मानसिक तनाव बुरा तो है ही, उपयोगी भी

October 1979

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प्रसिद्ध विचारक और चिन्तक डाक्टर वाल्टर टौपेल ने लिखा है कि “केवल मनुष्य ही रोना हुआ पैदा होता है, शिकायत करता हुआ जीता है और निराश मरता है।” यह उक्ति अधिकाँश लोगों के जीवन में अक्षरशः सही सिद्ध होती है। अन्य प्राणियों के जीवन में न तो कोई परेशानी होती है न समस्यायें। पर मनुष्य विचारशील और भाव-प्रवण होने के कारण छोटी-छोटी घटनाओं से भी प्रभावित होता है तथा उन पर अपनी प्रतिक्रियायें व्यक्त करता है। ये प्रतिक्रियायें अनुकूल कम होती हैं और प्रतिकूल अधिक।

समाज के प्रत्येक वर्ग में प्रत्येक स्थिति के व्यक्तियों का यदि विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि हर कोई कहीं न कहीं, किसी न किसी कष्ट या समस्या से पीड़ित है। निर्धन व्यक्ति अपनी गरीबी से पीड़ित है तो समृद्ध और किन्हीं कारणों से। कोई भौतिक सुख-सुविधाओं से परेशान है तो कोई मानसिक शांति न मिलने से। आज के समय में तो ये समस्यायें और भी अधिक जटिल हो गई है। सभ्यता के विकास के साथ-साथ और भी नयी-नयी समस्यायें उत्पन्न होने लगी हैं। आज की मशीनी सभ्यता ने मनुष्य के लिए जो नई समस्याएँ उत्पन्न की है उनमें प्रमुख है मानसिक तनाव। यों चिन्तायें, विक्षोभ, मानसिक दबाव और असफलता का दुःख सदा से मनुष्य को परेशान करते हैं, पर विगत कुछ दशाब्दियों में मानसिक तनाव के कारण कई ऐसे रोग फैलने लगे हैं जिसका कारण शरीर में खोजें भी, नहीं मिल पाया है। ऐसे रोगों को अंग्रेजी में “साइकोसोमैटिक” रोग कहा जाता है। एक अनुमान के अनुसार अकेले अमेरिका में लगभग 65 प्रतिशत रोगी इसी प्रकार के होते हैं। भारत में भी ऐसे रोगियों की संख्या बड़े शहरों के कुल रोगियों की संख्या से करीब आधे इन्हीं रोगों से ग्रस्त होते हैं।

चिकित्सा-विज्ञान की नई-नई शोधों और उपचार पद्धतियों के बल पर कुछ दशकों में जहाँ कई पुरानी बीमारियों पर पूरी तरह नियंत्रण प्राप्त कर लिया गया था, वहीं अब कुछ ऐसे रोग बड़ी तेजी से फैल रहे हैं, जिनका पहले कभी नाम भी नहीं सुना गया था। विशेषज्ञों के अनुसार उन रोगों को सभ्यता के राजरोग कहा जाता है। उनका कहना है कि मन पर पड़ने वाले दबावों और मानसिक तनाव के कारण ही ये रोग उत्पन्न होते हैं।

विज्ञान की भाषा में मन शरीर का कोई अवयव नहीं है। वैज्ञानिकों के अनुसार जिसे मन कहा जाता है। वह मस्तिष्क की शक्तियों का ही एक विशिष्ट प्रकार से होने वाला प्रक्षेपण है। मनुष्य शरीर के द्वारा सम्पन्न होने वाली सभी गतिविधियों, क्रिया-कलापों का संचालन मन द्वारा होता है- यह तो सर्वविदित है। शरीर के द्वारा कुछ कार्य तो मनुष्य अपनी इच्छानुसार करता है जैसे चलना, उठना, बैठना, लिखना, पढ़ना आदि। इनके अतिरिक्त शरीर में कई ऐसी प्रक्रियाएं भी चलती रहती है जिन पर मनुष्य अपनी इच्छानुसार नियमन नहीं कर सकता। जैसे पाचन क्रिया, रक्त परिभ्रमण, हृदय स्पंदन, नाड़ी चला आदि। इन प्रक्रियाओं का नियंत्रण मस्तिष्क के जिस भाग द्वारा होता है उसे हाईपोथेल्मस् कहते हैं। इस केंद्र से चलकर स्नायु पथ के द्वारा अनैच्छिक गतिविधियाँ चलती है। इसके भी दो भाग हैं एक को पैरासिंपेथैटिक कहा जाता है तथा दूसरे को सिंपेथैटिक। पहला पाचन, पोषण और शुद्धिकरण जैसे कार्य करता है तथा दूसरा भाग प्राणी को विशिष्ट परिस्थितियों से निपटने की क्षमता प्रदान करता है। तनाव या दबाव के समय मस्तिष्क का यह हिस्सा सक्रिय हो उठता हैं। जैसे खसरा प्रस्तुत होने पर इनके कारण रक्तचाप बढ़ जाता है, दिल की धड़कन तेज हो जाती है, हृदय से अधिक रक्त प्रवाहित होने लगता है, भीतरी अवयवों से हटकर रक्त माँसपेशियों की ओर आने लगता है। रक्त में शर्करा की मात्रा बढ़ जाती हैं और शरीर .... नामक रसायन भी प्रवाहित होने लगता है। यह सब परिवर्तन आसन्न संकटों से जूझने के लिए होते है। किन्तु जब साधारण-सी बातों को लेकर भी चिंतित हुआ जाने लगता है तो भी यही परिवर्तन होते है।

भावनाओं की शरीर पर क्या प्रतिक्रिया होती है? इसका यह एक छोटा-सा उदाहरण है। प्रकृति ने भावनाओं का शरीर से यह संबंध विशिष्ट उद्देश्य से जोड़ा है। वह उद्देश्य यह है कि प्राणी का शरीर परिस्थिति के अनुरूप टल सके। कुछ और घटनाओं द्वारा भावनाओं की शरीर पर होने वाली प्रतिक्रियाओं को समझा जा सकता है। डर के कारण पेशाब छूट जाना, घबराहट से पसीना छूटना, चिन्ता के कारण भूख न लगना, गुस्से में होने पर चेहरा तमतमा उठना, परेशानी से नींद न आना और लज्जा के मरे लाल हो जाना, चेहरा झुका लेना आदि स्थितियाँ दर्शाती है कि भावनाओं का प्रभाव मनुष्य शरीर के रक्त प्रवाह और अंदरूनी हलचलों पर अनिवार्य रूप से पड़ता है।

पसीना छूटने से पता चलाता है कि भावनाएँ शरीर की उन ग्रन्थियों को प्रभावित करती है जो पसीना छोड़ने का काम करती है। बहुत बुरी खबर सुनने या मानसिक आघात पहुँचने पर घबड़ा उठने के साथ मूर्छित का क्रिया-कलाप भी भावनाओं से प्रभावित होता है। यह सब स्थितियाँ इस बात की द्योतक है कि परिस्थितियाँ भावना को जन्म देती है और भावनायें शारीरिक प्रक्रियाओं को। परिस्थिति विशेष से निपटने के लिए शरीर में होने वाले ये परिवर्तन प्रकृति की बहुत ही उपयोगी व्यवस्था होती है।

परन्तु कई बार अकारण ही व्यर्थ की चिन्ताएँ होती है और उन स्थितियों में भी यही परिवर्तन होने लगते है। लम्बे समय तक यह स्थिति बनी रहे तो मनुष्य शरीर कई रोगों से आक्राँत हो जाता है। आधुनिक सभ्यता में जीवन-क्रम की तेज गतिशीलता और कदम-कदम पर प्रतिस्पर्धा की आपाधापी भी मस्तिष्क में मिथ्या आशंकाओं भय और गुत्थियां को जन्म देती हैं। वैसी दशा में मस्तिष्क के आदेश से शरीर में वैसी ही प्रक्रिया होने लगती है जैसी कि वास्तविक संकट के समय होती है। मनोवैज्ञानिक का कहना है कि इस तरह की प्रक्रियायें अपेक्षाकृत कम तीव्र होती हैं परन्तु वे लम्बे समय तक चलती है। जब वास्तविक संकट सामने आता है तब तो ये प्रतिक्रियायें जितनी तेजी से शुरू होती है। उतनी ही तेजी से संकट दूर हो जाने पर अपने आप समाप्त हो जाती है। लेकिन अवास्तविक और अभूर्त संकट से उत्पन्न प्रक्रिया भले ही तीव्र न हो पर धीमे-धीमे शरीर में चलती जाती है तथा उससे शरीर को नुकसान पहुँचता है। उदाहरण के लिए वास्तविक संकट उत्पन्न होने के कारण हृदय की गति बढ़ जाती है और संकट समाप्त होते ही पुनः स्वाभाविक स्थिति में आ जाती है। किन्तु मनोकल्पित आशंका से हृदय गति कुछ तेजी से ही धड़कती है। ऐसी आशंकाओं का कोई आधार तो होता नहीं, अतः ये आशंकाएँ भी लम्बे समय तक चलती रहती है और हृदयगति भी निरन्तर बढ़ी हुई रहने लगती है जो शारीरिक व्याधि का रूप धारण कर लेती है। उपरोक्त ढंग से बढ़ी हुई हृदय की गति के रोग को “टैकी कार्डिया” कहा जाता है।

इसी प्रकार संकट के समय मस्तिष्क रक्तप्रवाह को आमाशय से हटाकर ऊपरी माँसपेशियों की ओर मोड़ देता है। ऐसे क्षणों में मारे घबराहट के जी मिचलाने लगता है और ऊबकाई आने लगती है। यह प्रक्रिया मिथ्या भय के कारण भी यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। ऐसी स्थिति में खट्टी डकारें आने, जी मिचलाना जैसे लक्षण प्रकट होने लगते है।

यह सब लक्षण रोग के प्रतीत होते है और लगता है कि शरीर स्वास्थ्य में कोई खराबी आ गई है। परन्तु वास्तव में इनकी जड़ मन के भीतर होती है। व्यक्ति इस बात को नहीं समझता और मानसिक कारणों को यथावत् रखते हुए रोग की भी चिन्ता करने लगता है। जितना ही वह रोग के बारे में सोचता जाता है, उतना ही रोग बढ़ता नजर आने लगता हैं और दोहरा समस्या बन जाती है।

इस तरह के मानसजन्य रोगों की एक लंबी सूची है और विज्ञान भी लह मानने लगा है कि 65 प्रतिशत रोगों का कारण इस तरह की मानसिक अपरिपक्वता ही है। व्यक्तित्व में प्रौढ़ता का अभाव ही मानसजन्य शारीरिक रोगों का कारण बनती है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो निरन्तर किन्हीं बातों को लेकर चिंतित रहना, गलत सलत शंका, कुशंकाएँ करते रहना और व्यर्थ के बहम पालना मानवीय मस्तिष्क को आत्याँतिक तनावग्रस्त कर देते है। तनाव का बहुत अधिक बढ़ जाना ही इस तरह के रोगों का कारण बनता है।

मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि तनाव जीवन का एक अनिवार्य अंग है परन्तु वह सीमा से अधिक हो जाता है तो मस्तिष्क और शरीर पर बुरा प्रभाव डालने लगता है। सिएटल के वाशिंगटन विश्वविद्यालय में चिकित्सा विभाग के प्रधान डा. टामस होम्स ने हाल ही में लंबे समय तक शोध और अनुसन्धान के बाद यह प्रतिपादित किया है कि सक्रिय जीवन व्यतीत करते हुए कोई भी व्यक्ति तनाव से पूर्णतः मुक्त नहीं हो सकता। उनका कहना है कि एक ही तरह की घटनाएँ अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग अनुपात से तनाव का कारण बनती हैं। उन्होंने ऐसी विभिन्न घटनाओं तथा घटकों की एक लम्बी सूची बनाई जिनके कारण मानसिक तनाव उत्पन्न होता है तथा इन घटनाओं के लिए अंक निर्धारित किए और कहा कि एक वर्ष में 200 अंकों से अधिक तनाव-पूर्ण स्थितियों में स्वास्थ्य के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है।

डा. होम्स ने जीवन साथी की मृत्यु से लेकर रहन-सहन में परिवर्तन और यहाँ तक कि सोने की आदतों में बदलाव तक को तनाव का कारण बताया है। यह बात अलग है कि कौन व्यक्ति इन घटनाओं से कितना तनाव अनुभव करता ह। इस प्रकार तनाव से पूर्णतया छुटकारा तो नहीं पाया सकता ओर न ही इसके लिए चिन्ता करने की कोई आवश्यकता है। परमात्मा ने मनुष्य के शरीर और मन को इस योग्य बनाया है कि यह दैनन्दिन जीवन में आने वाले तनाव को झेल सके। समस्या वहाँ उत्पन्न होती है जब मनुष्य साधारण घटनाओं को भी आवश्यकता से अधिक महत्व देने लगता है। इस स्थिति से बचने का एक ही उपाय है कि मनुष्य अपनी सीमाओं और सामर्थ्यों को सही ढंग से पहचाने तथा उनके अनुसार अपना जीवन-क्रम बनाये। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक और डा. सोलिए के अनुसार अपनी सामर्थ्य के अनुसार तनाव झेलना स्वास्थ्य के लिए ही है।

लेकिन सामर्थ्य से अधिक तनाव बढ़ता प्रतीत हो तो डा. सोलिए ने उसके लिए श्रम को सबसे बड़ा उपचार बताया है। अपने आपको व्यक्त रखना अनेक प्रकार की समस्याओं के साथ-साथ मानसिक तनाव से मुक्त होने का भी अचूक उपाय है। महत्वाकांक्षाओं और क्षमताओं में सामंजस्य भी तनाव की सम्भावना को बहुत कम कर देता है। अपनी स्थिति में ऊँचा उठने और उन्नति के चरम शिखर को छूने की इच्छा हर किसी में रहती है। निश्चित ही अपना लक्ष्य बनाना चाहिए पर उसके लिए अधैर्य या व्यग्रता से काम नहीं लेना चाहिए। सीढ़ी दर सीढ़ी ही लक्ष्य तक पहुँचा जा सकता है। डॉक्टर सोलिए का यह भी कहना है तनाव से उत्पन्न शारीरिक व्याधियों से बचने के लिए व्यक्ति का आस्थावान होना भी आवश्यक है। ईश्वर के अस्तित्व को मानने में किसी को आपत्ति भी हो सकती है, पर कम से कम अपने प्रति आस्था तो रखी जा सकती है।

अपने प्रति आस्थावान रहने के लिए आवश्यक है कि अपना सही-सही मूल्याँकन किया जाय। अपने को बहुत अधिक बढ़ाकर या बहुत अधिक घटाकर देखने वाले लोग तनाव तथा कुण्ठा के शिकार होते हे। अतएव अपना वास्तविक मूल्याँकन करते हुए सामान्य और सहज जीवन जीना मन और तन दोनों को सशक्त बनाता है।


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