दया नहीं सहयोग

December 1980

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महानगरी बम्बई की पटरियों पर एक अन्धा भिखारी गीत गा-गा कर भीख माँग रहा था । उसका कण्ठ बहुत मधुर था । हजारों लोग रोज भीख माँगते है, जिसको किस पर ध्यान देने का अवकाश रहता है सो उस पर ही कौन ध्यान देता । बरहाल इतना जरुर था कि लोग उसके मधुर कण्ठ से आकर्षित होकर थोड़ा ठिठक जाते थे । वह जो कुछ गा रहा था, उन पंक्तियों में उसकी नेत्रहीनता के साथ-साथ दया की याचना से द्रवित होकर कोई कोई रुकता और दो-तीन पैसे उसके सामने रखे बर्तन में डाल जाता था।

जिस स्थान पर बैठा वह अन्धा भिखारी भीख माँग रहा था उसी स्थान पर एक कार रुकी, कार में बैठे थे विश्व प्रसिद्ध संगीतकार सिगप्रिड जान्सन जो स्वंय भी अन्धे थे । उन्होंने ड्राइवर से कहा, देखो क्या माजरा है ? कौन इतने मधुर कंठ से क्या गा रहा है ?”

ड्रायवर कार से उतरा ओर देखकर आया तो उसने सारी बात बताई । जोन्सन ने पूछा, ‘क्या इस देश में अन्धे व्यक्तियों को भीख माँग कर गुजारा करना पड़ता है ?”

‘लगता तो ऐसा ही है, मान्यवर !’ ड्रायवर ने कहा, और गाड़ी स्टार्ट कर दी । गाड़ी अपने स्थान से आगे बढ़ी और तेज गति से बम्बई की सड़कों पर दौड़ने लगी । उससे भी तेज गति के साथ दौड़ रहा था जोन्सन का मस्तिष्क । वे सोच रहे थे कि क्या यह मनुष्य समाज की गरिमा के अनुरुप है कि अपंग, अन्धे और शरीर से लाचार व्यक्ति अपने ही भाइयों की दया पर आश्रित रहगें । गर्हित है वह समाज जो अपने अपंग, असमर्थ सदस्यों के लिए सम्मानित जीवन की कोई व्यवस्था न कर सके और पराजित है वह व्यक्ति जिसमें शारीरिक असमर्थता के प्रति अपनी महान बिराट् आत्मा के प्रति विश्वास हट गया है ।

अन्धे, अपंगों के प्रति लोगों के मन में दया का नहीं सहानुभूति और सहयोग का भाव उत्पन्न हो, इसके लिए सिगप्रिड जोन्सन ने कुछ करने का निश्चय किया । वे स्वंय भी जन्म से अन्धे थे, पर जिस परिवेश में रहने का उन्हें अवसर मिला था, उसने उनके हृदय में इतमना विश्वास उत्पन्न कर दिया था कि वे आत्म-निर्भर हो कर सम्मान के साथ जीवन निर्वाह कर सके । जोन्सन का कण्ठ सुरीला तो था किसी ने उन्हें संगीत सीखने की प्रेरणा दी । साधना ने उनके कण्ठ को और भी सुरीला बना दिया । उनकी संगीत प्रतिभा निखरी और उन्होंने अपने मूल देश में जहाँ-तहाँ संगीत कार्यक्रम आयोजित किये ।

उनकी ख्याति देश काल की सीमाओं को लाँघकर विश्व भर में फैल गई और वे अपनी कला का प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न प्राप्त होते थे । इन्हीं यात्रा कार्यक्रमों के अर्न्तगत एक बार वे भारत आये ओर भारत में जब उन्होंनें देखा कि यहाँ अन्धों की स्थिति अन्य दूसरे अपंगों से भी बुरी है तो उनकी आत्मा द्रवित हो उठी । उन्होने निश्चय किया कि वे भारत में एक ऐसा आश्रम स्थापित करेंगें जिसमें रह कर अन्धे व्यक्ति सम्मानपूर्वक जीवनयापन कर सकें ।

अपने स्वप्न को साकार करने के लिए उन्होंने संगीत कार्यक्रमों की एक देशव्यपी श्रृंग्ला बनाई और अपनी स्वर माधुरी से जन मन को विनादित किया । उनके संगीत कार्यक्रमों में श्रोता टूट पड़ते थें । उससे होने वाली सम्पूर्ण आय को उन्होने अन्धाश्रम की व्यवस्था के लिए सुरक्षित रखा तथा दक्षिण भारत के ऐलम जिले में तिरुपड़ गाँव में एक विशाल आश्रम की योजना को मूर्तरुप देते रहे । उन्होंने आश्रम को करीब डेढ़ लाख रुपया अपनी ओर से दिया । आज आश्रम में सैकड़ों व्यक्ति शिक्षा प्राप्त कर अपने लिए सम्मानित जीविका कमा रहे है ।


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