श्रद्धया सत्यमाप्यते

October 1979

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भौतिक-समृद्धि स्थूल साधनों से उपलब्ध होती है। आत्मिक-सिद्धि के लिए कुछ अन्य ही साधन अपेक्षित होते हैं। आत्म-साक्षात्कार- ईश्वर-साक्षात्कार के साधनों की विवेचना जहाँ भी हुई, उसमें श्रद्धा को प्रमुख माना गया है। श्रद्धा-तत्व के विकास द्वारा ही परमात्मा की अनुभूति कर पाना सम्भव होता है।

श्रद्धा का तात्पर्य उन भावनाओं अथवा आस्थाओं से है, जो अपने गुरुजनों या इष्ट के प्रति पूज्य-भाव एवं सघन आत्म भाव बनाये रखती हैं। महापुरुषों के वचनों पर विश्वास करके, उनके द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर बढ़ सकना श्रद्धा द्वारा ही सम्भव हो पाता है। जिनके प्रति श्रद्धा के भाव नहीं होते, उनके कथन पर विश्वास कर पाना-उनके द्वारा बताये मार्ग पर चल पाना असम्भव ही रहता है। ‘श्रद्धा’ सत् तत्व के प्रति ही सघन होती है, असत् के प्रति नहीं। श्रेष्ठता का समावेश जहाँ भी होता है, श्रद्धा वहीं टिकती है, अन्यत्र नहीं। वस्तु स्थिति प्रकट होने पर श्रेष्ठता का पाखण्ड जैसे ही ध्वस्त होता है अपने साथ श्रद्धा को भी विनष्ट कर देता है। परमात्मा के प्रति श्रद्धा न डिगने का कारण उसके अस्तित्व एवं अनुग्रह के प्रति तनिक भी आशंका का न होना ही है। जिसके मन में संदेह या अविश्वास रहता है, उनकी श्रद्धा भी ईश्वर के प्रति गहन नहीं हो पाती प्रगाढ़ श्रद्धा तो मिट्टी में भी भगवान का दर्शन करा देती है। एकलव्य द्वारा मिट्टी के द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या में पारंगत हो पाना श्रद्धा का ही चमत्कार कहा जा सकता है।

श्रद्धा द्वारा कुछ भी दुर्लभ नहीं होता है-

श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः। श्रद्धया भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि॥ ऋ10।1511

‘श्रद्धा’ से अग्नि का प्रदीप्त किया जाना सम्भव होता है अर्थात् आत्मज्ञान की अग्नि श्रद्धा द्वारा हविष्यान्न का हवन किया जाता है अर्थात् आत्मा सत्ता को परमात्मा-सत्त, में विलय कर पाना श्रद्धा द्वारा ही सम्भव हो पाता है। श्रद्धा भग (ऐश्वर्यादिकों) के सिर पर होती है, अर्थात् सभी ऐश्वर्यों की प्राप्ति श्रद्धा का सत्परिणाम है। ऐश्वर्यादिक भग छः होते हैं-

एश्यवर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियाः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णाँ भग इतीरिणा॥

ऐश्वर्य, धर्म, यश, क्षी (समृद्धि ) ज्ञान और वैराग्य-छहों को भग कहा जाता है श्रद्धा का इनमें मूर्धन्य होने का तात्पर्य है, श्रद्धा का इन पर नियन्त्रण होना। श्रेय साधक में सर्वप्रथम श्रद्धा ही प्रबल होती है, तत्पश्चात् क्रिया शीलता आती है और अन्ततः ऐश्वर्यादिकों की उपलब्धि होती है।

गीताकार श्रद्धा द्वारा आत्मज्ञान की प्राप्ति का तथ्य प्रकट करता है।-

श्रद्धा वाँल्लभते ज्ञानम्। गीता-4-38

श्रद्धावान व्यक्ति ही ज्ञान प्राप्त करता है।

योग-मार्ग के पथिकों की रक्षा’श्रद्धा’ के बलबूते ही सम्भव होती है, अन्यथा वे विघ्न-प्रलोभन उसे कभी का पथ भ्रष्ट कर देते, जो इस मार्ग में प्रायः आया करते है।

योग-दर्शन के व्यास-भाष्य में लिखा है-

सा (श्रद्धा) जननीव कल्याणं योगिन पाति।

ईश्वरानुभूति के अन्य साधन उतने सफल नहीं होते, जितना श्रद्धा की प्रगाढ़ता। याज्ञिक और योगी सर्वे प्रथम श्रद्धा की ही उपासना करते हैं क्योंकि वे इसके सत्परिणामों को जानते हैं। श्रद्धा अपनी चरम परिणिति ईश्वर साक्षात्कार के रूप में प्रकट करती है।


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