अंत शक्ति की विलक्षणता के तथ्य-प्रमाण!

October 1979

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समुद्र की ऊपरी सतह पर ज्वार, सीपें और घोंघे ही मिलते हैं, धरातल में इतनी मूल्यवान सम्पदा छिपी पड़ी है कि उसे प्राप्त कर लिया जाय तो पाने वाला मालामाल हो सकता है। समुद्री गोताखोर सतह पर नहीं गहराई में गोता लगाकर तह से मोती बीन लाते है। धरती की ऊपरी परत कूड़े-कचरे, धूल-मिट्टी और कंकड़ पत्थरों से भरी हुई है, पर उसे गहरे खोदते जाते है तो पानी से लेकर अनेकानेक प्रकार की बहुमूल्य खनिज सम्पदाएँ मिलती चली जाती है। रेत के एक कण का स्थूल मूल्य नगण्य जैसा है। बाजार में उसकी कोमल कुछ भी नहीं है, पर जब उसकी भीतरी शक्ति की कुरेद बीन की जाती है तो सहज ही इस बात का पता चल जाता है कि पदार्थ का वह तुच्छाति तुच्छ घटक शक्ति का महान् और अजस्र शक्ति भाँडागार अपने में दबाये पड़ा है। परमाणु विस्फोट के समय उसकी शक्ति का लाखवाँ हिस्सा ही प्रयोग में आ पाता है, शेष भाग अन्तरिक्ष में विलीन हो जाता है। परन्तु परमाणु शक्ति के लाखवें हिस्से का भी जो प्रभाव और परिणाम देखने में आता है, उसी से पदार्थ की महान् शक्ति के बारे में पता चलता है। परमाणु में निहित यदि संपूर्ण शक्ति का प्रयोग किया जा सके और उसे ध्वंस में लगाया जाय ता उतने से हो सारे भूमण्डल का विनाश हो सकता है। इसी प्रकार यदि उस शक्ति का प्रयोग सृजन कार्य में किया जाय तो इतनी ऊर्जा प्राप्त हो सकती है जितनी कि सूर्य से पृथ्वी को मिली है।

परमात्मा की यह सृष्टि विचित्र रहस्यों और अनबूझ पहेलियों से भरी पड़ी है। उन्हीं में से एक रहस्य यह भी है कि गहराई में जाकर जो कुछ खोज बीन की जा सकती है, उससे इतना अधिक उपलब्ध किया जा सकता है, जितने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। स्थूल और बाह्य के प्रभाव तथा परिणाम स्वरूप है। स्थूल की गहराई में उतर कर जैसे-जैसे सूक्ष्म से संपर्क किया जाता है, उसी स्तर के अनुदान-वरदान मिलने लगते है।

मनुष्य यों दिखाई देने में अन्य प्राणियों की तुलना में बहुत ही स्वल्प सामर्थ्य वाला दिखाई पड़ता है, पर उसके पास बुद्धि के रूप में एक ऐसी सूक्ष्म शक्ति विद्यमान है, जिसके बल पर ही वह अपने से बलवान, भीमकाय प्राणियों को पीछे छोड़ने, पछाड़ने में समर्थ हुआ और अन्य प्राणियों की तुलना में अपनी दुनिया को अधिक उन्नत और विकसित बना सका हैं। मनुष्य समाज में कितने ही लोग बुद्धिबल के द्वारा सामान्य तथा पिछड़ी हुई हालत में आगे बढ़े, ऊँचे उठे और समर्थ सम्पन्न व्यक्तियों की अग्रिम पंक्ति में जा बैठे। इसके विपरीत विरासत में प्राप्त हुई उच्च स्थिति में भी लोग बुद्धिबल के अभाव में पतन के गर्त में जा गिरे।

बुद्धिबल की सूक्ष्म सत्ता का यह आँशिक परिचय हुआ। मनुष्य में उससे भी चमत्कारी और रहस्यमयी क्षमताएँ विद्यमान है। यदि उन्हें उबारा और अर्जित किया जा सके तो सचमुच ही मनुष्य ईश्वर तुल्य बन सकता है। उस शक्ति को मनुष्य की अन्तःशक्ति कहा जा सकता है। यह शक्ति प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान है, आवश्यकता उसे प्राप्त भर करने की है। योग साधनाओं का उद्देश्य मनुष्य की अन्तःशक्ति को अनगढ़ स्थिति से उबारकर उसे शुद्ध एवं प्रखर बनाना ही है। इस शक्ति को अर्जित और परिष्कृत कर कई प्रकार की अलौकिक क्षमताएँ उत्पन्न की जा सकती है और उसका उपयोग सत्प्रयोजनों में करके अपना व समाज का इतना बड़ा हित साधन किया जा सकता है, जितना सामान्य भौतिक क्षेत्र में सम्पन्न किये जाने वाले पुरुषार्थ द्वारा सम्भव नहीं है।

समय-समय पर कई उदाहरण देखने में आते है, जिनसे मनुष्य की अन्तर्निहित इस क्षमता के प्रमाण मिलते है। विश्व इतिहास में ऐसे अनेकों प्रसंग बिखरे पड़े है जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि मनुष्य सर्वसमर्थ और सर्वशक्तिमान् परमात्मा का पुत्र है तथा उसे अपने पिता द्वारा कई एक अमूल्य वरदान प्राप्त है। इनमें से कुछ प्रसंग तो इन दिनों काफी चर्चित रहे है। उदाहरण के लिए फ्राँस की एक लड़की ऐनेट फ्रेलन की पिछले दिनों प्रायः चर्चा होती रही। जब वह बारह वर्ष की आयु में थी उसकी चमड़ी पर सामने वाले व्यक्ति के मन की बातें उसके विगत और भावी के बारे में कई बातें इस तरह उभर आती थी, जैसे किसी ने कागज पर कलम से लिख दिया हो। यह अक्षर अपने आप ही उभरते थे और कुछ ही मिनट में गायब हो जाते थे।

दक्षिण अफ्रीका एक साधारण-सा युवक पीटरवाम डेनवर्ग योग विद्या के अपने चमत्कारों के लिए काफी दिनों तक प्रसिद्ध रहा। 28 जुलाई 1969 को उसने न्यूकेसिल नगर में एक बड़ी भीड़ के सामने अपने इन चमत्कारों का प्रदर्शन किया। इसके कुछ वर्ष पूर्व वह चाय का एक छोटा-सा होटल चलाता था। वहीं से उसके हाथ में योग विद्या की एक पुस्तक लग गई। जिसे पढ़कर उसने योग के बारे में जाना। उस पुस्तक ने डेनवर्ग की उत्सुकता बढ़ा दी और वह ऐसे ग्रन्थों को खोज-खोजकर पढ़ने लगा। अपने इसी स्वाध्याय क्रम में उसने भारत को योगियों के देश के नाम से जाना। उसकी उत्कण्ठा इतनी बढ़ गई कि अपनी सारी जमा पूँजी समेट कर वह भारत चल दिया और हिमालय क्षेत्र में भ्रमण करता हुआ चमत्कारी योग विद्याएँ सीखता रहा।

हिमालय के अनेक योगियों से संपर्क कर, उनके सान्निध्य में रहकर डेनवर्ग ने अनेक विद्याएँ सीखी। जब वह अपने देश लौटा तो वहाँ के लोगों ने उसे चमत्कार दिखाने के लिए कहा। पहले तो वह मना करता रहा, पर जब लोगों ने चुनौती, उलाहने दिये और व्यंग्यपरिहास किया तो एक तरह से विवश हो गया। न्यूकेसिल नगर में प्रदर्शन की व्यवस्था की गई। एक लम्बे-चौड़े चबूतरे पर पत्थर के दहकते कोयलों की लपटों में डेनवर्ग को देर तक चहल-कदमी करनी थी। प्रदर्शन के लिए जोरदार विज्ञापन किया गया, अस्तु उसे देखने के लिए दूर-दूर से हजारों लोग एकत्रित हुए। भारी संख्या में उपस्थित दर्शकों से प्रदर्शन का विस्तृत मैदान भर गया। नियत समय पर प्रदर्शन हुआ और डेनवर्ग ज्वालाओं के बीच नंगे पैर करीब 45 मिनट तक टहलता रहा। निकला तो उसके शरीर पर कहीं एक छाला भी नहीं था।

अन्तःशक्ति को जागृत करने में मन्त्र विद्या भी बड़ा महत्व रखती है। यों मन्त्र विद्या के नाम पर धूर्तता और ठगी भी कम नहीं है, उसकी आड़ में धूर्त लोग अपना स्वार्थ भी कम सिद्ध नहीं करते, पर इतने मात्र से ही यह नहीं मान बैठना चाहिए कि इस क्षेत्र में कुछ भी तथ्य नहीं है। एक अंग्रेज शिकारी डेविड लेजली ने अपनी अफ्रींकी शिकार यात्राओं के विवरणों की एक पुस्तक लिखी है। “जुलुओं के बीच” इस पुस्तक में एक ताँत्रिक से सम्बन्धित घटना भी है। लेजिली ने लिखा है कि एक बार उसके साथी हाथियों के शिकार में घेराबन्दी कर रहे थे। घेराबन्दी के बाद देखा गया कि उनके कुछ साथी गायब हो गये। बहुत ढूंढ़ खोज की गई, पर एक का भी कहीं पता नहीं चला। अन्त में किसी के परामर्श पर तलाश के लिए एक जुलु ताँत्रिक की सहायता ली गई। ताँत्रिक ने अपने मन्त्र बल से उन सभी साथियों की शक्लें, नाम, वस्तुएँ और उनसे सम्बन्धित अनेक बातों को बताया जो अक्षरशः सही थी। इसके बाद उसने यह भी बता दिया कि वे सभी अमुक स्थान पर है। बताये हुए स्थान पर जाकर उन्हें खोज लिया गया।

युगाँडा के एक आतंकवादी संगठन ‘दिनीबा मंसाबूबा’ जो छिपकर अपनी गतिविधियाँ चलाता था, का पता लगाने के लिए नियुक्त एक ब्रिटिश गुप्तचर अधिकारी ने भी अपनी संस्मरण पुस्तक में इसी तरह की विभिन्न घटनाओं का उल्लेख किया है। उक्त ब्रिटिश अधिकारी जान-क्राफ्ट अन्धविश्वासों से सर्वथा मुक्त, प्रगतिशील, विचार रखने वाले, कुशाग्र बुद्धि और साहसी व्यक्ति है। उन्हें जादू-टोनों पर भी रंचमात्र विश्वास नहीं था। जब वे आतंकवादी संगठन का पता लगाने के लिए सक्रिय हुए तो उन्हें चेतावनी दी गई कि वे इस कार्य में हाथ न डालें। गुप्तचरों को इस तरह की धमकियाँ तो प्रायः अपने प्रत्येक अभियान में उन्हें मिलती रहती है। जानक्राफ्ट पर उस धमकी का कोई प्रभाव नहीं होना था से नहीं हुआ। जब वे न माने तो उनके ऊपर आतंकवादियों ने अप्रत्याशित व अस्वाभाविक ढंग से महा विषैले सर्पों के आक्रमण की योजना बनाई।

जान क्राफ्ट एक बार कहीं से लौट रहे थे। जिस स्थान से वे लौट रहे थे, वहाँ से और भी कई व्यक्ति आ जा रहे थे, पर क्राफ्ट जैसे ही सीढ़ियाँ उतरने लगे न जाने कहाँ से सीढ़ियों पर एक विषधर साँप उन पर झपटा। संयोग ही कहना चाहिए कि क्राफ्ट तुरन्त उछलकर कई सीढ़ियां फलाँल गये। नहीं तो उस समय उनकी मृत्यु निश्चित थी। एक बार वे अकस्मात् एक सहयोगी के यहाँ पहुँचे तो वहाँ भी एक भयंकर फणिधर ने तीखी विषाण उनकी आँखों की ओर छोड़ी। सहकर्मी सतर्क व चुस्त था। उसने तुरन्त क्राफ्ट को नीचे गिरा दिया और जहरीली धार ऊपर से निकल गई। अन्यथा उनका वहीं प्राणाँत हो जाता या वे जन्म भर के लिए अन्धे हो जाते। फिर एक बार उन्हें अपनी कार में दरवाजे के पास, दूसरी बार बिस्तर पर ही भयंकर विषैले सर्प दिखे। एक बार साँप उनके दफ्तर में एक अँधेरे कोने से निकलकर क्राफ्ट पर झपटा।

इस तरह की घटनाएँ कई बार घटीं और क्राफ्ट संयोग अथवा सौभाग्यवश हर बार बच गय। इन घटनाओं का विश्लेषण करते हुए स्वयं जान क्राफ्ट ने लिखा है कि प्रत्येक बार घटी यह घटनाएँ संयोग मात्र नहीं हो सकती थीं। उनके अकस्मात् दूर कहीं पहुँचने की सूचना उनके शत्रुओं को तुरन्त नहीं मिल सकती थी, इसलिए इस बात की भी बहुत कम सम्भावना थी कि वे लोग चुपके से ये साँप छोड़ जाते थे। फिर जहाँ अनेक लोग आ जा रहें हों वहाँ केवल क्राफ्ट पर ही साँप क्यों झपटा? घटनाओं का विश्लेषण करते हुए जान क्राफ्ट ने युगाँडा में प्रचलित इस मान्यता की पुष्टि की है कि वहाँ के तान्त्रिक सर्पों को वश में करके उनका इस तरह मनचाहा प्रयोग कर सकते है।

हिन्दी के प्रसिद्ध समाचार पत्र नव भारत टाइम्स में प्रकाशित एक लेख के अनुसार ‘मध्य प्रदेश के सरगुजा नरेश के सामने सन् 1934-35 में एक ऐसी महिला की पेशी हुई, जिसके बार में आरोप लगाया गया था कि उसने मारण मन्त्र द्वारा कई लोगों की हत्यायें की हैं तथा समगुजा में एक वर्ष तक जलवृष्टि ने होने के कारण भी उक्त महिला द्वारा किया गया मन्त्र प्रयोग ही था। उस आदिवासी महिला ने भरे दरबार में अपना अपराध स्वीकार कर लिया। आदिवासियों का यह स्वभाव होता है कि वे अपने द्वारा किये गये भले-बुरे कामों को निस्संकोच स्वीकार कर लेते है। जब सरगुजा नरेश ने उसके मारण मन्त्र की शक्ति का प्रदर्शन देखना चाहा तो एक स्वस्थ, हृष्ट-पुष्ट मुर्गा, एक राज कर्मचारी के हाथ में रखा गया। महिला ने एक निश्चित दूरी पर खड़े होकर घास का एक तिनका अपने हाथ में पकड़ा और मन्त्र बोलकर उस तिनके को बीच से तोड़ दिया। तिनका टूटने के साथ ही राजकर्मचारी की गोद में बैठा स्वस्थ मुर्गा सहसा ऐठा, छटपटाया और निष्प्राण हो गया।

मन्त्र साधनाओं या योग विद्या के चमत्कार और कुछ नहीं मनुष्य की अन्तःशक्ति के ही परिणाम है। यदि वह बढ़ाई या विकसित की जा सके तो मनुष्य शरीर चलते फिरते बिजलीघर के रूप में परिणत हो सकता है। इस शक्ति का प्रयोग योगीजन भले कार्या में ओर दुष्ट प्रकृति के लोग बुरे प्रयोजनों में करते है। आग से भोजन भी बनाया जा सकता है और घर भी जलाया जा सकता है। यही बात साधना द्वारा उत्पन्न अन्तःशक्ति के बारे में भी लागू होती है। इसलिए योग विद्या के आचार्यों ने यम-नियमों द्वारा अपने स्वभाव, प्रकृति और आदतों को परिमार्जित करने के बाद अगली सीढ़ियों पर कदम रखने का निर्देश दिया है।


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