सुख और आनन्द की दिशा

December 1980

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मगधराज शतंजय की कन्या जितनी रुपवती थी, उतनी ही गुणवती भी। उसके गुण और रुप की चर्चा दूर-दूर तक फेनले लगी। जिस युवराज या उच्च कुल के युवक के कानों तक उसकी चर्चा पहुँचती, वही उसके विवाह की कामना करने लगता। कई राज परिवार के ष्युवक तथा सुसम्पन्न जन उसे अपनी जीवन संगिनी बनाने के लिए लालायति थे। कइयों ने इस तरह के प्रस्ताव भी सम्राटष्शतंजय तक पहुँचाए थे।

महाराज को भी एक दिन विचार करना ही पड़ा कि सुवासिनी के लिए उपयुक्त वर का चयन कैसे किया जाए? मन्त्री परिपद के परामर्श से स्वयंवर के आयोजन का निश्चय हुआ ताकि स्वयं सुवासिनी अपने लिए उपयुक्त वर का चुनाव कर सके। इस आयोजन की सूचना अन्य राज्यों में तथा स्वयं के राज्य में श्रेष्ठजनों तक पहुँचा दी गई। राजकुमारी ने स्वयंवर की इस घोषणा में अपनी ओर से यह भी जोड़ा कि वह उसी का वरण करेगी जो पूरी तरह सुखी हो और अपनी भावी पत्नी को हर तरह से आनन्दित रखने की सामर्थ्य रखता हों।

नियत समय पर राजपुत्र, व्यवसायी और विद्वान वर्ग के अनेकों प्रतिभाशाली व्यक्ति एकत्रित हुए। सभी को यथा स्िन सम्मानपूर्वक बिठाया गया। जयमाला हाथ में लिए उ्घोपक कंचुकी ने उच्च स्वर में कहा, ‘आप सभी सम्भ्रान्त जानों को यह तो ज्ञात हो ही गया होगा कि हमारी राजकुमारी सुख और आनन्द की प्राप्ति के लिए व्यग्र है। इस वैभव सम्पन्न राजभवन में भी उन्हें सुख और आनन्द का अभाव ही दिखाई देता है तो आप सब एक-एक कर प्रमाणित करें कि राज कुमारी जी को सुखी और आनन्दित रख सकेगें।

एक-एक कर राजकुमारों ने अपने साधनों और क्षमताओं का जो परिचय प्रस्तुत किया, वह लगभग एक ही जैसा था। सभी का कहना था कि हमारे पास ऐर्श्वय की कमी नहीं है, हम लोग सुदृढ़ साम्राज्य के स्वामी हैं। सुख और आनन्द के विपुल साधन हमारे पास हैं, जिनके द्वारा हर प्रकार का आनन्द प्राप्त किया जा सकता है।

सभी राजकुमारों का परिचय सुनकर सुवासिनी ने कहा, आप लोग भावी सम्राट हैं, पर आपका राज्याध्यक्ष होना तो प्रजा ही इच्छा के अधिन है। जनता की आकाँक्ष्ज्ञा से ही आप सिहासना रुढ़ हो सकते हैं और सम्राट रह सकते हैं। आप लोगों को नियमों और मर्यादाओं में रहकर ही राज्य संचालन करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में आप स्वतन्त्र कहाँ रहे? और जो पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है उसके लिए सुख कहाँ? आनन्द कैसा?

राजपुत्राो के पास सुवासिनी के इन प्रश्नों को कोई उत्तर नहीं था। तथ्य ही एकसा था कि प्रत्युत्तर की कोई गुँजाइश ही नहीं थी।

अब श्रेष्टि वर्ग की वारी थी। वही प्रश्न उससे भी पूछा गया। वणिक पुत्रों ने अधिक उत्साहपूर्वक कहा, हम स्वतन्त्रापूर्वंक व्यापारी करते हैं और न ही साधन विहीन। राजकुमारी ने उन सवों से कहा, आपकी बुद्धि और स्वतन्त्रता तो धन के लिए बिकि हुई है। धन की हानि लाभ के साथ आपका सुख और आनन्द जुड़ा हुआ है फिर सुखी और स्वतन्त्र कैसे हुए?

वैश्य पुत्र भी निरुत्तर होकर रह गए। अगला कक्ष विद्धानो का था। विद्या के धनी सुप्रसिद्ध, आचार्यो ने उपनी बात कही। अपने ज्ञान और सम्ममान सहित साधनों की विपुलता तथा वैभव सम्पन्नता का परिचय दिया एवं अपने आपको स्वतन्त्रता का पृष्ट पोषक तथा अधिपति बताया राजकुमारी ने अपने उत्तर में उनसे निवेदन किया ‘आप ज्ञानवान होते हुए भी लोभ, मोह और यश की कामना से बँधे हुए है। जीवन मृत्यु का ग्रास है। प्रतिकूल परिस्थितियाँ और मृत्यु की घड़ियाँ कभी भी आपके आनन्द तथा स्वातन्त्रय को नष्ट कर सकती है।

विद्वज्जन क्या उत्तर देते? इस स्तर पर तो वे भी सचमुच पराधीन ही थे। अखण्ड आनन्द का उपयोग उनके लिए भी कहाँ सम्भव था। सो वे भी चुपचाप अपने-अपने स्िनों पर बैठ गए। अब कोई नहीं बचा था जो अपने सुखी और आनन्दी होने का दावा कर सकता था। अतः आयोजन बिना किसी निर्णय के विसर्जित हो गया।

महाराज को आयोजन की इस विफलता का भारी क्षोभ हुआ। इन परिस्थितियों में सुवासिनी को क्या कुमारीी ही रहना पडे़गा? शतंजय को यह चिन्ता सताये जा रही थी। इसके लिए उन्होंने महर्षि अगस्त से परामर्श किया। अगस्त ने उन्हें राजकन्या के साथ अपने आश्रम में कुछ समय तक निवास करने का आमन्त्रण दिया। थोडे़ ही दिनों बाद महाराज शतंजय अपने परिवार के साथ गंधमादन पर्वत पर बने महर्षि अगस्त के तपोपन में पहुँच गए।

अगले ही दिन महर्षि ने सुवासिनी को अपने अध्ययन कक्ष में बुलाया। उसने यही पूछा कि ‘उपयुक्त वर के चुनाव के लिए भद्रे तुमने सुखी और आनन्दित होने की कसौटी ही क्यों चुनी?’

सुवासिनी ने कहा-पूज्वर! ठस कसौटी का निर्धारण मैंने इस विचार से किया था कि जो स्वंय आनन्दित होगा वही तो मुझे सुखी रख सकेगा। जो स्वयं सुख हीन है, उससे मुझे कौन-सा सुख मिल सकेगा?”

‘अन्यों के निरानन्द और परावलम्बी होने का विवेचन हो चुका,’ महर्षि ने काह, ‘पर सुवासिनी यह तो बताओ कि जोइस आनन्द और स्वत त्रता का अभिलाषी है; वह कौन है? क्या वह स्वयं इन विभूतियों को पाने और पचाने की स्थिति में है। अपने अह्म को तो खोजों, उसे तो समझों।

स्वासिनी को लगा जैसे उसे किसी ने झखझोर कर रख दिया है। पाकर उसे पचाने वाली क्षमता भी तो होनी चाहिए। प्रश्न बहुत जटिल था और सुवासिनी उसका उत्तर नहीं खोज पा रही थी। वह चुपचाप बैठी जमीन ओर निहार रही थी। ऋषि ने राजकन्या को मौन देखकर कहा, ‘देवी! क्या दूसरों से आनन्द पाने की इच्छा आकाँक्षा स्वयं बन्धन नहीं है? क्या तुम्हारा आनन्द साथी की खोज में अन्यत्र अटका नहीं है? शैशव, यौवन, जरा और मृत्यु से, वाँछाओं की तृप्ति से तुम बँधी हुई पराधीन तथा आनन्दहीन नहीं हो? यदि हो तो आनन्द और सुख का स्त्रोत अन्यत्र कहाँ मिलेगा?

‘क्या मैं भी पराधीन हूँ, ‘सुवासिनी ने अत्यन्त अद्विग्न और व्यग्र होकर पूछा। महर्षि सहज वात्सल्य भव से मुस्करा रहे थे। कामना ग्रसित और कहाँ स्वातन्त्रय?”

फिर मेरा अभीष्ट क्या मुझे कभी न मिल सकेगा? मैं निरानन्द और पराधीन ही भटकती मरुँगी? क्या स्वतन्त्रता और आनन्द केवल स्वप्न है?’ एक के बाद एक प्रश्नों की झड़ी लगा दी राजकन्या ने।

उसके चुप होने पर महामुनि ने कहा, ‘देवी जो हो, उसे अपने भीतर ही पाओगी, तप के प्रकाश में ही उसे देखोगी जो बाह्य जगत में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हो सकता। आत्मा ही आनन्द का आगार और केन्द्र है। बाहर तो उसकी सुवास मात्र बिखरी होती है।

सुवासिनी को जैसे समाधान मिल गया था और दिशा भी। राजपरिवार तपोवन में लगभग एक मास ठहरा। सुवासिनी इस बीच एकान्त आत्मचिन्तन में ही निमग्न। न उसे प्रकृति सौनदर्य के अवलोकन में रस आया और न उसने किसी अन्य दिशा में अपना ध्यान बँटने दिया।

मगधराज लौटने की तैयारीकरने लगे। पर सुविसिनी ने लौटने की कोई उत्सुकता नहीं दर्शाई। उसने अपने रत्न पड़ित आभूषण पिता के चरणों पर रखें और रुँधे हुए कण्ड से कहा, देव! मैने सुख और आनन्द की दिशा ढूँढ़ ली है। इसे प्राप्त करने के लिए कुछ काल तक मैं आश्रम में ही रुक कर तप साधन करुँगी और फिर राजभवन आने के सम्बन्ध में सोचूँगी।


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