कर्तव्य की वेदी पर, ममता

December 1980

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आकाश में घटाटोप बादल छाये हुए थे और घनघोर वर्षा हो रही थी । नदी में इतनी तेज बाढ़ आई हुई थी कि जहाँ तक दृष्टि जाती असीम और अगाध जल राशि ही दिखाई देती थी । बाढ़ के अतिरिक्त एक समस्या यह भी थी कई जगह-जर्मन सेनाओं का जबरदस्त पहरा बैठा हुआ था । इधर रुसी गुप्तचर संस्था का एक

गुप्तचर अपनी पत्नी और बच्चों को साथ लेकर एक बहुत ही महत्वपूर्ण सूचना लेकर रुसी अधिकारियों के पास पहुँचने के लिए बेचैन था । जिस नगर में वह रहता था, उस पर जर्मनी की सेनाओं ने कब्जा कर लिया था और उस गुप्तचर के बारे में उन लोगों को पता लग गया था कि वह रुस का भेदिया है । इसलिए वहाँ रहना किसी भी दृष्टि से खतरे से खाली नहीं था ।

इस गुप्तचर का नाम था कोत्सीनेन, साथ में उसकी पत्नी थी तानिया और दो बच्चे, यह दूसरे विश्वयुद्व के समय की बात है कोत्सीनेन और तानिया ने अपने दो बच्चों के साथ नदी के उस पार बसे गाँव में एक ग्रामीण की झोपड़ी में डेरा डाला, वह ग्रामीण कोत्सीनेन का परिचित था । लम्बा और पैदल सफर करने कारण दोनों बच्चों की हालत बहुत बुरी हो गई थी । रात का एक पहर बीत चुका था ।

कोत्सीनेन ने उठ कर सोने के लिए बिस्तर बिछाया आस-पास की झोपड़ियों में रहने वाले लोग समझ चुके थे कि उनके पड़ोस में आकर ठहरा परिवान कोई साधारण परिवार नहीं है । कोत्सीनेन और तानिया बच्चों को लेकर चर्चा कर रहे थे कि मौसम बहुत खराब है और बच्चों की हालत पहले से ही खराब है । फिर मोसम की मार न जाने कब क्या गुल खिला दें ?

विचित्र धर्म संकट में उलभे थे दोनो, कि क्या किया जाए ? तानिया ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा-शायद सुबह तक इन दोनों की हालत सुधार जाय ।

कुछ नहीं बोला कोत्सीनेन ।

तानिया ने अपने पति को चिंतित देखकर कहा-तुम चिन्ता मत करों । इस कारण हमें अपना कर्तव्य पालन करने में कोई बाधा नहीं आयेगी ।

कहने को तो कह दिया था तानिया ने, पर कोत्सीनेन जानता था कि वह एक माँ है और एक माँ के लिए अपने बच्चों की चिन्ता अपनी चिन्ता से भी बढ़ कर होती है ।

वह चुप रहा ।

दोनों पति-पत्नी अपने भीतर चल रहे अंतर्द्वन्द्व से जूझते हुए एक दूसरे की ओर ताक रहे थे । बच्चे बीच-बीच में जोरों से खाँसने लगते और तानिया दौड़ कर हड़बड़ा कर उन्हें सम्हालने में जुट जाती ।

तभी दरवाजे पर दस्तक सुनाई दी । तानिया ने उठ कर दरवाजा खोला तो उसी झोंपड़ी में रह रही स्त्री थी । उसने पूछा क्या हुआ है बच्चों को ?”

‘बहुत तेज बुखार है और पसलियाँ भी चल रही है, तानियाँ ने कहा !

‘बहन मैं कोई वैद्य हकीम तो हूँ नहीं । बस थोड़ी सी घरेलू दवायें जानती हूँ, वह स्त्री अन्दर आ गई थी और कुछ देर तक बातचीत करने के बाद बोली मै जानती हूँ कि तुम लोग हमारे ही दुःख दर्द मिटाने के लिए अपने हृदय पर पत्थर रखे हो । सफर के कारण ये तुम्हारे कोमल फूल कुम्हला गये है । अगर तुम इन्हें मेरे पास छोड़ जाओ तो इनके इलाज का कोई प्रबन्ध हो सकता है । “

मकान मालकिन को सम्भवतः इन लोगों के मिशन का पता था । तभी उसने ऐसा प्रस्ताव रखा । वास्तव में इन लोगों का वहाँ से चल देना जरुरी था सुरक्षा की दृष्टि से भी, और कर्तव्य की दृष्टि से भी ।

बड़े ही भारी मन से तानिया अपने आप में यह प्रस्ताव मानने के लिए तैयार हुई और फिर उस घर से ऐसे बाहर आई कि पीछे भी मुड़ कर नहीं देखा ।


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