चेतना की अविच्छिन्नता एक सर्वस्वीकृत तथ्य

December 1980

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जीव की मरणोत्तर सत्ता का सिद्धान्त भारतीय दर्शन में तो प्रधानता प्राप्त है ही, अन्यान्य धर्म-दर्शन भी उस विषय से विरत नहीं है ।

वैदिक धर्म के पश्चात् पारसी धर्म का क्रम है । उसमें भी जीवात्मा की मरणोत्तर सत्ता एवं कर्मफल पर आस्था व्यक्त की गयी है । पारसियों का मानना यह है कि कर्मानुसार र्स्वग-नर्क तो प्राप्त होता है और यह द्वन्द चलता रहता है, किन्तु अन्ततः सत्शक्तियों के देवता ‘अरमुज्द’ की असत् प्रवृत्तियों के प्रेरक ‘अहर्मन’ पर विजय होती है और व्यक्तिसता परमात्मा-सत्ता का सामीप्य प्राप्त करने में समर्थ होती है ।

प्राचीनता की दृष्टि से पारसियों बाद-बौद्धों का क्रम है । वे भी प्रारम्भ से ही मरणोत्तर जीवन को पूर्णतः स्वीकार करते है । परवर्तीकाल में तो बौद्धों में अनेकानेक स्वर्गां-नरकों की मान्यता प्रतिष्ठित हो गयी।

यहूदियों का विश्वास है कि जीवात्मा मृत्यु के पश्चात् किसी दिन उठेगा और ईश्वर-कृपा से उसका उद्धार होगा । कयामत के दिन की कल्पना का मूल आधार यह यहूदी मान्यता ही है ।

ईसाइयों की आस्था है कि यीशु मसीह मर कर तीसरे दिन उठ बैठे । इसे ‘रिसरेक्शन’ कहते है । कर्म-फल पर ईसाइयों की भी आस्था है । हाँ, साथ ही वे ये मानते है कि जो कोई प्रभु, पुत्र यीशु पर आस्था रखता है, उसके पक्ष में यीशु अभिमत व्यक्त करेंगे, और वे लोग र्स्वग के अधिकारी होंगे ।

वरभि8म के विशप डा. अर्नेस्ट विलियम बर्नेस ने अपनी पुस्तक ‘द वर्ड डिस्क्राइब्ड बाय सायन्स एँड इट्स स्प्रिचुअल इन्टरप्रिटेशन’ (पृष्ठ 637) में लिखा है कि ‘रसायन शास्त्र की आधुनिक शोधों से यह स्पष्ट हो गया है कि हमारे

भौतिक शरीर के आधारभूत प्राकृतिक परमाणु मृत्यु के बाद छिन्न-भिन्न हो जाते है । अतः शरीरों के पुनः उठने का जो विवरण वाइबिल में है, उसका अभिप्राय मात्र जीव की मरणोत्तर सत्ता से है ।

मुसलमानों में कयामत सम्बन्धी मान्यता का विवरण विस्तार के साथ प्रचलित है । जिसके अनुसार किसी एक विशेष तारीख को तमाम आत्माएँ उठेंगी, और ईश्वर उनका न्याय करेगा । हजरत मुहम्मद को मानने वालों को हजरत जन्नत में प्रवेश करा देंगे ।

श्री एफ.बी.जीन्स ने अपनी पुस्तक “एन इन्ट्रोडक्शन टु द हिस्टरी आफ रिलीजन्स” में सभी धर्मों के विवरण देकर स्पष्ट किया है कि मरणोत्तर सत्ता पर सभी का विश्वास है ।

दार्शनिक मार्टिन ने जीव की मरणोत्तर सत्ता के पक्ष में तीन प्रधान तर्क दिए है (1) बौद्धिक विकास का तर्क (2) चेतनात्मक विकास का तर्क (3) अभुक्त कर्मो का तर्क ।

जन्मना लोगों में बुद्धि एवं आन्तरिक चेतना के भिन्न-भिन्न स्तर पाये जाते है, कोई अद्भुत स्मरणशक्ति का धनी है तो कोई बिना पढ़े अनेक बातें जानता है, किसी में अन्तः प्रज्ञा अधिक विकसित है तो किसी में कोई विशेष अतीन्द्रिय क्षमता है । इसी प्रकार कुछ लोग अपने कर्मों के उचित परिणाम इस जीवन में नहीं पाते देखे जाते ! बुद्धि चेतना एवं कर्मफल की ये विषमताएँ मरणोत्तर जीवन की सम्भावना को पुष्ट करती है यानी बुद्धि या चेतना का निरन्तर विकास होता रहता है और अभुक्त कर्मफल अगले जीवन में भोगना पड़ता है ।

‘द वेल्य एंड डेस्टिनी ग्रन्थ के लेखक बी. बोसान्के ने लिखा है-आगामी जीवन एक तथ्य है । क्योंकि हमारा यह जीवन किसी अविच्छिन्न श्रृख्ला की ही अभिव्यक्ति है । इसी प्रकार ‘प्लूरलिज्म एंड थीइज्म आँर द रील्म आफ आन्क्स’ में लेखक जेन्स ने भी यही लिखा है कि ‘विश्व में जीवन की व्यवस्था एवं प्राकृतिक नियमों को देखते हुए मृत्यु, व्यक्ति एवं जाति की उन्नति के अगले सोपान की ओर बढ़ाने का साधन सिद्ध होती है ।”

मनुष्यों के बीच जन्मना विद्यमान विषमता के पीछे वंशानुगत कारणों (इनहेरिटेन्स) के साथ ही ‘एक्शन आफ प्रीवियस लाइफ’ पूर्व जन्म के कर्मों की बात अब पाश्चात्य जगत में भी मानी जाने लगी है ।

पुनर्जन्म के अनेक तथ्यों की परामनोवैज्ञानिकों ने खोज की है और उनका संकलन किया है । इससे भी मरणोत्तर जीवन की सत्यता प्रकट होती है । अब तक उपलब्ध साक्षियाँ इतनी अधिक एवं इतनी प्रामाणिक है कि उन्हें अविश्वस्त ठहरा पाना असम्भव है ।

आत्मा की मरणधर्मिता प्रेरणा से भी सिद्ध नहीं होती । क्योंकि मृत्यु यदि आत्मा का स्वभाव होती तो वह उसे इसी भाँति प्रिय लगती, जिस प्रकार खटमलों को खून, मच्छरों को मलिनस्थल, मछलियों को पानी और पक्षियों को नभ प्रिय है । किन्तु कोई भी आत्मा मृत्यु को पसन्द नहीं करती ।

मरणभय स्वयं में जन्मान्तर या पूर्वजन्म का प्रमाण है । क्योंकि चित्त में स्मृति मा़त्र उसी विषय की रहती है, जिसका पूर्वानुभव हो । तभी वह अनुभूति चित्त में अधिष्ठित रहती है और उसका पुनः बोध ही स्मृति कहलाता है । कोई भी व्यक्ति इस जन्म में प्रत्यक्षतः मरण को नहीं भोगता, अतः उसमें मरणभय की स्मृति कहाँ से आई ? अतः वह पूर्वजन्म की ही स्मृति प्रतीत होती है । स्वयं की विद्यमान सत्ता के प्रति जो अभिनिवेश होता है, वह पूर्वजन्म की ही अनुभूति का परिणाम है ।

कुछ लोग मरणस्मृति को स्वाभाविक कहते है, किन्तु कोई भी स्मृति स्वतः नहीं उत्पन्न होती, वह निमित्त से ही पैदा होती है । पूर्व अनुभव ही वह निमित्त है ।

यदि यह कहा जाय कि दुसरों को मरते देखकर स्वयं का मरणभय संस्कारारुढ़ होता है, तो देखा यह जाता है कि व्यक्ति जिस समय सामान्य मनः स्थिति में नहीं रहता तथा उसे चेतन मस्तिष्क द्वारा गृहीत अन्य विषय जिस मनः स्थिति में नहीं याद रहते, उस समय भी उसमें प्रगाढ़ मरणभय होता है । अतः यह गहराई में अंकित अनुभूति है । बिना प्रत्यक्ष भोग के इतनी गहरी अनुभूति सम्भव नहीं ।

मरणभय को अशिक्षित क्रियाक्षमता (अनटाट एबिलिटी) या सहजवृत्ति (इन्स्टिन्क्ट) भी कहा जाता है । किन्तु ‘इन्स्टिन्क्ट’ क्यों रहती है ? इसके दो ही उत्तर है-(1) वह ईश्वर कृत है-(2) वह अज्ञेय है । ‘इन्स्टिन्क्ट को ईश्वरकृत कहना गोलमटोल उत्तर है । क्योंकि ईश्वर प्रत्यक्षतः कर्त्ता नहीं है और जिस अभिप्राय से उसे कर्त्ता कहा जाता है, उस दृष्टि से तो सब कुछ का कर्त्ता वही है । मात्र ‘इन्स्टिन्क्ट’ का कतृत्व उस पर क्यों थोपा जाय ?

‘इन्स्टिन्क्ट’ को अज्ञेय कहना अपनी सीमा की स्वीकृति की दृष्टि से तो ठीक है । किन्तु ऐसे में उसके पूर्व अनुभूत स्मृति न होने की बात का खण्डन कैसे सम्भव है ?

मृत्यु का वैदिक भाषा में जो प्रयोग है, वह भी ध्यातव्य है संस्कृति में मृत्यु को नाश कहा जाता है । ‘नाश’ का अर्थ है, जो दिखे नहीं । सर्वथा अभाव को नाश नहीं कहते इसी प्रकार जन्म का अर्थ प्रादुर्भाव, प्रकटी कारण होती है । इस प्रकार जन्म-मृत्यु का अर्थ नवीन उद्भव एवं सम्पूर्ण अभाव नहीं, प्रकटकीरण एवं अदृश्यीकरण मात्र है ।

तार्त्पय यह है कि मृत्यु को जीवन का अन्त मानना एक दुराग्रह भर ही हो सकता है । जीवन अनन्त है । भविष्य सुविस्तृत है और पुनर्जन्म वास्तविकता है । अतः क्रमिकगति से धैर्यपूर्वक आत्मोर्त्कष की ओर अग्रसर रहना ही हमारा कर्तव्य है । शरीर की मृत्यु तो निश्चित है, किन्तुँ मानवीय चेतना अविनाशी है और उसकी प्रगति-धारा अविच्छित्र है । स्थूल जगत में अदर्शन ही मृत्यु है । सूक्षम जगत में सभी जीवित है । मरणोत्तर जीवन की सत्यता को हम समझें तथा उससे प्रेरणा प्राप्त कर योजनाबद्ध प्रगतिशील जीवनक्रम निर्धारित कर उस कर प्रसन्नतापूर्वक चलते रहें, इसी में बुद्धिमत्ता है ।


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