अवतारों की सनातन प्रक्रिया

December 1980

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पुरुष सूक्त में परम सत्ता के स्वरुप का वर्णन “सहस्त्र शीर्षा पुरुषः सहस्त्राक्षः सहस्त्रपात्, अर्थात् उसे हजार मस्तक, हजार हाथ पैर वाला कह कर किया गया है । यहाँ हजार का अर्थ दस सौ से नहीं, अनेकत्व से है । सृष्टि के संचालन-नियमन की व्यवस्था की महान प्रक्रिया शाक्ति के किसी एक स्वरुप द्वारा ही सम्भव नहीं होती । अपितु हजारों शक्ति-स्वरुपों, सहस्त्रों देव-शक्तियों का सहचरत्व ही इस व्यवस्था को नियोजित निर्देशित करता है। यह एक सनातन प्रक्रिया है ।

नक्षत्र अपनी धुरी एवं परिधि पर निर्धारित क्रम से बार-बार परिभ्रमण करते है । पृथ्वी अपनी धुरी पर एक दिन में और सूर्य की एक वर्ष में परिक्रमा करने का क्रम अनादिकाल से दुहराती चली आ रही है । समुद्र से वर्षा वर्षा का जी घूम फिरकर फिर समुद्र में । बीज से वृक्ष, वृक्ष से फल, फल से बीज । सनातन प्रक्रिया का अर्थ मात्र यही है कि सृष्टि में सभी कुछ अपनी क्रम व्यवस्था के अनुसार परिभ्रमण करता हुआ बार-बार उसी प्रक्रिया से गुजरता है । सृष्टि-चक्र की ही तरह इतिहास-चक्र की भी गति है । व्यक्तियों और घटनाओ। में हेर-फेर तो होता ही रहता है । प्रवाह की प्रक्रिया को देखा-समझा जाये, तो उसके मूल में एक निश्चित क्रम व्यवस्था क्रियाशील दिखाई पड़ंगी ।

समाज में मामूली गड़बड़ियाँ बार-बार होती-फैलती रहती है । समाज-सुधारकों द्वारा उनका सुधारकार्य भी सम्पन्न होता रहता है । किन्तु जब अनाचार की अति हो जाती है, जनमानस शुभप्ररेणा एवं सत्प्रवृति से प्रभावित-परिचालित होने की क्षमता खो बैठता है तब व्यापक उथल-पुथल की अनिवार्यता आ उपस्थित होती है । यही अवतारों की प्रक्रिया एवं पृष्ठ भूमि रही है । श्रीमद् भगवद् गीता के अनुसार-

यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत । अम्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

परित्राणाय साधूनाँ, विनाशाय चादुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय, सम्भवामि युगे-युगे ॥”

यही बात रामचरित मानस में इन-शब्दों में कही गई है -

“जब-जब होइ धर्म की हानी । बाढ़हिं अधम असुर अभिमानी ॥

तब-तब प्रभु धरि मनुज शरीरा । हरहिं सदा सज्जन उर पीरा ॥”

अनीति-अवाछनीयता के निवारण एवं विवेक-सदाचार की प्रतिष्ठापना का विराट् प्रयोजन ही अवतरण प्रक्रिया का उद्द्द्देश्य होता है । प्रत्येक अवतार की सामयिक परिस्थितियाँ बाहृ परिवेश भिन्न होता है । उसी के अनुरुप उन्हें संगठन एवं कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी होती है । 24 अवतारों में से प्रत्येक में व्यवस्था के बाहरी स्वरुप की यह भिन्नता स्वाभाविक ही है । किन्तु उनके अन्तरंग स्वरुप में, प्रक्रिया एवं प्रयोजन में सराम्य है ।

व्यापक परिवर्तन के लिए महाशक्ति का जो भवना-प्रवाह, ज्ञान-प्रवाह एवं कर्म-प्रवाह उमड़ता है, उसे अवतार कहते है । यह प्रवाह जब अल्पशक्ति के रुपों में प्रकट होता है, तब वह विभूतियाँ कहलाता है मरीचि, मनु आदि को इसीलिए विभूति कहा जाता है । भागवत् में इसे ही ईश्वर की कला कहा गया है=

अवतारा हृसंख्येया हरेः सत्वनिधेर्द्विजाः । यथा विदासिनः कुल्याः सरसः स्युः सहस्त्रशः ॥

ऋषयो मनवो देवा मनुपुत्रा महौजसः । कलाः सर्वे हरेरेव स प्रजातपयस्तथा ।।”

अर्थात जैसी पानी के अट्ट स्त्रोतों वाले सरोवर से हजारों नहरें निकलती रहती है, उसी प्रकार अनन्त सत्वगुण-निधान भगवान से अनेक अवतार निकलते रहते है । साथ ही ऋषि, देव, मनु, प्रजापति और महा ओजस्वी मनुष्य से सभी ईश्वर की ही कलाएँ या विभूतियाँ है ।

जिनमें विभूतियों का विशेष और बहुविध उर्त्कष होता है, वे अवतार है । आवश्यक ध्वंस के अपार्द्धम और नधसृजन की सनातन प्रक्रिया के द्विविध उद्द्द्देश्यों की पूर्ति अवतारों द्वारा ही होती है ।

चेतना की सार्वभौम सत्ता को पुरुष कहा गया है । ब्रहृ, विष्णु और शिव-ये सृजन, पोषण -सरंक्षण तथासंहार के शाश्वत शक्ति केन्द्र है । इन्ही त्रिदेवों की समन्वित व्यवस्था-प्रक्रिया के अर्न्तगत ब्रहृण्ड का क्रियाकलाप गतिशील है । प्राणधारियों तथा पदार्थां की उत्पादन प्रक्रिया विश्व के ऐर्श्वय की वृद्वि करती है । उत्पादन के पोषण-अभिवर्धन से पुष्टता एवं परिपक्वता आती है । जराजीर्ण, अनुपायोगी की अन्त्येष्टि नये उत्पादन के लिए आवश्यक है । अतः अवसान वस्तुतः अभिनव सृजन का शुभारम्भ है । पोषण-अभिवर्धन मध्यवर्ती स्थिति है । प्रत्येक अवतार अवाँछनीय के अवसान विनाश और वाँछनीय के सृजन-विकास की प्रक्रिया को तीव्रता, गति एवं दिशा देता है ।

भारतीय मान्यता के अनुसार प्रमुख अवतार दस है-

“मत्स्यः कूर्म वराहश्च, नृसिंहो चैव वामनः । रामो, रामश्च, कृष्णश्च, बुद्धः, कल्किचेतेदश ॥”

अर्थात् मत्स्य, कर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्व और कल्कि ये 10 अवतार है नौ हो चुके है और दसवें अवतार का आविभवि इस युग में होना है ।

सभी नौ अवतार अनीति-अधर्म के उन्मूलन और विवेक नीति के अभिवर्धन के द्विविध पूरा करते रहे है।

महाप्रलय के उपरान्त, नइ्र सभ्यता का नये सिरे से विस्तार करना था । इस हेतु जल-विस्तार में डूबी पृथ्वी को उबारने और सत्यव्रत की रक्षा करने का दायित्व मत्स्यातवार द्वारा पूरा हुआ ।

प्रलय प्रयोधि के आँकाकारी विस्तार की समाप्ति और सत्यवत का संरक्षण ये दो कार्य उन्होंने परे किये। यही सत्यव्रत नये कल्प में वैवम्वत ‘मन कहलाये । नयी मानवीय सभ्यता संस्कृति के संस्थापक बने।

दीर्घ अन्तराल के बाद, फिर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई कि देव प्रवृतियाँ शिथिल और क्लाँत हो चलीं । असुर-प्रवृतियाँ और गतिशील थी, किन्तु विध्वंसक थीं । उत्पादन और सृजनात्मकता पराकाष्ठा तक पहुँच गये । जन-मन में हताशा, अभाव और अवसाद घर करने लगा ।

दीर्घ अन्तराल के बाद, फिर ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई कि देव प्रवत्तियाँ शिथिल और क्लाँत हो चलीं। असूर-प्रवृतियाँ शक्तिशाली और गतिशाील थी, किन्तु विध्वंसक थी । उत्पादन और सृजनात्मकता का क्रम ठप्प हो चला । विलासिता ओर विध्वंसात्मकता पराकाष्ठा तक पहुँच गये । जन-जन में हताशा, अभाव और अवसाद घर करने लगा ।

तब महाकाल ने समुद्र मन्थन की प्रेरणा उत्पन्न की । देव असुरों के सम्मिलित सहयोग से समुद्र-मन्थन की योजना बनी । इस विराट आयोजन की रई मन्दराचल पर्वत बना । उस पर्वत का भार सम्हालना अन्य किसी के लिऐ सम्भव न था, अतः इस भार का सम्हालने का आधार जिन्होंने स्वीकार किया, वे है कच्छप अवतार । उस आधार पर ही समुद्र-मन्थन की सारी प्रक्रिया सम्पन्न हुँई । सहयोग की भूमिका का सुदृढ़ आधार न जुटता तो सम्मिलित प्रयासों की भी प्रेरणा न जगती और समुद्र मन्थन से प्राप्त 24 रत्नों की समृद्वि न उपलब्ध हो पाती । इस समुद्र मन्थन से बारहवें रत्न प्रकट हुए अमृत-कलश धारी धन्वन्तरि और तेरहवाँ रत्न थीं’ मोहिनी । धन्वन्तरि आयुर्वेद के प्रवर्तक है ।

स्वास्थ्य की गरिमा और सच्ची महानता के अमरत्व का लोक व्यापी प्रचार उन्होंने किया । सम्मिलित सहकार से जो व्यापक सामाजिक आन्दोलन चला, समुद्र जैसा विशाल समाज गहराई तक मथा गया, उसमें से ऐसी लोक कल्याणकारी प्रवृतियाँ का प्रादुर्भाव स्वाभाविक ही था । जब सामाजिक समृद्वि आती है तो उसमें ऐर्श्वय की मोहक चकाचौधं भी उत्पन्न होती है । भोगलोलुपता की दैत्य-प्रवृतियाँ ही इप समृद्वि का अमृत पीने पाती है, क्योंकि वे मोहिनी-रुपयक मोहित नहीं होती । उनकी दृष्टि चैतन्य अमृत-स्त्रोत पर रहती है।

लोकमानस का समुद्र मन्थन एक विराट् और विस्तृत प्रक्रिया है । उसके अनेक आयाम होते है । इसीलिए उसमें नवसृजन विकास, समृक्ष्द्व तथा अनौचित्य के द्रुत विनाश-तीनों की समन्वित गतिविधियाँ आवश्यक होती है । इस प्रक्रिया के आधार अवतार कच्छप ने लोकजागृति के लिये परस्पर विरोधी दीखने वाली शक्तियों को सहकारी एवं पूरक बनाकर अपेक्षित साधन उपकरण जुटानें की परिस्थितियाँ एवं मनःस्थितियाँ पैदा की । धन्वन्तरि ने अमृत-कलश द्वारा जीवन में परिपक्त चैतन्य के आधार प्रस्तुत किये और मोहिनी ने आसुरी शक्तियों के स्खलन, क्षरण, विनाश की प्रक्रिया के द्रुतगति से सम्पन्न होने की रणनीति बनायी । इन तीनों प्रकार की गतिविधियों का आधार कच्छप अवतार बने और समृद्वि तथा श्रेष्ठता का नया युग शुरु हुआ ।

वाराह अवतार में भी दोनों ईश्वरीय प्रयोजन पूरे कियेगये । अनति-अनाचार के भार से रसातल में गई पृथ्वी का उद्वार उन्होंने किया । साथ ही आर्थिक और राजनैतिक एकाधिकार के जाल से सम्पूर्ण पृथ्वी को जकड़कर, सर्वत्र भोगवादी दैत्य सभ्यता का प्रसार करने वाले धन को ही हिरण्याक्ष का नाश किया ।

इसी परम्परा में वामन अवतार अगली कड़ी है। दैत्यराज बलि की असीमित सत्ताकाँक्षा को नियंत्रित करने और देव-सभ्यता को फलने-फूलने का अवसर सुलभ कराने की युगीन भूमिका उन्होंने निभाई ।

छठवें अवतार है श्री परशुराम । मदान्ध सम्राट सहस्त्रबाहु निरंकुश और स्वेच्छाचारी थे । उसकी हजार भुजाएँ होना एक अलंकारिक उपमा है । सम्भावना यह है कि उसके सहयोगी ऐसे पाँच सौ बड़े सामन्त थे, जो हर बात में उसका समर्थन करते थे, लोक चेतना को जगाने के लिए प्रयास-रत महर्षि जमदग्नि को उसने इतनी शरीरिक यातना दी कि उनका देहावसान हो गया । जमदग्नि के ही पुत्र थे परशुराम ।

इस दुर्नीति के दुश्चक्र से क्षुब्ध व्यथित परशुराम ने महाकाल की साधना की । महाकाल ने उन्हें प्रचंड परशु दिया जो अजेय और अमोघ था । एक ओर थी सशस्त्र सेनाएँ, दूसरी ओर परशुधर परशुराम । परशु का अर्थ है प्रबल प्रचार, समर्थ ज्ञानयप्ज्ञ । सहस्त्रबाहु की निरंकुश फ्रूरताओं के आधार-ज्ञाता को विश्लेषित कर उन्हें तार-तार कर डालने हजार बार उनका सिर उतार लेने की आवश्यकता पड़ती है । इस सहस्त्रबाहु के संहार के लिए परशुराम का आविर्भाव आवश्यक है, क्योंकि अनचार-पाप का प्रतिरोध मानवता की पुकार है ।

अविवेक और अनाचार के आतंकाकारी साम्राज्य के अधिपति रावण ने अपने साथ बुद्विजीवी, मायावी, शक्तिशाली, कुटिल लोगों का एक विशाल तन्त्र तैयार कर लिया था । ऐसी स्थिति में लोकमंगल के लिए समर्पित विचार शील आदर्शनिष्ठ ऋषियों ने अपना-अपना रक्त प्राणानुदान देकर उसे एक ही घड़े में एकत्र कर पकाया, जिससे सजीव महाशक्ति महाकाली पराशक्ति सीता के उद्भव की सम्भावना बनी । कर्मयोगी, ब्रहृज्ञानी, राजा होकर भी अपने पसीने की कमाई खाने वाले, जनक ही उस सीता के पिता प्रणेता, उस महाक्राँति के सफल संचालक हो सकते थे । धन-साधन विहीन जननायक राम उस साँस्कृतिक क्राँति चेतना के पति बने । जन सामान्य के संगठित अभियान के सामने सोने की लंका जल भुनकर खाक हो गई ।

श्री कृष्ण ने यही कार्य द्वापर में किया । कंस के अनाचार तन्त्र को उन्होंने अपनी प्रचण्ड सामर्थ्य से उध्वस्त किया । कौरवों की अनीति के दुश्चक्र को नष्ट कराया । अज्ञान-व्यामोह की निविड़ निशा में सोती हुई सोलह हजार प्रबुद्व आत्माओं-गोपियों को उन्होंने घर-परिवार की संकीर्ण सीमाएँ लाँघ कर बाहर आने और नयी संतुलित-श्रेष्ठ, आन्तरिक संगति तथा सात्विक संगीत से परिपूरित व्यवस्था के लिए महारास रचाने की प्रेरणा दी । एक नया विश्व-दर्शन दिया, जा प्राणों में भिद जाय, जो व्यक्तित्व के अणु-अणु को आलोकित कर दे, नये सृजन के लय ताल में नाचने को विवश कर दे । आज पुनः ऐसे ही साँस्कृतिक, सामाजिक राजनैतिक, महारास की आवश्यकता है ।

नौवाँ बुद्वावतार श्रमण-संस्कृति के अभिनव उर्त्कष के लिए हुआ । बौद्ध भिक्षु की दो विशेषताएँ आवश्यक होती थी-ज्ञान और तप । तपस्वी, ज्ञानदीप्त भिक्षु परिव्राजक बन कर साँस्कृतिक नव जागरण के लिए निकल पड़ते थें । अशोक जैसे सम्पन्न, अम्बपाली जैसे आकर्षक आनन्द जैसे प्रबुद्ध व्यक्तित्वों ने इस विशाल बौद्धिक-क्राँन्ति का देश-विदेश में विस्तार प्रसार किया । जाति प्रथा पशुबलि, क्रूरता तथा मिथ्यावार के आधारों को सशक्त विचार जागरण द्वारा ढहा दिया गया । बिना खून-खराबी और उत्पीड़न के जमाने को पलटे जा सकने का अनूठा उदाहरण लोक में प्रस्थापित हुआ ।

इसी क्रम में दसवाँ अवतार है “निष्कलंक” या “कल्कि” अवतार । पिछले हजारों वर्षों की कलंक कालिमा को धौ-पोंछकर मानवता का मुख उज्जवल करना इस अवतार का उद्द्द्देश्य है । धरती पर र्स्वग के अवतरण हेतु युग-परिवर्तन का सुव्यवस्थित विश्वव्यापी भावना प्रवाह एवं विचार प्रवाह निरन्तर उर्त्कष की आरे गतिशील है । अनीति अन्याय का दृढ़तापूर्वक प्रतिकार और उत्कृष्टता का गम्भीर आचरण, आध्यात्मिकता-शुद्वता का विस्तार हर अवतार की तरह इस अवतार के भी प्रयोजन एवं कार्य है । अवाँछनीयता और अविवेक के उन्मूलन तथा विवेक, सदभावना, सत्प्रवृति के अभिवर्धन का अभिनव क्रम चल रहा है । रचना और ध्वंस के दोनों ही कार्य व्यापक जन सहयोग द्वारा होने पर ही युगीन प्रवाह का अंग बनते है ।

दसवाँ अवतार इसी विराट् जन चेतना को दिशा देगा । मनुष्य के भीतर प्रसुप्त देवत्व को जागृत कर वह प्रज्ञा-प्रवाह समस्त आसुरी तत्वों का विनाश करेगा । युगशक्ति की प्रखरता से हर प्रकार के अनाचार का अन्त होगा । बौद्विक, नैतिक और सामाजिक क्राँन्ति से जन-जन स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज की दिशा प्रेरगा एवं प्रकाश ग्रहण करेंगे । व्यक्ति परिवार एवं समाज-निर्माण के त्रिविध कार्यो का सम्पादन कर सम्पूर्ण मानव-जाति में आत्मबोध, आत्मनिर्माण और आत्मविकास की अभिनव दिव्य चेतना का संचार करना ही निष्कलंक-अवतार का प्रयोजन है ! प्रजा का पाँचजन्य फूँका जा चुका है । ऋतम्भरा प्रज्ञा और युगशक्ति के रुप में ही यह नया अवतार अपना प्रयोजन पूरा करेगा ।


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