धर्मगुरु रवी मेहर और दिनों की भाँति आज भी अपनी पाठशाला में बच्चों को पाठ सिखाते रहे। उस दिन उन्होंने भगवान की न्यायकारिता का उपदेश किया। अपनी धर्म पत्नी को भी वह प्रातःकाल यही समझा कर आये थे यह संसार ओर यहाँ का सब कुछ भगवान् का है उसे समर्पित किये बिना किसी वस्तु का उपभोग नहीं करना चाहिए।
उन दिनों नगर में महामारी फैली थी। दुर्भाग्य ने उस दिन उन्हीं के घर डेरा डाला और मेहर के दोनों फूल से सुन्दर बच्चों को मृत्यु की गोद में सुला दिया। मेहर की धर्म-पत्नी ने दोनों बच्चों के शव शयनागार में लिटा दिये और उन्हें सफेद चादर से ढक दिया। आप घर की सफाई ओर भोजन व्यवस्था में व्यस्त हो गई।
साँझ हुई और रवी मेहर घर लौटे। सबाथ का दिन था। मेहर ने आते ही पूछा-दोनों बच्चे कहाँ है? सन्तोष स्मित मुद्रा में पत्नी ने कहा यहाँ कहीं खेल रहे होंगे, जल लीजिये, हाथ-मुँह धोकर भोजन लीजिये। भोजन तैयार है। मेहर नेनिश्चिन्त होकर भगवान् का ध्यान किया और फिर पाकशाला में आये। उन्हें घर में आज कुछ उदासी दीख रही थी। बच्चे नहीं थे पूछा-बच्चे अभी खेलकर नहीं लौटे क्या? पत्नी ने कहा अभी बुलाये देती हूँ लीजिये दिन भर उपवास किया है भोजन कर लीजिये।
रवी ने भोग लगाया और फिर उस अन्न को प्रसाद मानकर प्रेम पूर्वक ग्रहण किया हाथ मुंह धोकर उठे तो फिर पूछा-बच्चे अभी तक नहीं आये-बाहर जाकर पता लगाऊँ क्या?
पत्नी ने कहा-’नहीं स्वामी बाहर जाने की आवश्यकता नहीं है, पर हाँ यह तो बताइये-आप जो कह रहे थे कि संसार में जो कुछ है वह राव भगवान् का है यदि भगवान अपनी कोई वस्तु वापस ले ले तो क्या मनुष्य को उसके लिये दुःख करना चाहिए? इसमें दुःख की क्या बात भद्रे! रवी मेहर ने आत्म-सन्तोष की मुद्रा में कहा। पर आज तुम्हारी बातें कुछ रहस्यपूर्ण-सी लगती हैं प्रिये कहो न बात क्या है कुछ छुपाना चाहती हो क्या?
नहीं स्वामी! आप से क्या छुपाना मैं तो आपके ही आदर्श का पालन कर रही हूं। यह लीजिये यह रहे आपके दोनों बच्चों के शरीर प्राण भगवान के थे सो उन्होंने वापस ले लिये यह कह कर मेहर की पत्नी ने बच्चों के कफन मुंह से हटा दिये।