बात गले उतर सके तो उस बचंत से हर व्यक्ति को अपना नीजि मकान बनाने का लाभ निश्चित रुप से मिल सकता है।

इन दिनों फैशन और फिजूलखर्ची को अमीरी बड़प्पन और सौभाग्य का चिन्ह माना जाता है। प्रवाह बदला जाना चाहिए और इन बचकानेपन को अपनाने वालों को हेय स्तर का छछोरा और उद्धत मानने वाला लोक मत जगना चाहिए। जब देखा जायगा कि समय और पैसा बर्वाद करने पर भी भर्त्सना हाथ लगती हैं, तो निश्चय ही इस अपव्यय और अंहकार की उद्धत दुष्प्रवृत्ति से छुटकारा पाया जा सकना सम्भव हो सकेगा। यह छोटा सुधार भी देश की आर्थिक एवं नैतिक प्रगति में असधारण रुप से सहायक होगा।

(5) अवाँछनीयता इन दिनों हर क्षेत्र में घुम पड़ी है। न्याय, औचित्य और विवेक को तिलाँजलि देकर लोग इन दिनों मूढमान्यताओं कुरीतियों और अनैतिकताओं को अपनाये बैठे हैं। अभ्यास, ढर्रा और प्रवाह ही परम्परा बन गया है और जो चल रहा है उसे चलने देना चाहिए। जैसी दुर्बल मनःस्थिति का जन-जन को शिकार पाया जाता है।

मूढ मान्याताओं में, टोन टोटका, भूत पलीत, दर्द देवता, भाग्य ज्योतिष, शकुन-मूहूर्त जैसे कितने ही अन्धविश्वास चलते है। जिनके कारण भ्रम में फँसने, अशान्त आतकिंत होने एवं ठगाये जाने से लेकर मानामालिन्य विग्रह का दौर चलने जैसी अनेकों हानियाँ उठानी पड़ती है।

क्रीतियों में जाति-पाति के नाम पर चलने वाली ऊच-नीच की मान्यता, स्त्रीयों को पर्दे में रखने की प्रथा, लड़की, लड़के में भेदभाव, शादियों की धूम धाम, दहेज बाल-विवाह, मृतक भोज, भिक्षा व्यवसाय जैसी कितनी ही कुप्रथाएँ अपने समाज में पडे़ जमा कर बैठी है। जिनेस मात्र बर्वादी का माहौल बनता है।

अनैतिकताओं में आलस्य, अपव्यय, असंयम, दुर्व्यसन आवेश, कटुभाषण जैसी कितनी ही वैयक्तिक बुराईयाँ गिनाई जा सकती है। उसी उपक्रम में जब मनुष्य उद्धत बन जाता है तो आक्रमक आततायी जैसी दुष्टताएँ अपनाने में भी नहीं चूकता। चोरी, ठगी, रिश्वत, मिलावट, अपहरण, बलात्कार, लूट, डकैती, हत्या जैसे अपराध, भी उद्धत अनैतिकता के अर्न्तगत ही आते है।

सभ्य समाज की संरचना के लिए मूढ़ मान्यताओं, कुरीतियों एवं अनैतिकताओं, के तीनों ही प्रचलनों के विरुद्ध लोहा लेना होगा। अवाँछनीयता के यह तीनों ही स्तर ऐसे है जिनकी हानियाँ जन-जन को समझाई जानी चाहिए और इनके विरुद्ध लोकमत को गठित एवं प्रतिरोध के लिए तत्पर किया जाना चाहिए।

सृजन शिल्पियों की संख्या हजारों को पार कर चुकी लाखों में गिनी जा सकतीहै। और अगले दिनों वह करोंड़ों में जा पहुँचेगी। इतना बड़ा समुदाय अपने बीच से ही जिन प्रचलनों को क्रियान्वित करेगा उसका प्रभाव सर्म्पक क्षेत्र पर पडे़ बिना रह ही नहीं सकता। यों भवनात्मक उत्साह उत्पन्न कर श्रद्धासिक्त वातावरण में लोगों में अभीष्ट साहसिकता उत्पन्न की जा सकती है। वह की भी जायगी, पर प्रभावीकरण एक ही होगा अपना उदाहरण प्रस्तुत करके लोगों को अनुकरण की प्रेरणा देना।

स्वयं साथ रहकर सहयोगी उत्पन्न करना सरल है। बुरे कामों के लिए साथी मिल जाते है तों कोई कारण नहीं कि प्रतिभाशाली व्यक्ति आदर्शवादी प्रयोजनों को हाथ में लेकर आगें बढे तो उन्हें स


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