मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के परिवेश में ही वह व्यक्तित्व का विकास करता और जीवन के आवश्यक सरंजाम जुटाता है। जिस समाज पर उसका जीवन अवलम्बित है, वह समाज की परस्पर स्नेह, सहयोग सद्भावना और सहकारिता जैसे सद्गुणों पर आधारित है। सुव्यवस्थित समाज के मूल में इसी गुण को कार्यरत देखा जा सकता है। जहाँ लोगों में न तो परस्पर-सहयोग है और न स्नेह, सद्भावना है और न सद्विचार, वहाँ नित्य प्रति कलह, ईर्ष्याद्वेष, मार-काट, अशान्ति से भरा वातावरण होता है। इस वातावरण में न तो जीवन की सुरक्षा हो पाती है और न विकास। उलटे व्यक्तित्व में अवाँछनीय तत्व प्रविष्ट होकर विकास की जड़ों को छिन्न-विच्छिन्न कर देते हैं। इसके विपरीत सहयोग और सहकारिता भरे वातावरण में भय आशंका, आतंक आदि के लिए स्थान ही नहीं बचता है। सभी प्रसन्नता से रहते और निश्चिन्तता से जीवन यापन करते हैं।
इतिहास के प्रत्येक पृष्ठ सहयोगपूर्ण- विकास-क्रम के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। मानवीय-संस्कृति और सभ्यता को आदि कालीन पाषाण-युग से वर्तमान में उन्नति के उच्चशिखर पर पहुँचाने का श्रेय परस्पर सहकारिता और सौजन्यपूर्ण सद्व्यवहार को ही है। प्रस्तुत समाज-व्यवस्था, कल-कारखाने, शासन तन्त्र, कृषि,व्यवसाय वैज्ञानिक-आविष्कार इत्यादि सभी अद्यावधि उपलब्ध प्रगति-सम्पदा इसी के सुपरिणाम हैं।
परस्पर मिल-जुल कर रहने, खाने-खेलने ईर्ष्या-द्वेष न करने, किसी का भी बुरा न चाहने आदि विधि-निषेधों का पग-पग पर निर्देश देने वाले शास्त्रवचनों की दूर दर्शिता देखते ही बनती है-
संगच्छध्वं सं वदष्वं सं वो मनाँसि जानताम्। देवा भागं यथापूर्वे सज्जनाना उपासते॥ -ऋग्वेद 10/191/2
हे मनुष्यो! तुम मिल जुल कर रहो, मिल-जुल कर वार्तालाप करो, तुम सब के मन में एक जैसे संकल्प विकल्प हों। देवतागण इन्हीं गुणों के आधार पर पूजनीय और उपासनीय बने हुए हैं।
समानों मन्त्रः समिति समानी समानं मनःसहचित्तमेंषाम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वोह-विषाजुहोमि॥ -ऋ.10/191/3
तुम सबके विचार समान हों तुम्हारी सभा एक हो तुम्हारे अन्तःकरण एक हो, सभी के चित्त (हृदय) एक जैसे हों। मैं (परमेश्वर) तुम्हारे लिए एक से मन्त्र -वेद ज्ञान तथा एक समान आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करता हूँ।
‘सहजीविलाँ’ का सिद्धान्त-पारस्परिक स्नेह-सद्भावना पर ही आधारित है। ‘जियो और जीने दो’- उसका आदर्श है। श्रुतियाँ इसी का प्रतिपादन करती हैं-
सम्प्रच्यघ्वमुप सम्प्रयात्। (यजु.15/53)’
हे मनुष्यो! सभी लोग मिल-जुल कर (आत्मोत्कर्ष एवं सत्प्रयोजनों के लिए) प्रस्थान करो।
सं जीवास्थ। (अथर्व 19/69/3)
एक साथ अर्थात् मिल-जुल कर जियो।
‘पुमान पुनागूँग सं परिपातु विश्वतः।’ यजु.29/51
एक मनुष्य दूसरे मनुष्य की सब प्रकार से रक्षा करें।’
आत्मिक-प्रगति और सामाजिक समृद्धि के मूल में कार्यरत इस सहयोग, स्नेह और सद्भावना को सर्वत्र देखा जा सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि विकास के इस मूल मन्त्र को समझकर जीवन की प्रत्येक गतिविधियों में इसे प्रमुखता दी जाय। जीवन में सुख सुविधा के साधनों से लेकर शान्ति और सुव्यवस्था का समावेश हो पाना इसी साधना द्वारा सम्भव हो सकेगा। सामाजिक उन्नति और प्रगति का लक्ष्य इन्हीं माध्यमों से प्राप्त हो सकेगा। इसी स्वर्गीय वातावरण का सृजन हो सकेगा।